जगतजननी मां जगदम्बा की जिन रूपों स्वरूपों में आराधना, उपासना और पूजन होती है, उनमें एक स्वरूप सरस्वती का भी है। भारतीय धर्मग्रंथों में मां सरस्वती को बुद्धि, ज्ञान, स्वर और कला की देवी कहा गया है इसीलिए अनेक साहित्यकार एवं संगीतकार सरस्वती के उपासक रहे हैं। सरस्वती की इतनी महिमा होने के बाद भी उनके बहुत कम मंदिर इस देश में है।
सरस्वती के धर्मग्रंथों में अनेक नाम मिलते हैं। उनके प्रचलित नामों में उल्लेखनीय है- वीणावादिनी, पुस्तकधारिणी, हंसवाहिनी, विद्यादात्री, भारती, शारदा, जगतिख्याता एवं वाणीश्वरी। सरस्वती के प्रचलित नामों में शारदा भी एक है। इन्हीं मां शारदा का मध्यप्रदेश के सतना जिले के मैहर नामक स्थान पर एक मंदिर है। जन आस्था, श्रद्धा एवं विश्वास के केन्द्र इस मंदिर में मां शारदा के दर्शन और पूजन के लिए प्रतिदिन सैकड़ों श्रद्धालु पहुंचते हैं। नवरात्रि में तो दर्शनार्थियों की संख्या हजारों में पहुंच जाती है।
यह मंदिर जिस मैहर कस्बे के समीप एक पहाड़ी पर स्थित है, उस कस्बे के नामकरण के बारे में मान्यता है कि जब दक्ष प्रजापति के यज्ञ कुण्ड में कूदकर भगवती सती ने देह त्याग दी तो उनके शव के विभिन्न अंग जहां गिरे, वहां-वहां सिद्ध पीठ बन गए। भगवती सती के गले का हार जिस स्थान पर गिरा वह माई का हार नाम से प्रसिद्ध हुआ, कालान्तर में ‘माई का हार’ मैहर में परिवर्तित हो गया।
मैहर की शारदा माता के भक्तों में मध्यकाल के वीर योद्धा आल्हा ऊदल के नाम प्रसिद्ध है। जनश्रुति के अनुसार आल्हा को अमरता का वरदान मिला था तथा वह आज भी प्रतिदिन ब्रह्म महूर्त में मां शारदा की पूजन करने आते हैं। इसी प्रकार महान संगीतकार उस्ताद अलाउद्दीन मां शारदा के उपासक थे। वे वर्षों तक इसी मंदिर में संगीत साधना करते रहे उन्होंने मैहर में अपना निवास ऐसे स्थान पर बनाया था, जहां से वे अपने कमरे की खिड़की से मंदिर को निहार सकें। वे शारदा माता को ‘माई’ नाम से सम्बोधित करते थे। महान साहित्यकार पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला तथा हरिवंश राय बच्चन भी यहां दर्शनार्थ पहुंचते रहे हैं। दशनार्थी राजनीतिज्ञों की सूची काफी लम्बी है। अर्जुन सिंह तो यहां अनेक अवसरों पर पहुंचे हैं। म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह तथा उमा भारती भी यहां दर्शनार्थ पहुंचते रहे हैं।
शारदा माता का मंदिर 600 फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है तथा मंदिर तक पहुंचने के लिए एक हजार से अधिक सीढिय़ां तय करना होती है। वैसे अब एक सड़क मार्ग बन गया है, जिससे कार द्वारा आधी पहाड़ी तक पहुंचा जा सकता है, फिर भी पहाड़ी की आधी ऊंचाई तो सीढिय़ों से ही तय करना होती है। कई लोगों में मां शारदा के प्रति इतनी श्रद्धा है कि वे सैकड़ों मील दूर से पदयात्रा या साइकिल यात्रा द्वारा पहुंचते हैं। समीपवर्ती क्षेत्रों में मां शारदा की ख्याति सरस्वती जी के मंदिर के रूप में कम, दुर्गा मंदिर के रूप में ज्यादा है, संभवत: इसीलिए वहां बलि प्रथा भी प्रचलित थी, जिस पर मैहर के तत्कालीन शासक महाराजा बृजनाथ सिंह जू देव द्वारा रोक लगा दी गई।
