नेता न होते तो बेहतरीन पत्रकार या कवि होते अटल बिहारी वाजपेयी
Focus News 25 December 2024 0अटल बिहारी वाजपेयी राजनेता बनने से पहले एक पत्रकार थे। वे देश-समाज के लिए कुछ करने की प्रेरणा से पत्रकारिता में आए थ। प्रखर वक्ता, सफल राजनेता, भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी की पत्रकारिता से लेकर राजनीतिक शिखर तक की यात्रा के साक्षी मध्यप्रदेश के ग्वालियर, विदिशा से लेकर उत्तर प्रदेश के वाराणसी,लखनऊ और देश की राजधानी दिल्ली तक है। उनके पत्रकारिता जीवन की तो बुनियाद ही बनारस में पड़ी थी।
अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत अटल जी ने आधे पैसे कीमत वाले अखबार ‘समाचार’ से की। जहां अटल जी लेख, यात्रा संस्मरण और रिपोर्ट लिखा करते थे।1942 में चेतगंज के हबीबपुरा मोहल्ले से निकलने वाले अखबार ‘समाचार’ के बाद उनका आक्रामक लेखन ‘चेतना’ में प्रकाशित होने लगा। छह महीने में ही ‘चेतना’ के प्रकाशन पर रोक के बाद उन्होंने लखनऊ से पत्रिका ‘स्वदेश’ निकाली, लेकिन ज्यादा समय तक वह भी चल नहीं सकी।
एक स्कूल टीचर के घर में पैदा हुए वाजपेयी के लिए जीवन का शुरुआती सफर आसान नहीं था। 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर के एक निम्न मध्यमवर्ग परिवार में जन्मे वाजपेयी की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के ही विक्टोरिया (अब लक्ष्मीबाई) कॉलेज और कानपुर के डीएवी कॉलेज में हुई थी उन्होंने राजनीतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर किया और पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया। उन्होंने राष्ट्रधर्म, पॉन्चजन्य और वीर अर्जुन जैसे अखबारों और पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
वे बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए थे और इस संगठन की विचारधारा के असर से ही उनमें देश के प्रति कुछ करने, सामाजिक कार्य करने की भावना मजबूत हुई। इसके लिए उन्हें पत्रकारिता एक बेहतर रास्ता समझ में आया और वे पत्रकार बन गए। उनके पत्रकार से राजनेता बनने का जो जीवन में मोड़ आया, वह एक महत्वपूर्ण घटना से जुड़ा है। इसके बारे में खुद अटल बिहारी ने पत्रकार तवलीन सिंह को एक इंटरव्यू में बताया था।
इस इंटरव्यू में वाजपेयी ने बताया था कि वे बतौर पत्रकारिता अपना काम बखूबी कर रहे थे।1953 की बात है, भारतीय जनसंघ के नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी कश्मीर को विशेष दर्जा देने के खिलाफ थे। जम्मू-कश्मीर में लागू परमिट सिस्टम का विरोध करने के लिए डॉ. मुखर्जी श्रीनगर चले गए। परमिट सिस्टम के मुताबिक किसी भी भारतीय को जम्मू-कश्मीर राज्य में बसने की इजाजत नहीं थी।
यही नहीं, दूसरे राज्य के किसी भी व्यक्ति को जम्मू-कश्मीर में जाने के लिए अपने साथ एक पहचान पत्र लेकर जाना अनिवार्य था। डॉ. मुखर्जी इसका विरोध कर रहे थे। वे परमिट सिस्टम को तोड़कर श्रीनगर पहुंच गए थे। इस घटना को एक पत्रकार के रूप में कवर करने के लिए वाजपेयी भी उनके साथ गए। वाजपेयी इंटरव्यू में बताते हैं, ‘पत्रकार के रूप में मैं उनके साथ था। वे गिरफ्तार कर लिए गए लेकिन हम लोग वापस आ गए।
डॉ. मुखर्जी ने मुझसे कहा कि वाजपेयी जाओ और दुनिया को बता दो कि मैं कश्मीर में आ गया हूं, बिना किसी परमिट के।’
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने साथी वाजपेयी को पार्टी के सदस्यों के लिए संदेश और आंदोलन जारी रखने के पैगाम के साथ दिल्ली वापस भेज दिया। उनका कहना था ‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नही चलेंगे’।
डॉ. मुखर्जी की श्रीनगर में हिरासत के दौरान रहस्यमय परिस्थितियों में 23 जून, 1953 को मौत हो गई और युवा वाजपेयी अपनी वाकपटु भाषण शैली के साथ अपने राजनीतिक मार्गदर्शक का संदेश देशभर में फैलाने में जुट गए और उन्होंने स्वाधीन भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर अमिट छाप छोड़ी।
