करवा चौथ के दिन कुछ स्थानों पर चन्द्रमा के दर्शन नहीं हुए। परम्परा के अनुसार कोई व्रती बिना चन्द्रदर्शन के व्रत नहीं खोल सकती, सो कुछ ने उपाय लगाया कि भगवान शिव की तस्वीर से उनके माथे पर विराजमान चन्द्र को देख कर व्रत खोला जा सकता है किंतु दुर्भाग्य से किसी के घर में उस क्षण वह तस्वीर भी उपलब्ध न हो तो? तो मेरी सहज देहाती बुद्धि कहती है कि आकाश में जिस दिशा में चन्द्रमा होते हैं, उस दिशा की ओर देखते हुए चन्द्रमा का ध्यान कर लें और शेष विधियों का पालन करते हुए व्रत खोला जा सकता है। यह शास्त्राीय विधान नहीं, लौकिक विधान है। प्राकृतिक शक्तियों पर आधारित सनातनी कर्मकांड इतनी सहजता प्रदान करता है कि किसी भी वस्तु की अनुपलब्धता बाधा नहीं बनती। जो सत्यनारायण कथा किसी सम्पन्न घर मंे दस हजार के खर्च में पूरी होती है, वही कथा किसी विपन्न घर मे ढाई सौ के खर्च में सम्पन्न हो जाती है। गणेश भगवान को वस्त्रा के स्थान पर सूत का टुकड़ा चढ़ा कर पंडीजी मंत्रा पढ़ देते हैं- वस्त्राभावे सूक्तम समर्पयामि! वस्त्रा के अभाव में सूत समर्पित कर रहे हैं। ईश्वर भी इसे सहजता से स्वीकार कर लेते हैं। पूजा के लिए गंगाजल आवश्यक होता है तो हम गंगन का आवाहन कर के उन्हें लोटा में ही उतार लेते हैं। पूजा में कोई भी सामग्री कम हो तो उसके स्थान पर पुष्प अर्पित कर देते हैं। इतनी सहजता, बन्धनों से इतनी मुक्ति और कहीं नहीं… कुछ लोग सदैव कर्मकांडों का विरोध करते हैं, पर उनका विरोध तार्किक नहीं होता। मुझे नहीं लगता कि कोई भी कर्मकांड किसी व्यक्ति पर बोझ बनता हो। मैंने देखा है, जो डोम किसी शव को मुखाग्नि देने के समय इक्कीस हजार लेता है, वही डोम किसी अन्य स्थान पर स्वयं ही इक्यावन रुपये मांग कर अग्नि दे देता है। श्राद्ध का खर्च किसी के यहाँ 5 लाख आता है तो किसी के यहाँ हजार रुपये में भी सम्पन्न हो जाता है। किसी के यहाँ विवाह का कुल बजट भले 50 लाख रुपये आता हो पर विवाह की प्रक्रिया का मूल खर्च अब भी अधिकतम खर्च पाँच हजार से कम ही होता है। शेष सारा खर्च दिखावे का होता है। वस्तुतः धर्म वही धारण करने योग्य होता है जिसे सहजता से पूर्ण किया जा सकता है। जिसे निभाना कठिन हो, जो हमें असहज कर दे, जो हमें प्रकृति, मानवता, राष्ट्र या समाज के विरुद्ध आचरण करने पर विवश कर दे, वह धारण करने योग्य नहीं। सनातन को उसकी सहजता धारण करने योग्य बनाती है।