
बिहार की राजनीति में चाणक्य समझे जाने वाले जनता दल यूनाइटेड सुप्रीमो और कद्दावर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कब क्या करेंगे, कब किस ओर पाला बदलेंगे, यह दृढ़तापूर्वक नहीं कहा जा सकता है क्योंकि पहले अपने व्यक्तिगत हितों, फिर अपनी पार्टी की सामूहिक जरूरतों और उसके बाद बिहार के समग्र हितों के अनुरूप ही वह अपना फैसला बदलते रहते हैं।
उनकी स्पष्ट सोच है कि जो आपको हल्के में ले, नेता मानने में आनाकानी करे, उसे अपने भारीपन का एहसास करवा दो। चाहे उनके दगाबाज राजनीतिक मित्र हों या मौकापरस्त गठबंधन सहयोगी, सबको उसके असली जूते की साइज में वो कुशलतापूर्वक फिट करते रहे। यही वजह है कि जहां कांग्रेस और भाजपा जैसे घाघ राष्ट्रीय दलों को उन्होंने अपने इशारे पर नचाया, वहीं उन समाजवादियों और क्षेत्रीय दलों को भी नहीं बख्शा जो उनकी आंखों में खटकते गए।
सच कहूं तो ये सभी कार्य उन्होंने बड़ी ईमानदारी पूर्वक किए और सूबाई सियासत में निज सफलता की ऐसी लकीर खींच दी जिसका फिलवक्त कोई सानी नहीं है।
इसलिए भाजपा को नीतीश कुमार का एहसानमंद रहना चाहिए कि बिहार को जनता दल और राष्ट्रीय जनता दल के डेढ़ दशकों के जंगलराज (1990 से 2005) से मुक्ति दिलाने में, भाजपा की सियासी अछूत वाली छवि से उसको मुक्ति दिलाने में और बिहार को विकास की पटरी पर पुनः ले जाने में जदयू सुप्रीमो का बहुत बड़ा योगदान है और पिछले दो दशकों में यदि नीतीश कुमार ने कुछ रणनीतिक गलतियां कीं हैं तो सिर्फ अपनी हिफाजत के लिए जो उनका निज धर्म है।
हालांकि, नीतीश कुमार को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने उनकी सियासी महत्वाकांक्षाओं को समझते हुए उनके राजनीतिक करियर को चौपट कर दिया था, तब यही भाजपा है जिसने अपने कैडर के बल पर उन्हें न केवल बिहार की सियासत में स्थापित किया बल्कि लालू प्रसाद से भी बड़ा राजनेता बनने में उनकी मदद की। यह अटल-आडवाणी युग का सबसे बड़ा और सफल फैसला है जिसके मुख्य सूत्रधार पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली थे।
ऐसे में मोदी-शाह युग में नीतीश कुमार की व्यथा-कथा समझी जा सकती है। यह ठीक है कि देश की राजनीति में कांग्रेस का विकल्प बन चुकी जनता पार्टी और जनता दल की समाजवादी राजनीति में बिहार और नीतीश कुमार जैसे नेता भी एक मजबूत स्तम्भ रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय मोर्चे और संयुक्त मोर्चे की सरकार के गठन तक नीतीश कुमार की क्या स्थिति (सियासी फजीहत) हो चुकी थी, यह बात भी किसी से छिपी हुई नहीं है।
मसलन,भाजपा को कांग्रेस का विकल्प बनने देने और निज स्वार्थ के लिए समाजवादी सियासत का गला घोंटने का इतिहास जब जब लिखा जाएगा, नीतीश कुमार को भी उसके लिए दोषी ठहराया जाएगा क्योंकि समाजवादी राजनीति जब ओबीसी और दलित राजनीति में बिखर रही थी तथा उसके नेतागण अल्पसंख्यकों को साधकर एक दूसरे को कमजोर कर रहे थे, तब नीतीश कुमार ने इस आत्मघाती समाजवादी राजनीति को थामने के लिए कोई पहल नहीं किए बल्कि भाजपा में ही पिछड़ों को मजबूत करके अपना राजनीतिक स्वार्थ साधने में सफल रहे।