अटल जी दूसरे आम चुनाव के दौरान 1957 में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर से लोकसभा सदस्य बने और उनके प्रथम भाषण ने उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू सहित अनेक समकालीन अनुभवी सांसदों से सराहना दिलवाई। पंडित नेहरू ने एक बार किसी विदेशी मेहमान से श्री वाजपेयी का परिचय करवाते हुए कहा था कि ”ये नौजवान एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनेगा।”
नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला को जब 8 अप्रैल 1964 को दिल्ली में नजरबंदी से रिहा किया गया और उन्हें पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर जाने की अनुमति दी गई, तो अटल जी, राज्य सभा में पंडित नेहरू की आलोचना करने से भी नहीं चूके लेकिन उन्हीं वाजपेयी जी ने पंडित नेहरू का 27 मई 1964 को निधन होने पर, संसद के ऊपरी सदन में भावभीनी श्रद्धांजलि भी दी। अपने राजनीतिक विरोधियों का सम्मान हमेशा से श्री वाजपेयी के बहुमुखी व्यक्तित्व की विलक्षण विशेषता रही है।
श्री वाजपेयी 47 वर्षों तक सांसद रहे, वे 11 बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए और 2 बार राज्यसभा सदस्य रहे, लेकिन जम्मू-कश्मीर का मामला हमेशा से उनके जेहन में रहा। वे नेहरू की जम्मू–कश्मीर नीति के घोर आलोचक थे। वे लगातार छह बार उत्तर प्रदेश की लखनऊ सीट से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए।
हृदय से कवि, अटल जी ने कविता को किसी भी परिस्थिति में स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम बना लिया। वे अक्सर भाषण के दौरान अपना संदेश देने के लिए अपनी कविता का पाठ करके श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते।
अटल जी को यह प्रतिभा अपने पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी से विरासत में मिली थी और वे बचपन से ही कविताओं की रचना करते रहे और अपने पिता के साथ पूर्व रियासत ग्वालियर में कवि सम्मेलनों में जाकर उनका पाठ करते रहे।
उनका काव्य संग्रह ”मेरी इक्यावन कविताएं” बहुत लोकप्रिय है। प्रसिद्ध फिल्म निर्माता यश चोपड़ा ने ”अंतर्नाद” नामक एक एलबम का निर्देशन किया है। यह एलबम अटल जी की कुछ बेहतरीन कविताओं पर आधारित है, जिन्हें शाहरुख खान के साथ गजल गायक जगजीत सिंह ने स्वर दिए हैं।
जम्मू-कश्मीर पर उनकी एक कविता ”मस्तक नहीं झुकेगा” जम्मू-कश्मीर के मामले पर भारत की स्थिति दर्शाती है।
1977 में जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री रहते हुए श्री वाजपेयी ने पाकिस्तान सहित भारत के पड़ोसी देशों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और परस्पर सम्मान के सिद्धांत पर आधारित मैत्रीपूर्ण संबंधों की नीति का अनुसरण किया। उनका प्रसिद्ध कथन ”आप दोस्त बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं” भारत के विदेश मंत्रालय का सूक्ति वाक्य बन चुका है।
जब श्री वाजपेयी 1996 में 13 दिन के लिए पहली बार और उसके बाद 1998 में 13 महीनों के लिए और 1999 में पूरे पांच साल के कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री बने, तो पाकिस्तान के साथ जम्मू–कश्मीर सहित सभी लंबित मामलों का शांतिपूर्ण ढंग से, बिना किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के द्विपक्षीय बातचीत से समाधान उनका मंत्र था।
13 मई 1998 को पोखरण में सफल परमाणु परीक्षण ”ऑपरेशन शक्ति” अटल जी का रणनीतिक मास्टर स्ट्रोक था, जिसका उन्होंने व्यापक संहार की क्षमता वाले हथियार की जगह ”निवारक” करार देते हुए बचाव किया। उन्होंने भारत को विश्व के अभिजात्य परमाणु क्लब में स्थान दिला दिया, हालांकि भविष्य में परमाणु परीक्षणों पर रोक की घोषणा भी की। 19 फरवरी 1999 को लाहौर बस यात्रा के दौरान वे शांति का संदेश लेकर पाकिस्तान गए।
