पुराने जमाने की बात है। एक राजा था। उसे अपने विशाल साम्राज्य और धन-संपत्ति पर बहुत अभिमान था। एक दिन एक साधु उसके पास आया। उसने राजा को देखकर ही भांप लिया कि वह धन और सत्ता के मद में चूर है, लेकिन अंदर से खोखला है। राजा ने साधु से पूछा, ‘ऐ भिखारी, बोलो तुम्हें क्या चाहिए? साधु ने मुस्कराते हुए कहा, ‘राजन, मैं आप से कुछ लेने नहीं, आप को कुछ देने आया हूं। इससे राजा के अंह को ठेस पहुंची। उसने सोचा कि आखिर एक साधु उसे कुछ देने का साहस कैसे कर सकता है। राजा ने उसे डांटते हुए कहा, ‘छोटा मुंह बड़ी बात मत कर। जिसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं वह मुझ जैसे बड़े शासक को क्या दे सकता है। जो स्वयं भीख मांगकर गुजारा करता है उसके पास देने के लिए है ही क्या।
साधु बोला, ‘आप ठीक कहते हैं। आपके पास बहुत कुछ है जो मेरे पास नहीं है, लेकिन याद रखें मुझ जैसे लोगों के पास वह होता है जो आप जैसे वैभवशाली लोगों के पास नहीं होता। राजा का क्रोध और बढ़ा। उसने चिल्लाकर कहा, ‘तुम जैसे लोगों के साथ हमारी तुलना कैसे हो सकती है। इस पर साधु ने कहा, ‘महाराज, बिना त्याग के भोग बेस्वाद है। जब वैभव में त्याग जुड़ जाता है तो वैभव महक उठता है। त्याग के आते ही अहंकार मिट जाता है, आसक्ति दूर हो जाती है तथा भीतर की आंखें खुल जाती हैं। इस बात का स्मरण रखें कि धन से सब कुछ प्राप्त नहीं हो सकता। धन से औषधि खरीद सकते हैं स्वास्थ्य नहीं। धन से बिस्तर खरीदा जा सकता है नींद नहीं। धन से सुविधा मिल सकती है शांति नहीं। मैं आपको यही सीख दे रहा हूं, जो आपके पास नहीं है। साधु की इन बातों का राजा पर गहरा असर हुआ उसने उससे क्षमा मांगी। उस दिन से उसका व्यवहार बदल गया।
पैसे के बढ़ते प्रवाह में दो तरह की स्थितियां देखने को मिल रही है। एक स्थिति में अर्थ के सर्वोच्च शिखरों पर पहुंचे कुछ लोग जनसेवा एवं जन-कल्याण के लिये अपनी तिजोरियां खोल रहे हैं तो दूसरी स्थिति में जरूरत से ज्यादा अर्जित धन का बेहूदा एवं भोंडा प्रदर्शन कर रहे हैं। जहां कुछ वैभवसम्पन्न घराने आदर्श बन रहे हैं तो वहीं कुछ तिरस्कार की दृष्टि से देखे जा रहे हैं। अर्थ एवं विकास के असन्तुलन ने अनेक समस्याएं पैदा की है और उन्हीं से आतंकवाद, नक्सलवाद पैदा होते हैं।
भारत में इन वर्षों में वैभव प्रदर्शन की एक आंधी-सी चल रही है। जो जितना बड़ा पैसेवाला है, वह उतना ही बड़ा और भौड़ा वैभवता का प्रदर्शन कर रहा है। वे इन प्रदर्शनों में खर्च होने वाली बड़ी रकम से कोई आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर सकते थे, जैसा कि अमेरीका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, कम्प्यूटर जगत के बादशाह बिल गेट्स, अजीम प्रेमजी आदि ने किया है। इन लोगों ने दुनिया से गरीबी दूर करने, सेवा एवं जनकल्याण के लिये, शिक्षा और चिकित्सा के लिये अपने अर्जित धन का विसर्जन किया है। संतुलित समाज निर्माण के सपने को आकार देने की दिशा में कदम बढ़ाये हैं।