यह ठीक है कि बिहार का सफल मुख्यमंत्री होने के नाते नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगे। निज स्वार्थ के लिए उनके कुछ करीबी भी उनकी हां में हां मिलाने लगे लेकिन भाजपा इस स्थिति को कैसे बर्दाश्त कर सकती थी। 2004 के बाद 2009 में भी जब भाजपा दूसरी बार केंद्रीय सत्ता में लौटने में चूक गई तो आरएसएस में हड़कंप मच गया। भाजपा नेताओं और उनके राजनीतिक मित्रों की कुंडली खंगाली जाने लगी।
हालांकि, तभी डी फोर यानी लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और अनंत कुमार के अलावा उनके सहयोगियों में नीतीश कुमार की भी दुधारी तलवार को कुंद करने की योजना बनी थी। तब मैंने ‘वीर अर्जुन’ हिंदी दैनिक में इस पर खूब लिखा था। इसी गोपनीय ‘आरएसएस ऑपरेशन’ का तकाजा था कि नितिन गडकरी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने जिन्होंने डॉ सीपी ठाकुर को बिहार भाजपा का अध्यक्ष बनाया। उनके रहते जब बिहार विधान सभा 2010 का चुनाव हुए तो भाजपा को बिहार में काफी सफलता मिली। इससे नीतीश कुमार का माथा ठनका और फिर भाजपा को कमजोर रखने के प्लान बी में वो जुट गए।
दरअसल, यह वह सियासी दौर था जब भाजपा नेता अटल-आडवाणी युग को समाप्त करवाने के लिए नीतीश कुमार को वह भाव नहीं दे रहे थे जो अटल बिहारी बाजपेयी दिया करते थे। यही भाजपा नेताओं की बड़ी गलती थी क्योंकि जदयू-भाजपा के समर्थक लालू विरोधी सवर्ण, ओबीसी, दलित और कट्टर हिंदुत्व के पक्षधर थे जिनकी भावनाओं से नीतीश कुमार-सुशील मोदी खेलते रहे, तब तक जब तक कि उनका सियासी जनाधार छीज नहीं गया।
इसलिए नीतीश और बीजेपी के इस अबूझ रिश्ते की पूरी पहेली आपको बताते हैं। नीतीश कब व कैसे नाराज हुए और कब व कैसे साथ आए, इसका पूरा वृतांत आपको बताते हैं। इसके बाद वो कैसे मोदी 3.0 सरकार के किंगमेकर बने, यह भी समझाते हैं। इससे साफ है कि अभी वो भाजपा की कमजोर नस हैं- पहले 2025 के बिहार विधान सभा चुनाव के लिए और फिर उसके बाद 2029 के लोकसभा चुनाव तक के लिए।
नीतीश कुमार का बीजेपी से गठबंधन 1996 में शुरू हुआ जो पहली बार तत्कालीन पीएम इन वेटिंग बनने के चक्कर में जुटे नरेंद्र मोदी की वजह से 2013 में टूट गया। याद दिला दें कि नीतीश कुमार ने गुजरात दंगों की वजह से नरेंद्र मोदी को 2005 और 2010 में बिहार में चुनाव प्रचार में नहीं आने दिया लेकिन जब बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया तब नीतीश कुमार ने नाराज होकर 2013 में बीजेपी से नाता तोड़ लिया।
2014 का लोकसभा चुनाव जब नीतीश कुमार ने अकेले लड़ा तो उन्हें बिहार में महज 2 सीटें मिली। फिर उन्होंने आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया और 2015 का चुनाव भारी बहुमत से जीते हालांकि उसके बाद फिर 2017 में नीतीश वापस एनडीए में लौट आये। ततपश्चात नीतीश कुमार ने 2019 का लोकसभा चुनाव साथ-साथ लड़ा और 40 में से 39 सीटें एनडीए के हिस्से में आईं। तब भाजपा और लोजपा ने अपने खाते की सभी क्रमशः 17 और 6 सीटें जीतीं जबकि जदयू ने 17 में से 16 सीटें जीतीं।
लेकिन जल्दी ही एनडीए में भाजपा, जदयू और लोजपा के बीच केंद्र के मंत्रिमंडल में मंत्रियों की संख्या को लेकर विवाद शुरू हो गया। यह विवाद 2020 के विधानसभा चुनाव के दौरान तब और गहरा गया जब जेडीयू को सिर्फ 43 सीटें आईं। इससे नीतीश कुमार को लगा कि उन्हें कमजोर करने की कोशिश हो रही है। वहीं, रही सही कसर आरसीपी सिंह के केंद्र में मंत्री बनने के बाद पूरी हो गई। आरोप लगा कि बीजेपी आरसीपी सिंह के जरिये जेडीयू को तोड़ना चाहती है।
