करुणावतार और कर्मावतार भगवान पार्श्वनाथ

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सनातन धर्म की पावन गंगोत्री से निकले विभिन्न धर्मों में जैन धर्म भारत का सर्वाधिक प्राचीनतम धर्म है। चौबीस तीर्थकंरों की समृद्ध जनकल्याण की परम्परा, जो वर्तमान अवसर्पिणी काल में ऋषभदेव से लेकर महावीर तक पहुंची, उसमें हर तीर्थंकर ने अपने समय में जिन धर्म की परम्परा को और आत्मकल्याण के मार्ग को समृद्ध किया है तथा संसार को मुक्ति का मार्ग दिखाया है।
 
काल के प्रवाह में ऐसा होता आया है कि एक महापुरुष के निर्वाण के बाद उसका प्रभाव तब तक ही विशेष रूप से जन सामान्य में रहता है जब तक कि उसके समान कोई अन्य महापुरुष धरती पर अवतरित न हो। लेकिन कुछ महापुरुष इसका अपवाद होते है। जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के बाद भगवान महावीर हुए लेकिन भगवान पार्श्वनाथ के प्रभाव में कोई कमी आज तक नहीं आई है। जैन मान्यताओं के अनुसार वर्तमान में भगवान महावीर का शासन चल रहा है लेकिन सर्वाधिक जैन प्रतिमाएँ आज भी केवल भगवान पार्श्वनाथ की ही है। जैन मंत्र साधनाओं में भी सर्वाधिक महत्व पार्श्वनाथ के नाम को ही दिया जाता है।
 
भगवान पार्श्वनाथ का जन्म भगवान महावीर के जन्म से 350 वर्ष पहले हुआ। सौ वर्ष की आयु उनकी रही तदानुसार लगभग तीन हजार वर्ष पहले वाराणसी के महाराजा अश्वसेन के यहां माता वामा देवी ने पौष कृष्ण दशमी को भगवान पार्श्वनाथ को जन्म दिया। राजसी वैभव के बावजूद उनकी आत्मा में असीम करुणा का भाव था।जो सांसारिक जीवन में उनको लोकप्रिय बना देता है। वे उस दौर के तमाम आडम्बरों के बीच एक कमल पुष्प थे। धर्म और समाज में फैली हिंसा और कुरीतियों के बीच एक धर्म पुरोधा थे। जो मनुष्य समाज में मनुष्यता के गुण करुणा, दया, अहिंसा के जीवन की प्रतिस्थापना करने आए थे।
 
जैन धर्म ग्रंथो में एक प्रसंग आता है- जब भगवान पार्श्वनाथ मात्र  सोलह वर्ष के थे तब वाराणसी नगरी में एक तापस आया जो नगर के मध्य अग्नि तप कर रहा था। सारा नगर उस तापस के इस हठ योग से प्रभावित होकर उसके दर्शन के लिए जा रहा था। ऐसे में लोक व्यवहार अनुसार पार्श्वकुमार भी वहॉ पहुंचे।  उन्होंने अपने ज्ञान से देखा कि तापस ने जो लकड़ी अपने सामने जला रखी है उसमें नाग नागिन का जोड़ा है, और वो जल रहा है। पार्श्वकुमार ने तापस से कहा कि- योगी आपके इस हठ योग में जीवों की हिंसा हो रही है। इस पर तापस क्रोधित हो गया और अशिष्ट भाषा का प्रयोग पार्श्वकुमार के प्रति किया। तभी पार्श्वकुमार ने अपने कर्मचारी को आदेश देते हुए काष्ठ के उस टुकड़े को आग से निकालने कर उसे चीरने को कहा, जैसे ही कर्मचारी ने लकड़ी को चीरा उसमें से जलता हुआ नाग नागिन का जोड़ा निकला जो मरणासन स्थिति में पहुँच चुका था । पार्श्वकुमार ने जलते नाग नागिन के प्रति अपनी करुणा बरसाते हुए उनको नमस्कार महामंत्र सुनाया और बोध दिया कि बैर भाव को त्याग करे और समाधिमरण का वरण करे। पार्श्वकुमार की वाणी उस समय उस सर्प युगल के लिए किसी अमृत से कम नहीं थी। क्योंकि कहा जाता है ‘अंत मति सो गति’। पार्श्वकुमार के वचनों से उनके मन से बैर भाव खत्म हुआ और वे समाधिमरण को प्राप्त कर देव लोक में धरणेन्द्र और पद्मावती नाम से इन्द्र और इन्द्राणी बने। ये दोनों भगवान पार्श्वनाथ के जीवन काल में हर समय उनके साथ रहे और माना जाता है कि आज भी भगवान पार्श्वनाथ का स्मरण करने वालों के साथ रहते है।
 
भगवान पार्श्वनाथ करुणावतार तो थे ही वे कर्मावतार भी थे उन्होने अपने सत्तर साल के दीक्षा पर्याय में कभी किसी से सहायता की याचना नहीं की अपने तपोबल के माध्यम से केवल ज्ञान को प्राप्त किया और मोक्ष को गये। भगवान पार्श्वनाथ कर्मकांड और आडम्बर को धर्म नहीं मानते थे वे जीवंत धर्म को ही धर्म मानने और उसकी प्रतिस्थापना करने के लिए धरा पर आए थे। उन्होंने करुणा, दया, परोपकार और जगत कल्याण के कार्यों को धर्म बताया और उसी ओर जगत के जीवों के ले जाने के लिए उपदेश दिया। भगवान पार्श्वनाथ का जन्मकल्याणक मनाते हुए हमें भी उनके जीवन से प्रेरणा लेते हुए उनके बताए मार्ग पर चलने का संकल्प लेना चाहिए।

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