श्री वाजपेयी ने ”मीनार-ए-पाकिस्तान” का दौरा किया, जहां उन्होंने पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए भारत की प्रतिबद्धता की एक बार फिर से पुष्टि की।
लाहौर में गवर्नर्स हाउस में भावपूर्ण भाषण देकर उन्होंने पाकिस्तान की जनता को अपना कायल बना दिया। इस भाषण का पाकिस्तान और भारत में सीधा प्रसारण किया गया।
अटल जी ने परस्पर विश्वास के आधार पर दोस्ती का हाथ बढ़ाया तथा आतंकवाद और मादक पदार्थों की तस्करी रहित भारतीय उपमहाद्वीप में गरीबी के खिलाफ सामूहिक संघर्ष का आह्वान किया।
श्री वाजपेयी जी के भावनाओं से परिपूर्ण भाषण ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को यह कहने पर विवश कर दिया – ”वाजपेयी साहब अब तो आप पाकिस्तान में भी इलेक्शन जीत सकते हैं।”
वाजपेयी जी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ 21 फरवरी 1999 को लाहौर घोषणा-पत्र पर भी हस्ताक्षर किए, जिसमें पाकिस्तान ने दोनों देशों के बीच जम्मू-कश्मीर सहित सभी द्विपक्षीय मामलों के शांतिपूर्ण और बातचीत के जरिए समाधान तथा जनता के बीच आपसी संपर्क को बढ़ावा देने पर सहमति व्यक्त की।
पाकिस्तान के साथ पारस्परिक आदान-प्रदान के आधार पर शांतिपूर्ण और मैत्रीपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देने के वाजपेयी सरकार के प्रयासों के प्रतीक के रूप में दिल्ली–लाहौर बस सेवा ”सदा-ए-सरहद” शुरू की गई। अटल जी ने इस बस सेवा को तब भी नहीं रुकवाया, जब पाकिस्तान के सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ ने मई और जुलाई 1999 के बीच करगिल पर हमला किया। इस हमले को भारतीय सशस्त्र बलों ने सफलतापूर्वक नाकाम कर दिया और पाकिस्तानी सेना को क्षेत्र की पहाडि़यों से कब्जा हटाने के लिए बाध्य कर दिया।
हालांकि भारतीय संसद पर 13 दिसंबर 2001 को पाकिस्तान-आईएसआई द्वारा प्रायोजित आतंकवादी हमले के बाद दोनों पड़ोसियों के बीच तनाव बढ़ने पर यह बस सेवा रोक दी गई। बाद में जब पाकिस्तान ने भारत सरकार और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को यह भरोसा दिलाया कि वह अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा, तब 16 जुलाई 2003 को यह सेवा बहाल कर दी गई। भारत-पाक संबंधों में कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन दिल्ली–लाहौर बस दोनों देशों के बीच संपर्क बरकरार रखते हुए उनकी जनता की इच्छाओं का प्रतीक बनी रही।
अटल जी का इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत की भावना के साथ जम्मू-कश्मीर में शांति, प्रगति और समृद्धि का सिद्धांत घाटी के उग्रवादी तत्वों और शायद नियंत्रण रेखा के पार पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में बसे कश्मीरियों सहित जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक धरातल के सभी वर्गों द्वारा सराहा गया।
करगिल संघर्ष, भारतीय विमान का अपहरण कर कंधार ले जाने और भारतीय संसद पर आतंकवादी हमले सहित बातचीत की पहल के रास्ते में आए सभी व्यवधानों और पाकिस्तानी सेना और आईएसआई द्वारा उकसाने की गंभीर कोशिशों के बावजूद वाजपेयी ने शांति प्रक्रिया को पटरी से नहीं उतरने दिया।
उनकी एनडीए सरकार ने उपमहाद्वीप की शांति और भाईचारे के व्यापक हित में, विश्वास बहाली के उपायों और जनता के बीच आपसी संपर्क को प्रोत्साहन देना जारी रखा, जो उस क्षेत्र की प्रगति और विकास का अनिवार्य घटक है, जहां की एक-तिहाई आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने को विवश है।
अब भारत के सबसे लोकप्रिय और ऊर्जावान नेता, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आतंकवाद मुक्त समृद्ध दक्षिण एशिया के वाजपेयी के अधूरे एजेंडे को पूरा करने के मिशन पर जुटे हैं। नरेन्द्र मोदी ने सदैव श्री वाजपेयी का बेहद सम्मान किया है और उन्हें अपना आदर्श माना है।