दायित्वों की समझ, नारी की सफलता

आधुनिक नारी ने घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर स्वतंत्रा पक्षी की भांति उन्मुक्त विचरण करना प्रारंभ कर दिया है और परिणामतः उसने उच्च शिक्षा प्राप्त कर कला, साहित्य, संगीत, विज्ञान, राजनीति, खेल सभी क्षेत्रों में प्रगति हासिल की है। आज की नारी ने जमीन से अपनी यात्रा को प्रारंभ कर एवरेस्ट की ऊंचाइयों को छुआ है, फिर भी उसके सामने कुछ सामाजिक तथा पारिवारिक दायित्वों की परिधि रहती है जिसके अंदर रह कर उसे काम करने होते हैं।

 

 

मां के रूप में

मां विधाता का बनाया हुआ सबसे नायाब करिश्मा है। संतान रूपी दीपक को प्रज्वलित करने की क्षमता सिर्फ मां में ही है। नेपोलियन ने कहा था, मुझे सुसंस्कृत, अच्छी 100 माताएं मिल जाएं तो मैं एक सभ्य सुसंस्कृत  जाति की स्थापना कर दूं, अतः मां का सबसे पहला दायित्व है अपने बालकों में अच्छे संस्कार डालने हेतु स्वयं अपने आचरण में सच्चाई, मधुरता, सरलता, सहजता, क्षमता, दया, क्षमा, स्वाध्याय, संतोष, संयम, त्याग, सेवा सुश्रूषा आदि को स्थान दें, तभी बालक जो सिर्फ हमारे समाज के ही नहीं भारत के भी भाग्य विधाता हैं, वे अपने कर्तव्यों को जानकर समाज हित में अपना योगदान दे सकेंगे।

 

 

पत्नी के रूप में नारी

मनुष्य के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में नारी की सहभागिता नितांत अनिवार्य है। यह सहभागिता जितनी अधिक हार्दिक, वास्तविक, सक्रिय और संतुलित होगी, जीवन की विभिन्न दशाओं में उतनी ही उन्नति संभव होगी।

 

एक सुघड़ पत्नी का साथ पाकर कोई भी पति जीवन की विषमताओं, कठिनाइयों एवं पीड़ाओं को भी हंसकर पार कर लेता है और अंत में चतुर्दिक प्रगति का सुख प्राप्त करता है। आधुनिक नारी शिक्षित व स्वावलंबी है और थोड़े अर्थों में कहा जाए तो स्वच्छंद प्रवृत्ति की है।
आज भौतिकवाद के इस महंगाई भरे युग में सभी परिवार अपने जीवन को एक उच्च स्तर पर रखकर जीना चाहते हैं और परिणामतः अर्थोपार्जन हेतु महिलाओं को भी अपने पति का साथ देना पड़ता है और इस तरह उन पर दोहरा दायित्व आ जाता है। जब तक वह स्वेच्छा व सुरूचिपूर्ण वातावरण में रहता है, तब तक तो परिवार संयमित रहता है परन्तु जब उनमें अहम् की भावना पनपने लगती है, तब मनमुटाव होने लगते हैं। मतभेद होते-होते मनभेद की स्थिति उत्पन्न होने लगती है और अंतिम परिणति तलाक रहती है। अपने संयत आचरण  व प्रेमपूर्ण व्यवहार से कोई भी पत्नी अपने परिवार को स्वर्ग बना सकती है।

 

 

पुत्री एवं बहन के रूप में

हमारी पुत्रा एवं बहन हमारी आशा एवं उत्साह, प्रसन्नता का प्रतीक है। उन्हें सुशिक्षित ही होना चाहिए, जिससे ज्ञान व बुद्धि का विकास हो सके परन्तु सहनशीलता, धैर्य, संयम का पाठ उन्हें अपने परिवार के उन्मुक्त वातावरण में ही मिलता है जो सामाजिक, पारिवारिक संगठन का मूल तत्व है। आत्मविश्वास और दृढ़ संकल्प के गुणों को अपनाकर उन्हें उच्छृंखल होने से बचना चाहिए।

 

 

सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में

आज समाज में महिलाओं में जागृति आई है और नारी ने अपने क्षेत्रा में संगठित होकर समाजहित में कार्य करना प्रारंभ किया है जो प्रगति की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रशंसनीय कदम है। यदि सामाजिक क्षेत्रा में महिलाओं को आगे आना है तो उनमें हिमालय सी सहनशीलता, सागर सी गंभीरता व धरती सा धैर्य होना चाहिए। अपनी सादगी व प्रेमपूर्ण, सामंजस्यपूर्ण व्यवहार एवं कार्यों से कोई भी नारी एक समाज को आदर्श समाज बना सकती है।

 

आज प्रत्येक स्तर पर नारी ने अपने कदम उन्नति के पथ पर बढ़ाये हैं जो इस बात का सूचक हैं कि यदि नारी सुगंधित होकर आध्यात्मिक फूल-सा व्यवहार करे तो समाज को स्वर्ग सा बना सकती है और यदि रूष्ट होकर मार्ग का कांटा बनकर कार्य करे तो समाज को नरक बनाने की क्षमता भी रखती है।