एक रूप महास्वरूप व कल्याणकारी हैं शिव

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देवाधिदेव महादेव शिव एवं शक्ति का मिलन पर्व महाशिवरात्रि अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरीकों व मान्यताओं के साथ मनाया जाता है।

   मान्यताओं के अनुसार गृहस्थों के लिए महाशिवरात्रि शिव के विवाह का दिन है तो तपस्वियों और साधकों के लिए शिव के शांत होने का दिन । हर कोई आज के दिन शिव को प्रसन्न करने का प्रयास करता है कोई व्रत रखकर तो कोई महामृत्युंजय का जाप करके। सबका एक ही प्रयास होता है कि समझें आखिर शिव क्या हैं और उन्हें कैसे प्राप्त किया जा सकता है ?

क्या है ‘शिव’ ? :

‘शिव’ शब्द का अर्थ  है कल्याणकारी । एक अन्य अर्थ है रिक्तता। सृष्टि का असल सार तत्व रिक्तता ही है। इसी  के गर्भ से सृष्टि का जन्म होता है। इस ब्रम्हांड के 99 फीसदी हिस्से में यही रिक्तता छाई हुई है, जिसे हम शिव के नाम से जानते हैं।

कैसे मिला शिव को नाम?

 शैव मानते हैं कि  भगवान शिव का जन्म नहीं हुआ, वे स्वयंभू हैं बाद में यही स्वयंभू तद्भव रूप में ‘शंभू’ कहा जाने लगा । लेकिन पुराणों में शिव की उत्पत्ति का विवरण भी  मिलता है। विष्णु पुराण के अनुसार  शिव भगवान विष्णु के माथे के तेज से उत्पन्न हुए । विष्णु पुराण के अनुसार माथे के तेज से उत्पन्न होने के कारण  शिव हमेशा योगमुद्रा में रहते हैं। श्रीमद् भागवत के अनुसार एक बार जब भगवान विष्णु और ब्रह्मा अहंकार से अभिभूत हो स्वयं को श्रेष्ठ बताते हुए लड़ रहे थे तब एक जलते हुए खंभे से भगवान शिव प्रकट हुए।

शिव के आठ नाम

     विष्णु पुराण में वर्णित शिव के जन्म की कहानी में भगवान शिव का बाल रूप वर्णन है। इसके अनुसार ब्रह्मा को एक बच्चे की जरूरत थी। उन्होंने इसके लिए तपस्या की। तब अचानक उनकी गोद में रोते हुए बालक शिव रूप में प्रकट हुए। ब्रह्मा ने बच्चे से रोने का कारण पूछा तो उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि उसका कोई नाम नहीं है इसलिए वह रो रहा है। तब ब्रह्मा ने शिव का नाम ‘रूद्र’ रखा जिसका अर्थ होता है ‘रोने वाला’। शिव तब भी चुप नहीं हुए। इसलिए ब्रह्मा ने उन्हें दूसरा नाम दिया पर शिव को नाम पसंद नहीं आया और वे फिर भी चुप नहीं हुए। इस तरह शिव को चुप कराने के लिए ब्रह्मा ने 8 नाम दिए। इसीलिए शिव आठ नामों रुद्र, शर्व, भाव, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव से जाने जाते हैं।

  शिव’ का अर्थ ? :

शिव में ‘शि’ ध्वनि का अर्थ मूल रूप से शक्ति या ऊर्जा होता है। भारतीय जीवन शैली में, हमने हमेशा से स्त्री गुण को शक्ति के रूप में देखा है। मजेदार बात यह है कि अंग्रेजी में भी स्त्री के लिए ‘शी’ शब्द का  इस्तेमाल होता है। लेकिन यदि  सिर्फ ‘शि’ का बहुत अधिक जाप करेंगे, तो वह आपको असंतुलित कर देगा। इसलिए इस मंत्र को मंद करने और संतुलन बनाए रखने के लिए उसमें व’ जोड़ा गया। ‘व’ “वाम” से लिया गया है, जिसका अर्थ है प्रवीणता। ‘शि-व’ मंत्र में एक अंश उसे ऊर्जा देता है।