मां शारदा की यह प्रतिमा चतुर्भुज स्वरूप है। प्रतिमा वीणा, पुस्तक, कमंडल एवं माला धारण किए हुए हैं। मान्यता है कि इस प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा विक्रमी संवत् 559 में की गई थी। मां शारदा की प्रतिमा के पास ही भगवान नरसिंह की एक प्रतिमा प्रतिष्ठित है। कहा जाता है कि हिरण्यकश्यप के वध के समय भगवान नरसिंह इतने क्रोधित थे कि उन्हें शांत करने के लिए स्वयं भगवती सरस्वती को इसी स्थान पर अवतरित होना पड़ा।
मां शारदा की प्रतिमा के चरणों के नीचे एक शिलालेख भी मिला है, जिसमें संस्कृत में चार पंक्तियां उत्कीर्ण हैं। मंदिर में एक अन्य शिलालेख भी मिला जो 34 इंच लम्बा एवं 31 इंच चौड़ा है। शिलालेखों के आधार पर पुरातत्व वेत्ता जनरल कनिंघम की मान्यता है कि इस प्रतिमा की स्थापना नौवीं या दसवीं सदी में हुई होगी। जबकि कुछ इतिहासकार इस स्थान को छठवीं शताब्दी का मानते हैं। आल्हा ऊदल के आल्ह खंड में भी शारदा माता का जिक्र कई बार आया है। इसके बावजूद इस स्थान पर गिने चुने लोग ही आते थे। इनमें भी अधिकांश आस-पास के क्षेत्रों के निवासी थे।
लगभग दो सौ वर्ष पूर्व इस क्षेत्र की ख्याति फैली। जनश्रुति है कि मैहर में महाराजा दुर्जनसिंह जूदेव के शासन काल में एक चरवाहा मैहर की इस पहाड़ी के आसपास सघन जंगल में गायें चराने जाता था। एक दिन उसने देखा कि उसकी गायों के झुंड में एक सुनहरे रंग की गाय आ गई है, वह गाय दिन भर चरती रही और संध्या के समय गायब हो गई। एक दिन उसने उस सुनहरी गाय का पीछा किया तो उसने देखा कि गाय पहाड़ी की चोटी पर एक गुफा में चली गई और उसके भीतर जाते ही गुफा का द्वार बंद हो गया। वह गुफा के द्वार पर ही बैठ गया। कुछ देर बाद गुंफा का द्वार खुला और एक वृद्धा बाहर आई। चरवाहे ने उस वृद्धा से कहा कि मैं आपकी गाय चराता हूँ। उसका मुझे कुछ मेहनताना दो। उस वृद्धा ने चरवाहे को कुछ जौ के दाने दिए तथा कहा कि इस घनघोर जंगल में तुम नहीं आया करो। इस पर चरवाहे ने कहा मेरा तो काम ही पहाड़ों और जंगलों में गायों को चराना है पर तुम तो यहां अकेली ही रात-दिन रहती हो। इस पर उस वृद्धा ने कहा कि पहाड़ और जंगल ही मेरे घर है। इसके बाद वह वृद्धा अन्र्तध्यान हो गई।
इधर चरवाहा जब घर पहुंचा तो उसने उस पोटली को खोलकर देखा। वह चकित रह गया, क्योंकि जौं के दाने हीरों और रत्नों में परिवर्तित हो गए थे। चरवाहे ने सोचा कि इन रत्नों का मैं क्या करूंगा? इन्हें राजा को सौंप दूंगा तो उनके काम आयेंगे। दूसरे दिन वह चरवाहा महाराजा दुर्जनसिंह के दरबार में उपस्थित हुआ और उन्हें सारी कथा सुनाते हुए हीरे एवं रत्न सौंप दिए। राजा ने उस स्थान को देखने की इच्छा व्यक्त की तथा दूसरे दिन उस स्थान पर चलने की योजना बनाई। उसी रात राजा को एक स्वप्न आया जिसमें मां शारदा ने उक्त स्थान पर अपनी उपस्थिति का विवरण देते हुए कहा कि मैं आदिशक्ति शारदा हूं। मेरी प्रतिमा के लिए मंदिर बनवाओ तथा वहां तक पहुंचने के लिए मार्ग भी बनवाओ। दूसरे दिन राजा उस स्थान पर पहुंचे तथा वहां एक मढिय़ा का निर्माण किया। पहाड़ी पर चढऩे में बाधक बने पेड़ों को कटवा कर मार्ग बनवाया। अब तो इस मढिय़ा के स्थान पर भव्य मंदिर बन गया है। बाद में महाराजा बृजराज सिंह जू देव ने मंदिर की सीढिय़ों एवं मार्ग का जीर्णोद्वार कराया। वर्तमान में शारदा माता के दर्शनों के लिए प्रतिदिन सैकड़ों भक्त पहुंचते हैं, इस आस्था एवं विश्वास के साथ कि वर दायिनी हैं, हर संकट को दूर करती हैं तथा भक्तों की मनोकामनाओं को पूरा करती हैं।