कर्म और भक्ति के संयुक्त अवतार वीर हनुमान

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        हनुमान जी को यदि कर्म और भक्ति का संयुक्तावतार कहा जाए तो गलत नहीं होगा क्योंकि वे एक ही समय में कर्म और भक्ति दोनों करते हैं,एक पल के लिए भी हनुमान जी भक्ति और कर्म से विलग नहीं होते। भगवद्गीता के आठवें अध्याय में एक श्लोक है *”मय्य अर्पितमनोबुद्धि मार्मवशास्यसंशयम”* इसका अर्थ है  हर समय ईश्वर का ही चिंतन करो और कर्म भी करो तभी ईश्वर की  प्राप्ति होगी। यह गीता का एक महत्वपूर्ण श्लोक है ,यदि इस श्लोक के अनुसार सभी के जीवन का आकलन किया जाए तो एकमात्र हनुमान जी ही इस ब्रह्म वाक्य के सच्चे अनुयाई नज़र आते हैं। हर पल उनके मुंह में राम और हाथ में काम जरूर होता है। हनुमानजी भक्ति करते हुए भी कर्म कर लेते हैं और कर्म करते हुए भी भक्ति कर लेते हैं।
           हमारे देश में भक्ति की परंपरा रही है लेकिन देखने में यह भी आया है कि ज्यादातर लोग कर्म करते हैं तो भक्ति छूट जाती है और भक्ति करते हैं तो कर्म में रुचि नहीं रह जाती जबकि संसार के लिए कर्म और भक्ति दोनों जरूरी है। इसीलिए अर्जुन जब युद्ध भूमि छोड़कर जाना चाहते हैं तो श्रीकृष्ण उनको कर्म में ही भक्ति और सन्यास ढूंढने की सलाह देते हैं । मानव जीवन के लिए यहीं परम आवश्यक है। यदि हनुमान जी के जीवन को देखें तो सबसे अद्भुत उदाहरण उन्होंने प्रस्तुत किया है। वे एक ही जीवन में चारों युग जीते हैं। वैसे तो हनुमान जी चिरंजीवी होने के कारण हर युग में प्रत्यक्ष होते ही हैं लेकिन उनके सिर्फ त्रेतायुग की लीलाओं को देखें तो भी उन्होंने एक साथ चारों युगों को जिया है।जैसे उनकी रामेश्वरम से लंका की यात्रा सिर्फ समुद्र लांघने की यात्रा नहीं है बल्कि त्रेता से कलियुग में पहुंचने की यात्रा भी है। लंका में उन्होंने वह सब देखा है जो आज हम कलियुग में देख रहे हैं। लंका में अहंकार है,झूठी भक्ति है,छल है,अज्ञान है और विलासिता है जबकि किष्किंधा में वैराग्य था,कर्मठता थी, यज्ञ थे मतलब त्रेता युग के सारे गुण किष्किंधा में थे और कलियुग के सारे गुण अवगुण लंका में थे इसलिए यह यात्रा बहुत आसान नहीं थी। यहां बात सिर्फ समुद्र के उल्लंघन की नहीं थी बल्कि उसके बाद लंका में सुरक्षित रहने और वापस आने की भी थी। समुद्र को लांघने वाले तो बहुत से वानर थे लेकिन सुरक्षित वापस आने की सामर्थ्य सिर्फ हनुमान जी में थी। हनुमानजी कर्म और भक्ति दोनों को एक साथ साध चुके थे इसी कारण न तो उन पर लंका की विलासिता का फर्क पड़ा और न ही लंका के योद्धा उनको पराजित कर सके। जब  रावण के अंत:पुर में हनुमान जी असंख्य नारियों को अर्धनग्न और नग्न अवस्था में देखते हैं तब भी उनके मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता है। उस वक्त वे हर नारी में सीता जी को ढूंढ रहे होते हैं इसलिए विकार पैदा होने का सवाल ही नहीं और जैसे ही उन्हें यह निश्चित प्रतीत होता है कि इनमें से कोई भी सीता नहीं है तो एक ही पल में  वे उस जगह को छोड़कर बाहर आ जाते हैं। हनुमानजी के मन में हमेशा राम सीता रहते हैं  इसलिए अंत:पुर से बाल ब्रह्मचारी हनुमान जी सुरक्षित बाहर आ जाते हैं।