संभवतया इसी आधार पर बिहार में 2022 में फिर सत्ता परिवर्तन हुआ और फिर महागठबंधन की सरकार बन गई। इस प्रकार नीतीश कुमार फिर राजद नीत महागठबंधन के साथ आ गए। इसके बाद नीतीश कुमार ने बीजेपी के खिलाफ गोलबंदी करनी शुरू कर दी लेकिन कांग्रेस के रवैये से वो खुश नहीं थे क्योंकि बैठकों में हो रही देरी और कांग्रेस के स्पष्ट निर्णय न लेने की आदत से वो पुनः महागठबंधन से खफा हो गए।
समझा जाता है कि 23 जून 2023 को नीतीश कुमार के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन की पहली बैठक भले ही पटना में हुई लेकिन बाद की इसकी बैठकों में उन्हें ही किनारा कर दिया गया जिसके बाद विपक्षी गठबंधन के नाम इंडिया गठबंधन को लेकर नीतीश खफा थे क्योंकि वो भारत गठबंधन बनाना चाहते थे ताकि गरीबों का गठबंधन दिखे लेकिन अमीरों की पार्टी कांग्रेस को इंडिया शब्द प्रिय था ताकि वह विदेशों में उसका फायदा उठा सके। इससे एक बार फिर महागठबंधन से नीतीश कुमार का मोह भंग हुआ और फिर से साल 2024 के जनवरी माह में वो एनडीए में शामिल हो गए। भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने लगे।
इस बार अपना पाला बदलते हुए नीतीश कुमार ने कहा कि अब बहुत हो गया। अब और अधिक पाला नहीं बदलेंगे लेकिन बिहार के अति उत्साही भाजपा नेता जो हड़बड़ी दिखा रहे हैं, उससे लग रहा कि नीतीश का सियासी संकल्प कहीं एक बार फिर न टूट जाए क्योंकि नीतीश कुमार का अगला कदम क्या होगा, इसको लेकर बिहार की राजनीति में मंथन पिछले 11 सालों से चल रहा है। चूंकि अब केंद्र की राजनीति भी नीतीश कुमार के अगले कदम का इंतजार करेगी, इसलिए सियासी वाकया दिलचस्प बना रहेगा।
गोया, लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान भले ही यह कहा जा रहा था कि नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू चुनाव के बाद लगभग खत्म हो जाएगी, लेकिन इस बार के चुनाव परिणाम ने नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को ऐसी मजबूती दी कि वो केंद्रीय स्तर पर भी किंगमेकर बन गए हैं। बहरहाल, केंद्र की राजनीति में भी सबकी निगाहें उन्हीं पर टिकी हुई हैं। फिलवक्त नीतीश कुमार ने एनडीए को अपना समर्थन दिया है लेकिन बिहार भाजपा के नेताओं की ऊटपटांग बयानबाजियों के बीच वो कब तक एनडीए में रहेंगे, इसको लेकर कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है।
तभी तो उनकी पार्टी ने स्लोगन दिया है कि ‘नीतीश सबके हैं!’ इसलिए उनके विरोधियों को भी उनसे आस लगी रहती है क्योंकि नीतीश कुमार को किसी पार्टी से परहेज भी नहीं है। ये महज संयोग नहीं है कि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू विपक्ष को एकजुट करने प्रयास कर चुके हैं। खास बात यह कि चंद्रबाबू नायडू ने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले यह प्रयास किया था जबकि नीतीश कुमार ने 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले कुछ ऐसा ही प्रयास किया था। इससे भाजपा 2019 में तो नहीं लेकिन 2024 में कमजोर जरूर हुई। यदि नीतीश कुमार भाजपा के साथ नहीं होते तो भाजपा की स्थिति और ज्यादा खराब होती।
