श्रीमद्भगवद्गीता : एक परिचय

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जब हम भारतीय ज्ञान परंपरा की बात करते हैं तो उसमें हमारे वेद, शास्त्र, पुराण आदि सभी ग्रंथ अपने आप ही मन मस्तिष्क में आ जाते हैं। यह सभी ग्रंथ हमारे ज्ञान का प्रकाश पुंज हैं। श्रीमद्भगवद्गीता को हमने पंचम् वेद के रूप में माना है। आज भारतीय और वैश्विक विचारधारा के क्षेत्र में श्रीमद्भगवद्गीता की लोकप्रियता अद्वितीय है। श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं में अनूदित होकर जनमानस के अंदर अपनी एक अलग ही छाप बनाए हुए है। श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत महाकाव्य का एक अंश है। महाभारत के विषय में एक कहावत भी प्रचलित है ‘यन्न भारते तन्न भारते’ कहने का भाव है कि जो बातें महाभारत में नहीं है, वह भारतवर्ष में नहीं हैं। महाभारत हमारा इतिहास भी है, हमारा काव्य भी है और हमारे जनमानस का प्राण भी है। संस्कृत साहित्य में महाभारत को इतिहास काव्य के रूप में भी बताया जाता है। महाभारत में 18 पर्व हैं, इसमें छठा पर्व भीष्मपर्व है, इसमें पाँच उपपर्व तथा 6100 श्लोक हैं। इसका विभाजन 122 अध्यायों में हुआ है। इसी पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता उपदेश है। श्रीमद्भगवद्गीता में 700 श्लोक हैं। इसमें भगवान् श्रीकृष्ण और भक्त अर्जुन दो ही पात्र हैं। वक्ता भगवान श्रीकृष्ण हैं तथा श्रोता उनके कृपापात्र अर्जुन हैं। इसमें कर्म, भक्ति, ज्ञान आदि का अद्भुत समन्वय है।

श्रीमद्भगवद्गीता को समझना सरल नहीं है। एक दृष्टि से समझें तो श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषदों, वेदों आदि का सार-संग्रह है। उपनिषदों के समान ही इसकी प्रतिपाद्य वस्तु परम कल्याणकर है। यह ग्रंथ मानव के साथ-साथ इस चराचर जगत का कल्याण करने वाला है। भगवान वेदव्यास जिनको विष्णु के अवतारों में स्थान प्राप्त है, श्रीकृष्ण-अर्जुन के इस संवादामृत को मूर्तरूप देने वाले शिल्पी हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के प्राकट्य में योगदान करने वाले सभी महापुरुष दिव्य शक्ति-सम्पन्न थे। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना दिव्य और विराट रूप दिखाने से पहले कहते हैं- ‘दिव्यं ददामि ते चक्षुः’ अर्थात् मैं तुम्हें अलौकिक नेत्र प्रदान करता हूँ, मेरे दिव्य योग को देखो।

श्रीमद्भगवद्गीता उपदेश कुरूक्षेत्र में युद्ध स्थल पर कौरव और पाड़व सेना के बीच दिया गया है। यह एक ऐसे सुकोमल अवसर पर दिया गया था जबकि न केवल राष्ट्र का अपितु स्वयं धर्म का ही अस्तित्व संकटग्रस्त हो गया था। यजुर्वेद के नौवे अध्याय की 23 वीं कंडिका में लिखा है- ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः’ इस सूक्ति का अर्थ है, ‘हम पुरोहित राष्ट्र को जीवंत और जाग्रत बनाए रखेंगे।’ पुरोहित का अर्थ होता है जो इस पुर का हित करता है। प्राचीन भारत में ऐसे व्यक्तियों को पुरोहित कहते थे, जो राष्ट्र का दूरगामी हित समझकर उसकी प्राप्ति की व्यवस्था करते थे। भगवान श्रीकृष्ण ने जो अर्जुन को उपदेश दिया उसमें कुछ ऐसा ही भाव निहित रहा है। श्रीमद्भगवद्गीता के आदेशानुसार स्वधर्मनिष्ठा से परमेश्वर की आराधना द्वारा प्राणी भगवत्-अनुकम्पा का पात्र होकर भगवत्त्वरूप साक्षात्कार परा भक्ति को प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता है।

श्रीमद्भगवद्गीता की प्रासंगिकता ज्ञान, दर्शन, ज्योतिष, भक्ति आदि हर एक क्षेत्र में है। जहाँ तक ज्ञान की बात है श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञान का अमृत कलश है। इसका पान जिसने भी किया है वह इहलोग और परलोक की यात्रा से पार उतर गया है। श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञान का महासागर है, देखने-समझने वाले की दृष्टि होनी चाहिए। भगवान ने अर्जुन को माध्यम बनाकर इस चराचर जगत के बारे में विस्तार से बताया है।

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