सम्पूर्ण जगत के कल्याण हेतु माता आदिशक्ति जगदम्बा का अवतरण इस धरा पर होता रहा है। आसुरी शक्तियों की पीड़ाओं से देवताओं को मुक्ति दिलाने के लिए अवतार लेने वाली माता भवानी का कल्याणकारी स्वरूप जीवन चक्र में नाना विधि दुःखों से घिरे मानव के रोग, शोक, दुःखों को दूर करने वाली है। मान्यता है कि इनके दर्शन -पूजन से व्यक्ति को वांछित फलों की प्राप्ति होती है। पौराणिक ग्रंथों में इन्हें ईश्वरी शक्ति मानकर,पूजनीय माता कहकरइनकीअत्यंत महिमागान व प्रशंसा की गई है। पुराणों में वर्ष में दो बार चैत्र व आश्विन मास में उपस्थित नवरात्रों में देवी के प्रत्येक रूप की विशेष पूजा का विधान बताया गया है। चैत्र मास में आने वाली नवरात्र (नवरात्रि) को वासन्तीय नवरात्र और आश्विन में आने वाली नवरात्र को शारदीय नवरात्र कहते हैं। दोनों ही नवरात्र काल उक्त माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नवमी तक मनाई जाती है, और नवरात्र के इन नौ दिनों में भगवती के नौ (नव) स्वरूपों -शैलपुत्री,ब्रह्मचारिणी,चंद्
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पर्वतराज हिमालय के यहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री प्रसिद्ध हुआ।वह एक बैल की सवारी करती हैं। इनका वाहन वृषभ है। वृषभ अर्थात बैल पर सवारी करने के कारण उनका एक नाम वृषारूढा भी है। उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल, और बायें हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। दाहिनी हाथ के त्रिशूल से वे पापियों को दंड देने का कार्य व धर्म की रक्षा करती है। बायें हाथ में सुशोभित कमल का फूल ज्ञान व शक्ति का प्रतीक है। माता श्वेत व पीत वस्त्रों को धारण किये हुए रहती हैं। तथा शांत स्वभाव में दिखाई देती हैं। इनके माथे पर चंद्रमा विराजित है। मान्यता है कि चंद्रमा भगवान को देवी शैलपुत्री द्वारा शासित किया जाता है। इसलिए भक्तगण देवी की पूजा करके चंद्रमा के किसी भी प्रकार के बुरे प्रभाव से राहत पाने और जीवन को सबसे प्रभावी और सबसे सफल तरीके से जीने की कामनापूर्ति के लिए देवी के इस रूप की उपासना विधि- विधान से करते हैं।यह भक्तों के रोग व पीड़ाओं को दूर करती है।शैलपुत्री देवी भगवती का सबसे पूर्ण और प्रमुख रूप हैं, क्योंकि उन्हें भगवान शिव की पत्नी माना जाता है।शैलपुत्री शिव, विष्णु और ब्रह्मा की शक्ति का प्रतीक है।इन्हें पार्वती, शैल सुता, दक्ष, सुता, हेमवती तथा शैली पुत्री के नाम से जाना जाता है। उपनिषद की एक कथा में हेमवती नाम आया है, जिन्होंने हेमवती स्वरूप से देवताओं का गर्वभंजन किया था। था। इस पर देवताओं ने सर्वसम्मति से उन्हें शक्ति के रूप में स्वीकार किया।
इनके संबंध में प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार अपने पूर्व जन्म में यह प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। उस समय इनका नाम सती था। इनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था। एक बार वह अपने पिता दक्ष के यज्ञ में बिना निमंत्रण के ही चली गईं, तो वहाँ अपने पिता के यज्ञमण्डप में अपने पिता दक्ष द्वारा ही किए जा रहे अपने पति भगवान शंकर के अपमान को सह न सकीं। और वहीं यज्ञकुंड में उन्होंने अपने शरीर को योगाग्नि में भस्म कर दिया। अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं। इस जन्म में भी देवी शैलपुत्री भगवान शिव की ही अर्द्धांगिनी बनीं। नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री का महत्त्व और शक्तियाँ अनन्त हैं।
वासन्तीय व शारदीय दोनों ही नवरात्रों के प्रथम दिन अर्थात उस माह की शुक्ल प्रतिपदा के दिन कलश स्थापना के साथ ही माता दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है। नवरात्र के पहले दिन माता दुर्गा के प्रथम स्वरूप शैलपुत्रीकी पूजा का विधान है।शैलपुत्री के पूजन का समयचैत्र शुक्ल प्रतिपदा को प्रात: काल शुभ होता है। आवाहन, स्थापन और विसर्जन ये तीनों प्रात:काल ही होते हैं।नवरात्र पूजन में प्रथम दिन शैलपुत्री की पूजा और उपासना करते हुए योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योगसाधना का आरम्भ होता है। किसी एकान्त स्थान पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ गेंहू बोये जाते हैं। इस दिन धातु अथवा मृदा के बने कलश पर मूर्ति की स्थापना की जाती है। कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके युग्म पार्श्व में त्रिशूल बनाया जाता है।माता शैलपुत्री को श्वेत रंग अतिप्रिय होने के कारण इस दिन उन्हें सफेद रंग के वस्त्र, मिठाई इत्यादि अर्पण करने की परंपरा है। माता के चरणों में गाय का देसी घी चढ़ाने से जीवनभर स्वस्थ रहने का आशीर्वाद माता से मिलने की मान्यता होने के कारण इस दिन घी और घी से बने नैवेद्य को अर्पण करना चाहिए।उसके बाद उनकी स्तुति के लिए स्त्रोत पाठ का जाप करना चाहिए।दुर्गा सप्तशती का पठन अथवा श्रवण करना चाहिए। शैलपुत्री का ध्यान मंत्र है – ॐ देवी शैलपुत्र्यै नमः।। इनकी प्रार्थना का मंत्र है –
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्ध कृतशेखराम् ।
वृषारूढाम् शूलधराम् शैलपुत्रीम् यशस्विनीम् ।।
अर्थात- मैं अपनी वंदना, श्रद्धांजलि देवी माता शैलपुत्री को देता हूं, जो भक्तों को सर्वोत्तम वरदान देती हैं। अर्धचंद्राकार चंद्रमा उनके माथे पर मुकुट के रूप में सुशोभित है। वह वृषभ पर सवार है। वह अपने हाथ में एक भाला रखती है। वह प्रसिद्ध माता दुर्गा यशस्विनी हैं।
मान्यतानुसार शैलपुत्री के पूजन करने से मूलाधार चक्रजाग्रत होता है। जिससे अनेक प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं।शैलपुत्री को एक शिला के समान दृढ़ माना जाता है, जिनकी आराधना से मन को स्थित करने तथा इधर-उधर भटकने से रोका जाता है। इस दिन उपासक अपना ध्यान मूलाधार अर्थात केंद्र बिंदु पर लगाते हैं, जिससे उनकी योग चेतना जागृत होती है। योग साधना का यह प्रथम स्वरुप मनुष्य को अपने अंदर झाँकने तथा मंथन करने की ऊर्जा प्रदान करता है।मान्यता है कि शैलपुत्री पर्वतों की देवी हैं, और योग, साधना, तप और अनुष्ठान के लिए पर्वतराज हिमालय की शरण लेने वाले सभी भक्तों पर विशेष कृपा बनाए रखती हैं। इसलिए जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, पूर्वांचल, नेपाल आदि पर्वतीय इलाकों में इनकी पूजा की विशेष परंपरा है।