एक बात और, नीतीश कुमार ने गठबंधन की अदला-बदली जरूर की है लेकिन उसके पीछे राजनीतिक कारण रहे हैं। नीतीश कुमार कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करते हैं। यही कारण है कि वो आज भी राजनीति में इतने प्रासंगिक हैं। रेल मंत्री रहते हुए रेल दुर्घटना पर इस्तीफा देने वाले नीतीश कुमार ने 2014 के लोकसभा चुनाव में 2 सीट आने पर मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था। इसलिए एक मजबूत और ईमानदार छवि के नेता के रूप में नीतीश कुमार की पहचान है।
वहीं, नीतीश कुमार की ये भी खासियत रही है कि वो राजनीति में आने वाली चुनौतियों को पहले ही भांप लेते हैं। इसके अलावा, बीजेपी के कई कोर एजेंडों से भी नीतीश कुमार की सहमति नहीं रही है। जेडीयू को अग्निवीर योजना पर भी आपत्ति है। उसे यूसीसी पर भी आपत्ति है। वो सबकी समीक्षा अपने अनुरूप चाहती है। इसलिए अब इन फैसलों पर बीजेपी को अपने सहयोगियों की राय लेनी पड़ेगी।
इसके अलावा, भाजपा को नीतीश के अतीत को देखते हुए हमेशा यह खतरा बना रहेगा कि वे कब बिदक कर किनारे हो जाएं। वैसे नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार कोई भी फैसला अकेले लेने के आदी रहे हैं, लिहाजा इस तरह के स्वभाव से स्थिति बदल सकती है। हालांकि, देश की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में नीतीश कुमार का एनडीए को छोड़ने का कोई कारण नजर नहीं आ रहा है. जिस प्रकार के चुनाव परिणाम आए हैं, उसमें नीतीश कुमार के लिए एनडीए के साथ रहना फायदेमंद है।
मसलन, बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिल जाए और 2025 का चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाए तो स्थितियां सामान्य रह सकती हैं लेकिन नीतीश कुमार भले ही इससे इनकार करते हों लेकिन कहीं ना कहीं उनके मन में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने की हसरत तो है ही। इसलिए उनका अगला कदम तभी बदलेगा, जब कोई उनको पीएम बनाने की गारंटी दे। मोदी और राहुल के रहते यह सम्भव नहीं है।
बहरहाल चर्चा है कि जब बीजेपी ने नीतीश कुमार को ‘बड़ा भाई’ बनाया तो बड़े भाई नीतीश कुमार ने भी अपना ‘बड़ा दिल’ दिखा दिया और बिहार विधानसभा चुनाव से पहले हुए मंत्रिमंडल विस्तार में सभी 7 मंत्री पद भाजपा को दे दिए और अपना एक भी मंत्री नहीं बनाया। बता दें कि विगत 11 महीने से बिहार कैबिनेट विस्तार टलता आ रहा था लेकिन पीएम मोदी की भागलपुर यात्रा के महज 24 घंटे के अंतराल पर में हुई नीतीश-जेपी नड्डा की बैठक में चमत्कारिक सहमति बन गई, जो बड़ी बात है। समझा जाता है कि बीजेपी नेतृत्व ने अंदरखाने में उन्हें संकेत दे दिया है कि एनडीए के ताउम्र मुख्यमंत्री वो ही रहेंगे, जबतक उन्हें बहुमत मिलता रहेगा।
अब आइए एक नजर डालते हैं जनादेश से मिले सियासी संकेतों पर। वर्ष 2010 में 243 सदस्यीय बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू को 115 सीटें और भाजपा को 91 सीटें प्राप्त हुईं जबकि इससे पहले 2005 के बिहार विधान सभा मध्यावधि चुनाव में जदयू को महज 88 सीटें और भाजपा को मात्र 55 सीटें मिलीं थीं हालांकि तब बिहार में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष डॉ सीपी ठाकुर और जदयू के प्रदेश अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी ने न केवल अपनी जाति भूमिहार ब्राह्मण बल्कि अन्य सवर्णों का वोट थोक भाव में भाजपा-जदयू गठबंधन को दिलवाया, बल्कि ऐसी सोशल इंजीनियरिंग की कि ओबीसी-एमबीसी-दलितों व अल्पसंख्यक वर्गों के भी वोट एनडीए को मिले।
