कमोबेश आज की प्रगतिशील आधुनिक ऊंची डिग्री प्राप्त लाखों रूपये सालाना कमाने वाली बहुएं पैर छूने जैसी दकियानूसी परंपरा में विश्वास नहीं करती। उनमें अहम इतना ज्यादा है कि वे अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझती फिर चाहे वे सास ससुर ही क्यों न हों। मालिनी जी ने अपनी बहू की घोर परेशानी देखी। जब भी ऐसी सिचुएशन आती कि अब पैर छूने पड़ेंगे तो उसके चेहरे पर घोर असमंजसता आ जाती। रूकती झिझकती उन्हें अवॉयड करती वह अच्छा खासा तमाशा करने लगती तो मालिनीजी ने उसके पति से कह दिया कि उसे यह कष्ट करने की जरूरत नहीं। अंधा क्या चाहे दो आंखें। बहू की मन की मुराद पूरी हो गई मगर होशियार बहू सास के महंगे तोहफे देने पर झट से झुक जाती या अपनी फ्रैंड्स के सामने भली बनने को वो सास के अपने घर आने पर दिखावे के लिए यह नाटक जरूर करती मगर उसका हर कदम सोचा समझा केलक्युलेटिड होता था यानी कि यह दिखावा कब कब किसके सामने करना है। उसके मन में सास को नीचा दिखाने की हर समय योजना बनती रहती। ऐसे में जब मन में श्रद्धा ही न हो, पैर छूना एक बेमतलब की रस्म नहीं तो और क्या रह जाती है। कई घरों में बच्चों को शुरू से इस बात की ट्रेनिंग मिलती है कि उन्हें कैसे बड़ों के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेना चाहिए। यह एक निहायत ही स्वस्थ और अच्छी परंपरा है जिस पर हमें गौरव करना चाहिए। ठेठ मारवाड़ी परिवारों में जब बहुएं बड़ी बूढ़ियों के पैर छूने के बजाय उन्हें आदर से दबाती हैं तो कोई उनसे पूछे कि उनके दर्द करते जोड़ों को पल भर के लिए ही सही, कितना आराम मिलता है। उनके सूने जीवन में पल भर को ही सही, उजास भर जाता है कि कोई उन्हें ऊंचा ओहदा देकर उनका सम्मान कर रहा है। वे समाज में, परिवार में नाकारा नहीं हो गए हैं। आजकल की बहुएं इस बात को नहीं समझेंगी क्योंकि रूपयों की चकाचौंध में वे अंधी हो चुकी हैं। आज भावनाओं का उनके लिए कोई मोल नहीं है। उनकी संवेदनाएं तो मर चुकी हैं। उन्हें आज अपनी पहचान बनाने की चिंता ज्यादा है, एक ऐसी पहचान जो उन्हें अजनबी बना रही है। आज का सच देखते हुए अब इस परंपरा को बेमानी मानकर चलने में ही सुख शांति है क्योंकि इस निहायत छोटी सी बात को लेकर जब घरों में महाभारत की नौबत आने लगे, बहुएं पूरी तरह विद्रोहिणी होकर एलान करें कि जाओ, हम नहीं छूएंगी किसी के पैर, तो अपनी इज्जत अपने हाथ है।