‘वैष्णव जन तो तेने कहिए भजन में नरसी मेहता ने एक बात अच्छी प्रकार से कह दी है। ‘पर दु:खे उपकार करे कह कर वे रुक गए होते, तो वैष्णव जनों की संख्या बहुत बढ़ जाती है। ‘पर दु:खे उपकार करे तोए मन अभिमान न आणे रे कह कर नरसी मेहता ने हम सब में छिपे सूक्ष्म अहं को विगलित करने की चेतावनी दी है। पैसे का अहं तो शैतान से भी ज्यादा खतरनाक होता है। विषमता गरीबी को बढ़ा कर ही बढ़ सकती है और साथ ही जब हाथ में एकाएक जरूरत से ज्यादा पैसा आता है तो भोंडापन एवं अहं अपने आप बढ़ता है। इस प्रकार के पैसे और उसके कारण जो चरित्र निर्माण होता है उससे देश मजबूत नहीं बल्कि कमजोर होता है। इस प्रकार बढ़ते नव-धनाढ्यों की लम्बी सूची और उनके भोंडेपन को किसी भी शक्ल में विकास तो कहा ही नहीं जा सकता।
किसी नगर में एक लालची आदमी रहता था। ज्यों-ज्यों उसके पास पैसा आता गया त्यों-त्यों उसका लोभ बढ़ता गया। उसे सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं उपलब्ध थीं। धन के बल पर वह प्रत्येक वस्तु प्राप्त कर सकता था। लेकिन उसके जीवन में एक चीज का अभाव था- उसका कोई पुत्र नहीं था। उसकी युवावस्था बीतने लगी, परंतु धन-संपत्ति के प्रति उसकी चाहत में कोई अंतर नहीं आया।
एक रात बिस्तर पर लेटे-लेटे उसने देखा कि सामने कोई अस्पष्ट आकृति खड़ी है। उसने घबराकर पूछा, ‘कौन? उत्तर मिला, ‘मृत्यु। फिर वह आकृति गायब हो गई। उस दिन से जब भी वह एकांत में होता, आकृति उसके सामने आ जाती। उसका सारा सुख मिट्टी हो गया। कुछ ही दिनों में वह बीमार पड़ गया। वह वैद्य के पास गया, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। दवा की, पर रोग घटने के बजाय बढ़ता गया। लोगों ने उसकी दशा देखकर कहा, ‘नगर के उत्तरी छोर पर एक महात्मा रहते हैं। वह सभी प्रकार की व्याधियों को दूर कर देते हैं।
उस आदमी ने महात्मा के पास पहुंचकर रोते हुए प्रार्थना की, ‘आप मेरा कष्ट दूर करें। मौत मेरा पीछा नहीं छोड़ रही है। महात्मा ने कहा, ‘भले आदमी, मोह और मृत्यु परम मित्र हैं। जब तक तुम्हारे पास मोह है तब तक मृत्यु आती रहेगी। मृत्यु से तभी छुटकारा मिलेगा जब तुम मोहरहित हो जाओगे। आदमी ने कहा-‘महाराज मैं क्या करूं, मोह छूटता ही नहीं।महात्मा बोले-‘कल से तुम एक हाथ से लो और दूसरे हाथ से दो। हाथ को खुला रखो। तुम्हारा रोग दूर हो जाएगा। महात्मा की बात मानकर उस आदमी ने नए जीवन का आरंभ किया। रोग तो दूर हुआ ही, उसे अच्छा भी लगने लगा।
हर आदमी ने भ्रम पाल रखे हैं। अधिक मोह, अधिक आकांक्षा, अधिक स्वाद, अधिक प्रियता और अधिक तृप्ति की दौड़ में इंसान अपने की भाग्य को डरावना बना देता है। जबकि अच्छा पुरुषार्थ नेक-नियति से आदमी अपने भाग्य को बदल सकता है।