हालांकि, इससे अतिशय सावधान हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और तत्कालीन उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने अपने-अपने निजी व दूरगामी राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए और ओबीसी लॉबी को अपेक्षाकृत और मजबूत करने हेतु अपनी-अपनी सियासी चालें चलनी शुरू कर दी जो सवर्णों को नागवार गुजरी। नीतीश कुमार यही चाहते भी थे। यही वजह है कि 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में एनडीए टूट गया। सूबाई राजनीति में भाजपा पुनः अलग-थलग पड़ गई और जदयू ने महागठबंधन बनाकर राजद-कांग्रेस से हाथ मिला लिया। इसी वर्ष हुए चुनाव में राजद 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। वहीं, जदयू को 71 सीटें और कांग्रेस को 27 सीटें मिली थीं जबकि भाजपा को मात्र 53 सीटें मिली थीं।
हालांकि, जब राजद और कांग्रेस ने जदयू को दबाव में लेना शुरू कर दिया तो स्वभाव से शातिर नीतीश कुमार ने महागठबंधन को दगा दे दिया और उनकी जदयू पुनः एनडीए के साथ हो गई। फिर भी 2020 में हुए बिहार विधान चुनाव में राजद को सर्वाधिक 75 सीटें मिलीं और कांग्रेस को मात्र 19 सीटें मिलीं जबकि भाजपा को 74, जदयू को मात्र 43 और अन्य राजनीतिक दलों को 31 सीटें मिलीं। इस बार फिर से भाजपा ने उदारता का परिचय दिया और नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनने दिया।
लेकिन भाजपा के दबाव को नीतीश झेल नहीं पाए और फिर से महागठबंधन में शामिल होकर मुख्यमंत्री बने रहे जबकि भाजपा सरकार से बाहर हो गई। इस बार फिर उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी इंडिया गठबंधन खड़ा कर दिया। वहीं इसके संयोजक को लेकर जब पुनः कांग्रेस और राजद ने उनको हल्के में लिया तो फिर 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एनडीए में आ गए। इससे बिहार भाजपा को पुनः सत्ता सुख मिला।
वहीं, 2024 के लोकसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत से 32 सीटें पीछे रह गई भाजपा के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू संकटमोचक बने। इससे भारतीय राजनीति में पुनः जदयू और नीतीश कुमार का महत्व बढ़ गया।
आपको याद दिला दें कि फरवरी 2005 में हुए बिहार विधान सभा चुनाव में राजद ने 75 सीटें, जदयू ने 55 सीटें और 37 सीटें जीतीं थीं जबकि कभी बिहार में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस महज 10 सीटें ही जीत पाई थी।
इससे दो साल पहले यानी 2003 में जनता दल के शरद यादव गुट की लोक शक्ति पार्टी और जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार की समता पार्टी ने मिलकर जनता दल (यूनाइटेड) का गठन किया था।
