विश्व की सुन्दरतम् झील पेगांग शू-लेह

हमारे देश के पर्यटन स्थलों में कश्मीर जितना प्रसिद्ध है, लद्दाख उतना ही अनजान और रहस्यमय है। लद्दाख सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध में सबसे पहले चर्चित हुआ था। लद्दाख के दो मुख्य जिले हैं कारगिल और लेह। यह जम्मू-कश्मीर राज्य में स्थित हैं।


 लेह अपनी खूबसूरती के कारण पर्यटकों के लिए धरती का स्वर्ग है। यह धार्मिक व्यक्तियों के लिए आध्यात्मिक शक्ति का केन्द्र एवं जिज्ञासु व्यक्तियों के लिए ‘अपार संभावनाओंÓ का  केन्द्र हैं। भारत-चीन तथा पाक  सीमा स्थल पर होने के कारण यह क्षेत्र अत्यधिक संवेदनशील है। लेह पहुंचने के दो सड़क मार्ग हैं, जो जून से अक्टूबर केवल पांच माह ही खुले रहते हैं। जम्मू-श्रीनगर-लेह राजमार्ग भारत की सामरिक महत्व की  सड़क है जो 625 कि.मी. लम्बी है। जम्मू से श्रीनगर फिर सोनमर्ग, द्रास, मश्कोह, बटालिक, कारगिल, लामायुरू, निम्मू एवं लेह इस राजमार्ग के आसपास स्थित है । इस मार्ग से यात्रा करना अपने आप में अनोखा अनुभव है। नागिन के समान बल खाती सड़क, दोनों ओर खाई, बर्फीले पर्वत, जोजिलादर्रा, कारगिल, सुरूवेली सब इतने आकर्षक हैं कि  ऐसा लगता है मानो स्वर्ग में आ गये हों। दूसरा मार्ग मनाली से लेह तक 273 कि.मी. लम्बा है। यह मार्ग भी चार माह खुला रहता है। रास्ते में रोहतांग और ताकलांगला दर्रा आता है। सरचू, कारू होते हुए लेह जाने वाला यह मार्ग सचमुच सुन्दरता और आनन्द का जीता-जागता उदाहरण है।


लेह पहुंचने के लिए इन मार्गों से तीन दिन का समय लगता हैं। रास्ते में दो रात्रि विश्राम करना होता है। हवाई यात्रा सुगम है। पर वह मौसम की मर्जी पर निर्भर है। चंडीगढ़ से सप्ताह में एक दिन, जम्मू से दो दिन एवं दिल्ली से सप्ताह में पांच दिन उड़ान सेवा उपलब्ध हैं इंडियन एयर लाइन्स की उड़ानों की इस क्षेत्र में दयनीय स्थिति है। विलम्ब, आरक्षण न मिलना, सूचना ठीक-ठीक न मिलना, उड़ान रद्द हो जाना इत्यादि सामान्य बातें हैं। अत: यात्रा के पूर्व आरक्षण करके चलें तो अधिक उचित होगा। लद्दाख बौद्ध लामाओं की साधना-स्थली हैं। यहां पर्वतों पर वर्षभर वर्षा होती है और मैदानी भाग रेगिस्तान है। यहां का सौन्दर्य, रहस्य, धर्म और अद्भुत शांति पर्यटकों को आकषर््िात कर लेती हैं। लेह के समीप का सुन्दर क्षेत्र ‘इण्डसवेलीÓ  के नाम से विख्यात है। लद्दाख के अनेक परम्परागत उत्सव हैं, जिन्हें देखने बहुत से विदेशी पर्यटक भी आते हैं।


इस झील की सुन्दरता, दिव्यता तथा आध्यात्मिक शांति प्रदान करने की क्षमता का शाब्दिक विवरण संभव नहीं है। प्रत्यक्ष साक्षात्कार से ही मस्तिष्क में स्मृति तथा हृदय में अनुभूति से इसे जाना जा सकता है। जब इस झील के पानी से सूर्य की किरणों का स्पर्श होता है तो प्रकृति के सातों रंगों की अदï्भुत छटा निखर कर सामने आती है। जब तापमान शून्य  से नीचे चला जाता है तो झील जमकर बर्फ की चादर बन जाती हैं। जमने पर इस झील पर वाहन चलाए जा सकते हैं।