यह उनकी अविरल भक्ति का ही प्रभाव है। जब उनका राक्षसों से युद्ध होता है तब उन्हें पूरी तरह युद्ध में डूबने की जरूरत होती है लेकिन फिर भी उनकी भक्ति छूटती नहीं है। वे हर प्रहार करने पर जय श्रीराम  बोलते हैं इसलिए वे युद्ध करते हुए भी भक्ति ही कर रहे होते हैं। यही कारण रहा कि बड़े बड़े राक्षस भी उन्हें प्रभावित कर नहीं पाए। और तो और जब उनकी पूंछ में आग लगाई गई तब भी वे आनंदित ही रहे। उन्हें आग की जलन भी विचलित नहीं कर पाई,क्योंकि उनका मन उस जलन से ज्यादा श्रीराम में लगा हुआ था, वरना आग की जलन तो किसी देवता के लिए भी असहनीय होती है और मार्ग से भटकाने की ताकत भी आग में होती है लेकिन हनुमान जी रामभक्ति में ऐसे डूबे हुए रहते हैं कि सांसारिक सुख और दुख उनको प्रभावित नहीं कर पाते। कलियुग में जीने का यही एकमात्र सहारा है। बाबा तुलसी ने भी लिखा है *कलियुग केवल नाम आधारा सुमरि सुमरि नर उतरही पारा* । हनुमान जी ने कलियुग से पहले ही सुमिरन भक्ति करके दिखा दी थी जबकि उस युग में तो यज्ञ और तप ही ईश आराधना के माध्यम थे ।  
         हनुमान जी युगों से ऊपर हैं इसलिए  तुलसी दास जी भी कहते हैं *”चारों जुग प्रताप तुम्हारा”* उनके व्यक्तित्व में कर्म भी है, तप भी है, भक्ति भी है और सुमिरन भी है। चारों युगों के तोड़ उनके पास हैं इसलिए वे हर युग में अजेय हैं। वर्तमान से सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि हम कर्म में ऐसे रम जाते हैं कि राम को भूल जाते हैं और किसी गुरु के समझाने से हम राम की भक्ति करना भी चाहें तो कर्म को छोड़ने लगते हैं, सन्यास की तरफ जाने लगते हैं। मृत्युलोक में सन्यास और संसार दोनों को महत्वपूर्ण माना गया है लेकिन इसको साधा कैसे जाए यह प्रश्न सदैव रहा है। तो उसका सबसे बेहतर तरीका है हनुमान जी का अनुसरण करना। हनुमानजी ने सदा ही कठोर कर्म और एकनिष्ठ भक्ति की है। हनुमान जी बहुत चतुर और ज्ञानी भी हैं उनका ज्ञान रावण की सभा में देखने को मिलता है, तो चतुराई तब देखने को मिलती है जब वे सीता जी के सामने स्वयं को श्रीराम का दूत साबित करने में सफल हो जाते हैं। वे सीता जी से संस्कृत में बात करने के बजाए अवधी भाषा में बात करते हैं क्योंकि संस्कृत तो रावण भी बोलता था इसलिए सीता जी कहीं हनुमान जी को रावण न समझ लें जो वानर रूप धरकर आया हो। इतनी चतुराई, बुद्धिमानी, शक्ति और भक्ति किसी और वानर में नहीं थी इसीलिए जामवंत जी ने हनुमान जी को ही लंका भेजने का प्रस्ताव रखा था। जामवंत जी लंका की स्थिति से परिचित थे वे जानते थे कि वहां सिर्फ शक्ति से काम नहीं चलेगा बल्कि उतनी ही बुद्धि और उतने ही भाग्य की जरूरत होगी वरना रावण के चंगुल से देवता भी वापस नहीं आ सके थे। कई देवताओं को रावण बंदी बनाकर रख चुका था लेकिन हनुमान जी का बाल भी बांका नहीं कर सका था। यह हनुमानजी की पूर्णता का ही प्रभाव था। वे पूर्ण योद्धा थे ,पूर्ण ज्ञानी थे और पूर्ण भक्त थे। एक ही समय में सम्पूर्ण जीवन जीना और सबके लिए उदाहरण प्रस्तुत करना यह चमत्कार सिर्फ हनुमान जी ही कर सकते हैं,इसीलिए भगवान श्रीराम भी हनुमान जी के बिना अधूरे हैं। कलियुग में हनुमान जी पूज्य और कारक देव हैं,सदैव हनुमान जी आराधना करें यही कलियुग का सबसे अच्छा तोड़ है। जय बजरंगबली

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