थोड़ा और अतीत में जाएं तो साल 2000 में जब एकीकृत बिहार में चुनाव हुआ था तो उससे पहले बिहार में काफ़ी उथल-पुथल हुई थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव ने राबड़ी देवी को अपनी जगह बिहार का मुख्यमंत्री बनाया था और 1997 में लगभग तीन हफ़्तों का राष्ट्रपति शासन भी लगा था। इसके बाद मार्च 2000 में विधानसभा चुनाव हुए। ये वो समय जब बिहार से अलग करके झारखंड राज्य नहीं बनाया गया था। इसी साल यानी 2000 के नवंबर में झारखंड का गठन हुआ था। तब बिहार में 324 सीटें हुआ करती थीं और जीतने के लिए 162 सीटों की ज़रूरत होती थी। इन चुनावों में राजद को 124 सीटें मिली थीं। वहीं, भाजपा को 67 सीटें और नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली समता पार्टी को मात्र 34 सीटें मिली थी जबकि कांग्रेस को मात्र 23 सीटें हासिल हुई थीं। तब 2000 के चुनाव में राबड़ी देवी पुनः मुख्यमंत्री बनी थीं।
अब बात करते हैं 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव की क्योंकि ये वो चुनाव था जब ना तो बिहार में आरजेडी थी और ना ही जेडीयू हालांकि, 1994 में ही नीतीश कुमार अपनी समता पार्टी बनाकर लालू यादव से अलग हो गए थे।
तब लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल को 167 सीटें मिलीं थीं जबकि भाजपा को सिर्फ़ 41 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस को मात्र 29 सीटें ही मिलीं। तब झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) भी बिहार से ही चुनाव लड़ता था जिसे 10 सीटें ही मिली थी। तब नवगठित समता पार्टी को मात्र सात सीटें मिली थीं। इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के साथ लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने लेकिन साल 1997 में चारा घोटाले में फंसने के कारण लालू यादव को बिहार के मुख्यमंत्री के पद से हटना पड़ा और उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया हालांकि उनके इस फैसले की काफ़ी आलोचना हुई और पार्टी में फूट भी पड़ गई। 1997 में ही राष्ट्रीय जनता दल का भी गठन हुआ।
अब बात करते हैं 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव की क्योंकि इसी चुनाव से पहले 1988 में कई दलों के विलय से जनता दल बना और उसने पहली बार बिहार विधान सभा का चुनाव लड़ा था। तब जनता दल ने 122 सीटें जीती थी और सबसे बड़ी पार्टी बनकर खड़ी हुई हालांकि, तब बहुमत का आँकड़ा 162 सीटें था। वहीं कांग्रेस को महज 71 सीटें और भाजपा को 39 सीटें ही मिलीं थीं। उस समय कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया को 23 सीटें और जेएमएम को 19 सीटें मिलीं थी। तब बिहार के चतुर सियासी खिलाड़ी लालू यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी थी। इस चुनावों के बाद ही बिहार में एक ही कार्यकाल में कई मुख्यमंत्री बनने का दौर ख़त्म हुआ क्योंकि ऐसा करना ही कांग्रेस को भारी पड़ा था और 1989 के भागलपुर सांप्रदायिक दंगे में उसकी सरकार की विफलता से पूरे देश के अल्पसंख्यक उसका साथ छोड़कर नवगठित जनता दल के साथ हो गए ।
अब बात करते हैं 1985 के बिहार विधानसभा चुनाव की, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की अगुवाई में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और उसे 196 सीटें मिली थीं जो बहुमत से कहीं ज़्यादा थीं। इस चुनावों में लोक दल को 46 और भाजपा को मात्र 16 सीटें मिली थीं। उस समय जनता पार्टी भी चुनावी मैदान में थी जो बाद में जनता दल में शामिल हो गई। तब जनता पार्टी को मात्र 13 सीटें मिली थीं हालांकि, इस चुनाव के बाद बिहार में एक ही कार्यकाल में चार मुख्यमंत्री बने थे। 1985 से 1988 तक बिंदेश्वरी दुबे बिहार के मुख्यमंत्री रहे। उनके बाद लगभग एक साल भागवत झा आज़ाद, फिर कुछ महीनों के लिए सत्येंद्र नारायण सिन्हा और जगन्नाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री बने थे।
