
इन दिनों विश्व भर के बाजारों पर अमेरिका की नई टैरिफ नीति का भारी प्रभाव दिखाई दे रहा है. आशंकाओं एवं भय का माहौल गर्म है। हालांकि अभी इस टैरिफ नीति के अंतिम परिणाम के बारे में केवल कयास लगाए जा रहे हैं और ठोस आधार पर अधिक नहीं कहा जा सकता है, फिर भी व्यापार विशेषज्ञ, बाजार के धुरंधर, मीडिया विश्लेषक और नेता एवं ब्यूरोक्रेट्स इस नीति का विश्लेषण करने में लगे हैं ।
इस टैरिफ नीति के पूरी तरह लागू होने से पहले ही शेयर बाजार पर इसका जो असर दिखाई दे रहा है वह गहरी चिंता पैदा कर रहा है। यहां एक बात सोचने वाली है कि क्या अमेरिका ने इस नीति के दूरगामी परिणाम का विश्लेषण किए बगैर ही इसे लागू कर दिया या वहां के विशेषज्ञों ने सोच समझकर इस नीति को लागू करने का फैसला किया है भले ही भारत सहित दुनिया के दूसरे देशों को लगे कि यह टैरिफ नीति उनके लिए हानिकारक है और विश्व बाजार पर हानिकारक प्रभाव पड़ेगा एवं वैश्विक युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो सकती है अथवा 1904 – 1905 जैसी मंदी का दौर लौट सकता है ।
जैसे सभी देशों को अपने बाजार एवं व्यापार की रक्षा का अधिकार है, वैसा ही अधिकार अमेरिका को भी है और निश्चित रूप से अमेरिका ने अपने घरेलू व्यापार एवं उत्पादों को संरक्षण देने के लिए इस नीति को अपनाने का फैसला किया है। वैसे अमेरिका समय-समय पर आयातित वस्तुओं पर कस्टम ड्यूटी बढ़ाता या घटाता रहा है और इसके पीछे उसकी सोच के मुख्य बिंदु घरेलू उद्योगों की रक्षा , व्यापार घाटा कम करना, रणनीतिक व्यापारिक संतुलन कायम रखना व प्रतिद्वंद्वी देशों पर दबाव बनाना रहे हैं ।
इस टैरिफ नीति के माध्यम से अमेरिका ने कई देशों से आने वाले उत्पादों पर टैरिफ बढ़ा कर संरक्षणवाद की नीति अपनाई है। यहां ध्यान देना चाहिए कि यह वही अमेरिका है जो दुनिया भर में काफी पहले से खुले व्यापार और खुले बाजार की वकालत करता रहा है मगर जब उसे खुद के बाजार पर जरा सा संकट नजर आया तो उसने तुरंत पैंतरा बदल लिया है ।
आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि वैश्विक व्यापार में टैरिफ बढ़ने से सप्लाई श्रंखला बाधित होगी, उत्पादों की लागत बढ़ेगी, वैश्विक व्यापार धीमा होगा । ऐसी स्थिति रोकने की जिम्मेदारी विश्व व्यापार संगठन पर है मगर जब अमेरिका जैसे देश एकतरफा टैरिफ लगाते हैं तो डब्ल्यू टी ओ की चुप्पी उसकी प्रासंगिकता एवं निष्पक्षता पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाती है।
यदि अमेरिकी टैरिफ नीति के प्रति उत्तर में भारत, जापान, चीन, यूरोपीय संघ के देश भी जवाबी टैरिफ लगाते हैं तो ‘व्यापार युद्ध’ की स्थिति बनने के पूरे आसार हैं. इससे न केवल विश्व में तनाव बढ़ेगा अपितु सिर पर विश्व युद्ध का खतरा भी मंडराता नजर आएगा । याद रखना चाहिए कि विश्व युद्ध केवल राजनीतिक कारणों से नहीं होते अपितु उनके पीछे आर्थिक एवं सामाजिक तथा प्रजातीय कारण भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं
इस नीति का भारत पर भी प्रभाव अवश्यंभावी है और काफी लंबे अरसे के बाद अच्छे हुए भारत अमेरिका संबंधों पर भी इसकी काली छाया पड़ सकती है। अमेरिका ने भारत से आयात होने वाले कुछ उत्पादों पर टैरिफ बढ़ाया है जिससे भारत के निर्यातकों पर असर पड़ेगा और अमेरिकी बाजारों में भारतीय उत्पाद काफी महंगे हो जाएंगे जिससे उनकी मांग पर नकारात्मक असर पड़ेगा और इससे भारत की निर्यात आय पर भी असर पढ़ना तय है।
लेकिन हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. अमेरिका की इस नीति से भारत को दूरगामी लाभ भी हो सकता है क्योंकि अगर अमेरिका चीन से दूरी बनाता है, तो भारत को अमेरिका में उसके विकल्प के रूप में व्यापार का अवसर मिल सकता है। बौद्धिक संपदा और तकनीकी उत्पादों और डिजिटल व्यापार जैसे क्षेत्रों में सख्ती करता है, जो भारत की आईटी और फार्मा कंपनियों को प्रभावित कर सकता है।