‘पेगांग शूÓ का स्थानीय नाम ‘लुकुमÓ  भी है। यह झील लेह से 150 कि.मी. दूरी पर स्थित है। यात्रा बहुत कठिन, रोमांचक तथा खतरों से भरी है। पहले यह क्षेत्र सामरिक महत्व का होने के कारण पर्यटकों के लिए निषिद्ध था। लेकिन अब यहां पर्यटक, स्थानीय नागरिक प्रशासन से अनुमति लेकर जा सकते हैं। लुकुम या पेगांग शू जाने के लिए जीप सबसे उत्तम साधन है। कुछ साहसी स्थानीय युवक मोटरसायकलों से जाते हैं। लेह से मनाली मार्ग पर सबसे पहले कारू जाना होता है, दूरी 30 कि.मी. हैं। इसी मार्ग पर विश्व प्रसिद्ध गोम्पा-शे, थिकसे व हेमिस पड़ते हैं जो बौद्ध आध्यात्मिक साधना के केन्द्र हैं। कारू से एक रास्ता, मनाली दूसरा हेमिस तथा तीसरा पेगांग शू जाता है। इस रास्ते पर सबसे पहले चेमरी गांव आता है। इसके बाद वीरान व बर्फ से ढ़की पहाडिय़ों का सिलसिला आरंभ हो जाता है। चांगलादर्रा इस मार्ग का मुख्य आकर्षण है। 18000 फीट की ऊंचाई, तेज व तीखी सर्दी, वर्ष भर जमी रहने वाली बर्फ आपका आत्मीय स्वागत करती है। इसके बाद आगे रेतीला रेगिस्तानी सिलसिला आंरभ होता है जो टंगसे तक चलता हैं। यह एक मुख्य गांव है। टंगसे से पेगांग का सफर फिर रोमांचक और प्रकृति को निकट से जानने का सिलसिला है। बिल्कुल जनशून्य। लेकिन सबसे बड़ी खासियत यह है कि लेह से टंगसे तक अच्छी व पक्की सड़क है। 1998 तक टंगसे के बाद कच्चा मार्ग था करीब 25 कि.मी. का । लेकिन अब वहां भी सड़क हिमांक परियोजना के तहत सेना ने बना दी है। सड़क समाप्त होते ही सामने पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य 130 कि.मी. लम्बी प्राकृतिक झील है  जो  एक तिहाई भारत के व शेष चीन के कब्जे में है। 14,400 फीट ऊंचाई पर पर्वतों की गोद में स्थित इसी झील का नाम है

 ‘पेगांगÓ।
‘पेगांगÓ  की गहराई कुछ स्थानों पर 100 फीट है लेकिन उसका पानी इतना साफ है कि, तल की जमीन को भी देखा जा सकता है। स्वच्छ जल होने के बाद भी यह पीने योग्य नहीं होता तथा ठंडा इतना कि इसमें नहाना संभव नहीं है। इसके पानी से चार-पांच मर्तबा कपड़े धोने से वे नष्ट होने लगते हैं। इस झील का पानी दूर से गहरी नीली आभा देता है।


इस पर सेना की तरफ से बोटिंग की सुविधा है। मौसम के मिजाज बदलते यहां देर नहीं लगती। कभी धूप तो कभी तेज आंधी, कभी सामान्य तापमान तो कभी शून्य से 30 डिग्री नीचे तक कंपकंपा देने वाली सर्दी। मैंने पेगांग को हर मौसम व हर अंदाज में देखा है। जब-तब अवसर मिलता है, इसका साक्षात्कार मेरी प्राथमिकता होती है। सबसे आदर्श समय जुलाई से अक्टूबर का होता है। फिर भी इसे कभी भी देखा जा सकता है। सड़क सामरिक महत्व की हैं, अत: बहुत कम अवसरों पर आवागमन बंद होता है।


पेगांग शू जाने वाले यात्रियों का स्वास्थ्य उत्तम होना चाहिए। 30 डिग्री तक के तापमान का वेरिएशन सहन करने की क्षमता होनी चाहिए। रक्तचाप,हृदयरोग व अस्थमा के रोगी न जाएं। जीप में लम्बे व घुमावदार रास्तों पर सफर करने का अनुभव तथा पर्याप्त गर्म कपड़े जरूरी हैं। पेगांग शू में रुकने के नाम पर सेना का एक गेस्ट रूम है, अत: लेह से यात्रा प्रात: जल्दी आंरभ कर, उसी दिन वापसी सबसे उत्तम है। लेह मे स्थानीय प्रशासन से अनुमति अवश्य लें तथा जीप चालक के पास हिल्स ड्रायविंग लाइसेंस व अनुभव अवश्य हो, यह सुनिश्चित कर लें।


‘पेगांग शूÓ  का स्मरण आते ही मुझे एक लद्दाखी लोकगीत की स्मृति ताजा हो जाती है, जिसका हिन्दी अनुवाद इस तरह है- ओ बर्फ पर रहने वाले, स्क्रचें पहाड़ों के देवता। चंदनी रात में जब तुम नीचे देखते तो, क्या तुम्हें नहीं  लगता कि एक स्वर्ग का नजारा इधर भी हैं।