इन आंकड़ों से साफ है कि बिहार के बारे में पहले कांग्रेस की अदूरदर्शिता और फिर भाजपा की अदूरदर्शिता ने क्रमशः लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को पहले अपनी कीमत पर मजबूत होने दिया और फिर शक्ति संतुलन की राजनीति को शह दिया लेकिन नीतीश कुमार इतने चतुर निकले कि भाजपा, कांग्रेस और राजद सबको मूर्ख बनाते रहे और अपना राजनीतिक हित साधते रहे।
हालांकि चुनाव परिणाम इस बात की चुगली कर रहे हैं कि 2015 में महागठबंधन को मिले जनादेश से धोखाधड़ी करने और फिर 2020 में एनडीए को मिले जनादेश को पुनः छलने से और फिर साथ आने से भाजपा, राजद, कांग्रेस सबके लिए वो अविश्वसनीय राजनीतिज्ञ बन चुके हैं। इसलिए 2025 के बिहार विधान सभा चुनाव से पहले सभी उनको सियासी मात देने वाली चालें चल रहे हैं। वहीं नीतीश कुमार भी सियासी रायता बिखेरने वाले फैसले कर चुके हैं ताकि उनके बिना किसी की सरकार नहीं बन पाए।
अब जनादेश क्या आएगा, यह तो वक्त बताएगा लेकिन इस बार यदि बिहार के दो धुर विरोधी लड़कों यानी पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और मौजूदा उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी की सियासी चक्की में नीतीश कुमार का सियासी करियर पिस जाए तो किसी को हैरत नहीं होगी हालांकि, इससे निबटने के लिए ही नीतीश कुमार अपने पुत्र निशांत कुमार की सियासी लॉन्चिंग का संकेत दे चुके हैं ताकि उनकी उम्र का बोझ मतदाताओं को हल्का महसूस हो।
आपको याद दिला दें कि जब विपक्षी गठबंधन की नींव रखने वाले नीतीश कुमार को तवज्जो नहीं दी गई तो उन्होंने उन सबसे तौबा कर लिया। वहीं, आज पुनः हालात ये पैदा कर चुके हैं कि वो नेता भी, जिन्होंने कभी नीतीश कुमार को विपक्षी गठबंधन का चेहरा नहीं बनने दिया था, आज नीतीश कुमार से आस लगाए बैठे हैं। ऐसा करिश्मा सब नेता नहीं दिखा सकते। एक बिहारी सब पर भारी वाली कहावत को राजनीति में वो चरितार्थ कर रहे हैं। नेहरू-गांधी परिवार, संघ परिवार और क्षेत्रीय समाजवादी राजनीतिक परिवारों को जिस तरह से राजनीतिक बुझौव्वल वह बुझा रहे हैं, सबको चकरघिन्नी आ जाती है, उनका अगला कदम उठते ही। शायद यही राजनीति है जो जनमानस में वेश्यावृत्ति से भी घृणित जगह बनाती जा रही है।
वहीं, अब तक जो लोग आशंकित थे कि नरेंद्र मोदी को सिर्फ पूर्ण बहुमत की सरकार चलाने का तजुर्बा है, तो उन्हें अब यह एहसास हो गया कि नरेंद्र मोदी अल्प बहुमत वाली सरकार भी चला सकते हैं। साथ ही, आम आदमी पार्टी का शिकार करने के बाद जदयू का शिकार कैसे करवाते हैं, इसके लिए आपको इंतजार करना होगा। यह बात अलग है कि नीतीश को एकनाथ शिंदे बनाने के लिए उन्हें अभी कई पापड़ बेलने होंगे। फिर उनकी हसरत पूरी होगी, मुझे संदेह है क्योंकि नीतीश जी के अंतड़ी में दांत हैं जो भाजपा को बखूबी कुतरने का माद्दा रखते हैं । अतीत यही चुगली कर रहा है, इसलिए भविष्य के करिश्मे का इंतजार कीजिए क्योंकि मोदी है तो सबकुछ मुमकिन है. अब तो दिल्ली भी यही चुगाली कर रही है जहां 33 प्रतिशत बिहारी रहते हैं !