विश्व का पहला फिंगर प्रिंट ब्यूरो भारत में बना

अनेक अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है कि प्रति एक हजार लोगों में जन्म से मृत्यु तक 999 लोगों के उंगलियों के निशानों में कोई अंतर नहीं आता सिवाय आकार के। यदि बाकी बचे एक व्यक्ति के निशानों में अंतर आता भी है तो वह बहुत मामूली होता है।


हर व्यक्ति की उंगलियों के निशान एक दूसरे से भिन्न होते हैं इसलिए कोई आपराधिक घटना हो जाने पर घटना स्थल पर पुलिस अपराधी की अंगुलियों के निशान ढूंढती है। कोई ऐसी चीज जिस पर वारदात करने वाले की अंगुलियों के निशान हों, पुलिस को मिल जाते हैं तो वह उसे साथ ले जाती है। फिंगर प्रिंट ब्यूरो उनका अध्ययन करता है।


आदमी के हाथ कितने भी साफ क्यों न हों, वह जहां भी हाथ रखता है वहां उसकी अंगुलियों व हथेली के निशान रह जाते हैं। भारतीय और अन्य देशों के दण्डात्मक कानूनों में अंगुलियों के निशानों की साक्ष्य के रूप में मान्यता है। यह बड़ा रोचक है कि विश्व का पहला फिंगर प्रिंट ब्यूरो भारत में ही स्थापित हुआ।


सन 1843 में जन्मा हेनरी फॉल्ड्स स्कॉटलैंड का था। कुछ वर्ष उसने जापान में मिशनरी डॉक्टर के रूप में काम किया। उसने वहां हजारों लोगों की अंगुलियों के निशानों का अध्ययन किया। वह जब 1885 में लंदन आया तो अपने अनुभव के आधार पर इंग्लैंड की पुलिस स्काटलैंड यार्ड और गृह विभाग को इस बात के लिए मनाने का प्रयास किया कि अपराधी की पहचान वह उंगलियों के निशानों के आधार पर भी कर सकते हैं। इसे साक्ष्य कानून में शामिल कराने की भरपूर कोशिश की पर नाकामयाब रहा तो उसने अपना अध्ययन नेचर पत्रिका को दे दिया। नेचर में यह अध्ययन छपा तो लोगों का ध्यान उस पर गया।


सर जेम्स विलियम हर्शेल ने भी अंगुलियों का लंबा अध्ययन किया था। एक और अध्ययनकर्ता थे जार्ज विल्सन। वह अपने-अपने स्तर पर प्रयास करते रहे। अंततः हर्शेल के अध्ययन को गैल्टन की सिफारिश पर सरकारी कमेटी ने स्वीकार कर लिया।
सन 1897 में पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी में एक चाय बागान के मालिक की हत्या हो गई। पुलिस और अन्य लोगों का शक मालिक के घर काम करने वाली एक सुंदर औरत पर गया। इस हत्याकांड में भारत में प्रथम बार हर्शेल की अंगुलियों के निशानों के जांच की पद्धति को अपनाया गया।


हर्शेल ने भारत की सेना और जेलों में करीब 20 वर्ष तक लोगों की अंगुलियों का अध्ययन किया था। इस अध्ययन के दौरान हत्यारे के निशान चाय बागान मालिक के कमरे में लगे कैंलेडर पर मिले। बाद में पता चला कि उक्त निशान महिला के प्रेमी कालीचरण की अंगुलियों के थे।


पूछताछ में बाद में कालीचरण ने अपना गुनाह कबूल कर लिया। उसे 1898 में फांसी दे दी गई मगर सरकार ने 1897 में ही एक कमेटी का गठन कर दिया जिसे सरकार को यह रिपोर्ट देनी थी कि अंगुलियों के निशान के आधार पर क्या अपराधी की पहचान संभव है?
उसी समय अर्जेंटीना में भी इस प्रणाली पर बहस चल रही थी। 1900 आते-आते वहां भी सरकार ने इसे मान्यता दे दी। अमेरिका ने इस प्रणाली को काफी बाद में अपनाया। सन 1924 में वहां एफ बी आई अर्थात फेडरल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन की स्थापना की गई।
भारत में जहां 1897 से अपराधियों के अंगुलियों के निशान रखे जाते थे वहीं अमेरिका के एफ बी आई ने सभी नागरिकों के हाथों के निशान रखने शुरू कर दिए। व्ही. शांताराम की अपने जमाने की मशहूर फिल्म ’दो आंखें बारह हाथ‘ में हाथ के पंजों के निशान बार-बार दिखाए गये हैं। इसी तरह बी. आर. चोपड़ा की फिल्म ’धुंध‘ में भी हाथ के निशान माइक्रोस्कोप से देखते हुए कई सीन हैं।


फिंगर प्रिंट अध्ययन में हाथ के निशानों विशेष रूप में अंगुली के निशानों का बारीकी से अध्ययन किया जाता हैं। यह अध्ययन रिपोर्ट और निशानों के नमूने ब्यूरो के रिकॉर्ड में तो रहते ही हैं, इसके अलावा पेशेवर अपराधियों के रिकॉर्ड संबंधित क्षेत्रा के पुलिस स्टेशनों में भी रहते हैं। उंगलियों के निशानों के अध्ययन पर 19वीं सदी के अंत में पहली पुस्तक ’फिंगर प्रिंट्स‘ लिखी थी सर हेनरी ने।