हाथ पैर हाथ रखकर बैठे रहने से कुछ नहीं होने वाला है. इसके लिए भारत को भी रणनीति सोच समझकर तैयार करनी होगी केवल संबंधों या दोनों देशों के प्रमुखों के बीच की मित्रता से बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला है। अब भारत को केवल अमेरिका पर निर्भर न रहकर अन्य देशों से निर्यात बढ़ाना चाहिए और यूरोप, यूके, और आसियान देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौतों को तेज़ी से लागू करन घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए “मेक इन इंडिया”, उत्पाद आधारित प्रोत्साहन ( PLI) जैसे कार्यक्रमों से घरेलू विनिर्माण मज़बूत करना चाहिए ताकि वह वैश्विक वैल्यू चेन में बेहतर भूमिका निभा सके।
अमेरिकी उत्पादों के ऊपर प्रतिस्पर्धात्मक टैरिफ लगाकर भी हम उस पर दबाव बना सकते हैं लेकिन इससे भारत अमेरिका के संबंधों में तनाव होने की आशंका भी रहेगी. इसके लिए बेहतर हो कि अमेरिका के साथ सतत संवाद और समझौतों के माध्यम से अपने हितों की रक्षा करें ।
आज एवं भविष्य के दृष्टिगत उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादों और सेवाओं के माध्यम से प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए कौशल और नवाचार पर निवेश ज़रूरी है।
यदि भारत भी अमेरिकी उत्पादन पर प्रतिस्पर्धात्मक टैरिफ लागू करता है तो इसके क्या प्रभाव पड़ सकते हैं इस पर भी चिंतन की जरूरत है।
अमेरिका भारत के लिए एक बड़ा न
आईटी सेवाओं, फार्मास्यूटिकल्स, वस्त्र आदि का एक बड़ा बाजार है. जवाबी टैरिफ से अमेरिका को होने वाले निर्यात में कमी आ सकती है जिससे निर्यातकों को नुकसान होगा, उत्पाद महंगे हो जाएंगे और उपभोक्ता के पास विकल्प सीमित होंगे और अमेरिकी कंपनियाँ भी भारत में निवेश करने से हिचकेंगी। ऐसी स्थिति में विदेशी निवेश का घाटा भारत को झेलना होगा मगर यदि अमेरिकी कंपनियां या भारतीय बाजार से हटती हैं तो फिर दूसरे देश भी यहां आने का विकल्प ले सकते हैं. इस घाटे को व्यवहारिक रणनीति के द्वारा काफी कुछ पूरा किया जा सकता है।
यदि अमेरिकी वस्तुएं भारत में महंगी होंगी तो करेंगे तो निर्यात पर फर्क पड़ेगा. ऐसे में भारत को भारत को वैकल्पिक निर्यात बाज़ार खोजने की ज़रूरत पड़ेगी और यूरोप, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, वह आसियान देशों का बाजार टटोलना होगा । अमेरिकी वस्तुओं पर टैरिफ लगाने से एक लाभ तो होगा कि प्रतिस्पर्धात्मक तौर से भारत के घरेलू उत्पाद तुलनात्मक रूप से सस्ते हो जाएंगे, जिससे स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा और इलेक्ट्रॉनिक्स, कृषि, खिलौने आदि क्षेत्र का बाजार अधिक तेजी से उभर कर आएगा। लेकिन टैरिफ के कारण आयातित उत्पाद महंगे होंगे, जिससे उपभोक्ताओं के पास सीमित विकल्प रह जाएंगे । इसका असर देश के अंदर मुद्रा स्फीति पर भी पड़ेगा क्योंकि यदि बड़ी संख्या में आयातित वस्तुओं पर शुल्क बढ़ता है तो महँगाई बढ़ेगी और इसका राजनीतिक नुकसान भी वर्तमान सरकार को उठाना पड़ेगा । इस बात की भी आशंका बनी रहेगी कि महंगाई से त्रस्त जनता विपक्ष की ओर न मुड़ जाए । ऐसे में सरकार सभी उत्पादों पर टैरिफ न लगाकर केवल उन पर फोकस करे जिनके घरेलू विकल्प मौजूद हों और डिप्लोमैटिक लचीलापन अपनाते हुए व्यापार रणनीतिक करे ।
स्थानीय बाजार को संरक्षण देने के लिए उद्योगों को सब्सिडी और समर्थन व घरेलू निर्माण और निर्यात को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए सरकारी सहायता देना भी एक अल्पकालीन विकल्प है और बेहतर हो कि लंबी रणनीति के तहत भारत को वैश्विक उत्पादन नेटवर्क में खुद को स्थापित करना होगा और यह तभी संभव होगा जब हम आंतरिक स्तर पर अपनी कर प्रणाली तथा प्रशासनिक सिस्टम को त्वरित एवं परेशान न करने वाला बनाने में सफल हों ।