समाप्ति की ओर अग्रसर बसपा

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बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो सुश्री मायावती ने दूसरी बार अपने एक फैसले को दोहरा कर खलबली मचा दी । मामला उत्तराधिकार का है । यह उनका निजी मामला हो सकता है पर होना नहीं चाहिए क्योंकि जब बात 85 प्रतिशत की, की जाती है तब पार्टी कैसे उनकी निजी जागीर हो सकती है । जब चाहें जिसे रख लें और जब चाहें जिसे निकाल दें ? यह कौन-से लोकतंत्र का उदाहरण पेश किया जा रहा है ? सवाल यह भी बनता है आखिर भतीजे अभिषेक ने ऐसा क्या कह दिया जो कांशीराम ने कभी नहीं कहा था ? इसी विचारधारा के कारण ही तो बहुजन समाज पार्टी अस्तित्व में आई थी ।
     
     पिछले एक दशक से बहुत से ऐसे अवसर आए जहां उन्हें बोलना चाहिए था लेकिन वे चुप रहीं ? जो सरकार की आलोचना भी न कर पाए वह कैसा विपक्षी दल ? इस समय जो भी कट्टर बसपाई है निश्चय ही वह स्वयं को  मूर्ख की श्रेणी में समझता होगा । भले ही मुंह से किसी कारणवश कुछ नहीं बोल पाते हो । जितना अपने समर्थकों या भक्तों को मायावती ने निराश किया शायद ही किसी ने किया हो ! कोई भी दल अपने कार्यकर्ताओं के परिश्रम से आगे बढ़ पाता है और कार्यकर्ता में जान फूंकता है वरिष्ठ नेता । जिस दल का नेता ही उत्साहहीन हो वह क्या कार्यकर्ताओं का उत्साह वर्धन करेगा ? 
 
     कुछ लोगों का मानना है बसपा एक विचारधारा का नाम है यदि यह सत्य है तो कहना गलत नहीं होगा कि वह विचारधारा मान्यवर कांशीराम के साथ ही मर गयी है । कौन सी विचारधारा की बात करते हैं ? वो भी कैसी विचारधारा जो समय और परिस्थितियों के अनुरूप बदल जाए ! जिस विचारधारा से प्रभावित होकर लोग जुड़े थे वह मर गयी है इसका प्रमाण है चुनाव दर चुनाव बसपा का गिरता हुआ ग्राफ । यदि उस समय उस विचारधारा को बहुजनों ने पसंद किया और बसपा से जुड़े तो वहीं वर्तमान की विचारधारा को नकारते हुए पीछे भी हटते जा रहे हैं । यह एक कटु सत्य है जिसे पार्टी हाई कमान को शीघ्रातिशीघ्र आत्मसात् कर आगे की रणनीति बनानी चाहिए । कहा जाता है कांशीराम ने बाबा साहेब के मिशन और विचारधारा को आगे बढ़ाने पर काम करके डाॅ. अंबेडकर को उत्तर भारत मे मशहूर कर दिया । लेकिन बात फिर वहीं आकर टिक जाती है बाबा साहेब संविधान के मुख्य शिल्पी थे,उन्हें यह बात कैसे स्वीकार होती कि उनके अनुयाई कानून से डरते-भागते फिरें ! यह बहन जी द्वारा बाबा साहेब के किस सपने को पूरा किया जा रहा है ? यदि कुछ गलत किया है तो सजा भुगतें, नहीं किया है तो डर किस बात ? 
     
     क्या कभी बाबा साहेब ने सोचा होगा कि कभी उन्हीं की फसल काटने वाले किसी भी दल का कोई सुप्रीम बनाम तानाशाह बन कर बैठ जाए ! यह कौन-से लोकतंत्र की पहचान है ? समय की मांग यही है उन्हें अपने सभी पदों से त्यागपत्र दे कर लोकतान्त्रिक ढंग से पार्टी का पुनर्गठन करना चाहिए । तभी अस्तित्व बच पाएगा । क्योंकि जिस दल के अंदर ही लोकतंत्र न हो उसका लोक तंत्र में क्या काम ….?

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