भगवान महावीर ने कहा था कि संसार में लोक कल्याण, विश्वशांति, सद्भाव और समभाव के लिये अपरिग्रह का भाव जरूरी है। यही अहिंसा का मूल आधार है। परिग्रह की प्रवृत्ति अपने मन को अशांत बनाती है और हर प्रकार से दूसरों की शांति को भंग करती है। लेकिन आज हर बड़ी मछली छोटी मछली को निगल रही है। धनवान व्यक्ति परिग्रह और अहं प्रदर्शन के द्वारा असहायों एवं कमजोरों के लिये समस्याएं पैदा करता है। यह संसाधनों पर कब्जा ही नहीं करता बल्कि उसका बेहूदा प्रदर्शन करता है, जिससे मानसिक क्रोध बढ़ता है और हिंसा को बढ़ावा मिलता है। महावीर ने इसलिये एक-दूसरे के सहायक बनने की बात कही। उन्हीं के दिये उपदेशों से निकला शब्द है विसर्जन। समतामूलक समाज निर्माण के लिये जरूरी है कि कोई भी कितना ही बड़ा व्यवसायी बने, लेकिन साथ में अपरिग्रहवादी भी बने। अर्जन के साथ विसर्जन की राह पर कदम बढ़ाये। डा. अच्युता सामंता ने कलिंग
विश्वविद्यालय के रूप में उच्च शिक्षा के बड़े गढ़ स्थापित किये तो उससे होने वाली आय को आदिवासी गरीब बच्चों के कल्याण में विसर्जित किया। 12 हजार से अधिक गरीब बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देने वाले सामंता आज भी एक चटाई पर सोते हैं उनका कोई आशियाना नहीं है। इसी भांति गणि राजेन्द्र विजयजी अपनी संतता को सार्थक करते हुए आदिवासी कल्याण के लिये अनेक योजनाएं संचालित कर रहे हैं, उनका भी कोई भव्य आश्रम नहीं है। ऐसे ही प्रयत्नों से हम भारत को विकसित होते हुए देख सकते हैं। तभी तो शंकराचार्य ने कहा है -‘ दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है।
गांधीजी ने अहमदाबाद में आश्रम शुरू किया, तब एक समय आर्थिक तंगी के कारण आश्रम बन्द करने की नौबत आयी। गांधीजी मंथन कर रहे थे। आश्रम बन्द होगा, यह बात निश्चित लग रही थी। एक शाम एक सर्वथा अनजाना व्यक्ति आया और रुपयों की एक थैली देकर, साबरमती के अन्धकार में अदृश्य हो गया। आज तक यह पता नहीं लग सका कि ‘व्यक्तिÓ कौन था। आश्रम अगर चालू रह सका, तो उस व्यक्ति के कारण। नि:स्वार्थ, सहज, सात्विक उपकार ऐसा ही होता है। सही रूप में विसर्जन, बिना किसी अपेक्षा के। ऐसा उपकार मनुष्य पर प्रकृति पल-पल करती रहती है। सूर्य, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं जंगलों की तरफ से सतत् होता रहता है- तभी हमारा जीवन है/हम जिन्दा हैं। इसीलिये जार्ज बनार्ड शॉ को कहना पड़ा कि कमाए बगैर धन का उपभोग करने की तरह ही खुशी दिए बगैर खुश रहने का अधिकार हमें नहीं है।
रेल में या बस में थोड़ा सिकुड़ कर अगर आप किसी के लिए जगह बना देते हैं तो एक विशेष प्रकार के संतोष की अनुभूति होती है। स्मरण कीजिए, भूतकाल में कई बार आपके लिए किसी ने इसी प्रकार जगह बना दी थी। आज आप उनका नाम व चेहरा भी भूल गये होंगे। यह दुनिया भी एक रेल है। यहां भी ऐसे ही किसी अनजान के लिए ‘थोड़ा संकोच करें बिना किसी अपेक्षा के, पेड़ अगर फल देता है तो क्या आपसे थैंक्यू की भी अपेक्षा करता है? सचमुच देने का सुख अप्रतिम है। कृतज्ञता अहंकार का विसर्जन है। संत तिरूवललुवर की उक्ति बहुत मर्मस्पर्शी है कि स्नेह शून्य व्यक्ति सब वस्तुओं को अपने लिए मानते हैं। स्नेह संपन्न व्यक्ति अपने शरीर को भी दूसरों का मानते हैं।
उपकार का आनन्द अनुभव करना है तो आपने जो किया उसे जितनी जल्दी ही भूल जाएं और आपके लिए किसी ने कुछ किया, उसे कभी न भूलें। आज जरूरत है हर समर्थ आदमी अपने से कमजोर का सहायक बने। तकलीफ तब होती है जब इसका उल्टा होता है।