  त्रयंबक शिव

    शिव का वर्णन त्र्यंबक के रूप में भी किया जाता  है. उनकी तीन आँखें हैं। तीसरी आँख से आत्मदर्शन होता है कुछ लोग इस तीसरी आंख को सृष्टि के विनाश का कारण भी मानते हैं। मान्यता है कि दो आँखें सत्य को नहीं देख पातीं हैं, इसलिए तीसरी आँख  इन्द्रियों से परे जीवन के असली स्वरूप को देखती है।

शिव  शक्ति मिलन:

शिव के जीवन में शक्ति के आने का रोचक वर्णन है । शिव सो रहे हैं और शक्ति उन्हें जगाने आई हैं क्योंकि वह उनके साथ नृत्य करना चाहती हैं,  उन्हें रिझाना चाहती हैं। शुरू में वह नहीं जागते, लेकिन थोड़ी देर में उठ जाते हैं। मान लीजिए कि कोई गहरी नींद में है और आप उसे उठाते हैं तो उसे थोड़ा गुस्सा तो आएगा ही, बेशक उठाने वाला कितना ही सुंदर क्यों न हो। अत: शिव भी गुस्से में गरजे और तेजी से उठकर खड़े हो गए। उनके ऐसा करने के कारण ही उनका पहला नाम रुद्र पड़ गया। रुद्र का अर्थ है – दहाडऩे वाला, गरजने वाला।

 त्रिशूल और प्राणमय कोष :

   शिव का त्रिशूल जीवन के तीन मूल पहलुओं को दर्शाता है। योग परंपरा में उसे रुद्र, हर और सदाशिव कहा जाता है। ये जीवन के तीन मूल आयाम हैं, जिन्हें कई रूपों में दर्शाया गया है। उन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना भी कहा जा सकता है। ये तीनों प्राणमय कोष यानि मानव तंत्र के ऊर्जा शरीर में मौजूद तीन मूलभूत नाड़ियां हैं – बाईं, दाहिनी और मध्य। नाड़ियां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है। तीन मूलभूत नाड़ियों से 72,000 नाड़ियां निकलती हैं। इन नाड़ियों का कोई भौतिक रूप नहीं होता।

शिव और चंद्रमा :

 भगवान शिव के शिखर पर चंद्रमा, गले में सर्प और शरीर पर भस्म है ।  चंद्रमा को सोम कहा गया है। अगर आप किसी चांदनी रात में किसी ऐसी जगह गए हों जहां  चंद्रमा की रोशनी की ओर ध्यान से देखा हो, तो धीरे-धीरे सुरूर चढ़ने लगता है।  अपने इसी गुण के कारण चंद्रमा को सोमरस का स्रोत माना गया है। शिव चंद्रमा को एक आभूषण की तरह पहनते हैं ।

प्रतीक हैं सर्प व  भस्म

योग संस्कृति में, सर्प कुंडलिनी का प्रतीक है। यह भीतर की वह उर्जा है जो फिलहाल इस्तेमाल नहीं हो रही है। कुंडलिनी का स्वभाव ऐसा होता है कि जब वह स्थिर होती है, तो पता भी नहीं चलता कि उसका कोई अस्तित्व है। केवल जब उसमें हलचल होती है, तभी आभास होता है कि उसमें  इतनी शक्ति है। भभूत इस बात का प्रतीक है कि शिव पर वाह्य जगत का प्रभाव नहीं पड़ता अपितु भभूत उनके अंदर की शक्ति को संचयित करती रहती है तथा जिसे शक्ति की आवश्यकता उसमें संचारित करती है।

अब शिव को किसी भी रूप में मानें या पूजें लेकिन शिव का मुख्य भाव है ‘कल्याण’ और वह सत्य एवं सुंदर के बीच निवास करता है,त्रिलोक के कल्याण की कामना करता है और इसके लिए यदि उसे तीसरा नेत्र भी खोलना पड़े तो भी हिचकता नहीं है। पर यह जरूर जान लें कि शिव तीसरा नेत्र विनाश के लिए नहीं अपितु नवसृजन के लिए खोलते हैं और वह ऐसा केवल तभी करते हैं जब जो वर्तमान में अस्तित्व में है वह नितांत अप्रयुक्त या विनाशकारी हो जाए और उसे नष्ट किए बगैर नए का सृजन संभव न हो

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