प्राप्ति का ही दूसरा नाम है दान

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दान वस्तुतः प्राप्ति का ही दूसरा नाम है बशर्ते कि देने की कला आती हो। आप जो देते हैं वही आपका है, शेष कुछ भी आपका नहीं। भौतिक जगत में भी यही होता है। दुनिया का नियम है इस हाथ दे, उस हाथ ले। प्रतिध्वनि बार-बार लौट कर आती है। न्यूटन के गति के नियम के अनुसार प्रत्येक क्रिया की विपरीत प्रतिक्रिया होती ही है। जो देता है, लौट कर उसके पास ही आता है।
जो लुटाने की कला जानता है, उसके पास इतना लौटकर आता है कि सँभाले नहीं सँभलता। जो ठगता है, लूटता है, मारता है, वह स्वयं ठगा जाता है, स्वयं लुट जाता है, स्वयं मारा जाता है। जो बाँटोगे, वही मिलेगा। हँसी बाँटोगे, हँसी मिलेगी, प्रसन्नता बाँटोगे, प्रसन्नता पाओगे, ज्ञान का दान करोगे, ज्ञानी बन जाओगे।
अथर्ववेद में भी तो कहा गया है कि सैंकड़ों हाथों से एकत्रित करो और हज़ारों हाथों से बाँटो। जब भी कोई चीज़ पाना चाहते हो तो उसे ही देना, उसे ही बाँटना प्रारंभ कर दो। सुख चाहते हो तो सुख बाँटना, दुख नहीं चाहते तो दुख मत बाँटना, किसी को शारीरिक या मानसिक पीड़ा मत पहँुचाना। जो दूसरों की पीड़ा को दूर कर सके, सुख दे सके, उसे ही सच्चे सुख की प्राप्ति होगी और ज़रूर होगी। जीवन मंे प्रेम का अभाव है तो प्रेम बाँटना शुरू कर दीजिए। जीवन प्रेम रस से सराबोर हो जाएगा।
जब भी हम कोई नई चीज़ सीखना या कंठस्थ करना चाहते हैं तो उसके लिए अभ्यास करना पड़ता है। यदि कोई चीज़ सीखना चाहते हो तो उसे दूसरों को सिखा दो। सिखाने के प्रयास में खुद सीख जाओगे। जो दूसरों को सिखाता है, वही वास्तव में सीखता है और जो दूसरों को शिक्षित करता है वही वास्तव में शिक्षित होता है। जो केवल अपने तक सीमित रहता है, कहाँ सीखता है? क्या सीखता है? क्या पाता है?
यदि कुछ पाना चाहते हो तो देना सीखना ही पड़ेगा। प्रकृति में भी यही नियम लागू होता है। अन्न और फल-फूल पाने के लिए धरती को बीज का दान देना पड़ता है। फिर वही दान सैकड़ों-हज़ारों गुना होकर लौटता है। ज़रूरत है तो बस इस बात की कि सही दान रूपी बीज का चुनाव करना आना चाहिए। देने के फलस्वरूप लेने वाला जो अनुभव करेगा, वही अनुभूति लौटकर आएगी। दूसरे की ज़रूरत को भी देखो, उसकी पसंद-नापसंद को भी देखो और उसकी मनोदशा को भी समझो। कहीं ऐसा न हो कि हमारा देना उसे कष्ट दे रहा हो। हर हाल में दूसरों को सुखी बनाना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।
दूसरों को सुखी बनाने में अपार कष्ट सहना पड़े तो भी सुख ही मिलेगा। ऐसा कष्ट वर्तमान में तथा भविष्य में सुख को आकर्षित करता है। एक रोगी की सेवा करके देखिए अथवा एक कमज़ोर बच्चे को परीक्षा के लिए तैयार कराइये अथवा किसी बेरोज़गार को रोज़गार दिलाने में या पीडि़त को न्याय दिलाने में मदद कीजिए। इसके लिए आपको जो त्याग करना पड़ेगा, कष्ट उठाना पड़ेगा वह आपको सुखी ही करेगा, दुखी नहीं।
किसी को कुछ भी देना जो उसे प्रसन्नता प्रदान करे, दान का ही स्वरूप है और देने के फलस्वरूप जिस रूप में जो भी स्वाभाविक प्राप्ति होती है, वहीं से उपचार की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। 

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