ब्राह्मण आदि वर्णों की परंपरा में सभी वर्णों के असंख्य लोग भगवान शिव के भक्त हुए। सनकादि चार मानस पुत्रों के पश्चात ब्रह्मा जी, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष और नारद मुख्य रूप से सभी भगवान विष्णु के भक्त थे। इनमें भृगु और दक्ष ने शिवजी से द्रोह किया जिसका दोनों को अनिष्ट परिणाम भोगना और स्वीकार करना पड़ा कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश, तीनों देवों में भेद दृष्टि रखना हितकर नहीं है।
भृगु जो पहले भगवान विष्णु, शिव के विरोधी थे, उन भृगु की पत्नी दिव्या (राक्षसराज हिरण्यकश्यप की पुत्रा) से शुक्राचार्य उत्पन्न हुए थे। शुक्राचार्य के नाना हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु को अपना परम शत्रा मानते थे। शुक्राचार्य में अपने मामा पक्ष का यह प्रभाव आया और वे विष्णु के शत्रा तो नहीं हुए परंतु शिव भक्त और विष्णु तथा देवताओं के विरोधी दैत्य-दानवों के गुरू हुए। शुक्राचार्य स्वयं भी भगवान शिव के परम भक्त थे।
एक बार देवताओं के साथ युद्ध में शुक्राचार्य के दैत्य-दानवों शिष्यों की बहुत बड़ी पराजय हुई। इस युद्ध में दैत्य-दानवों को भारी धन-जन की हानि हुई। इससे शुक्राचार्य बहुत दुखी हुए। वे देवताओें को हराने की प्रतिज्ञा करके भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु अर्बुद पर्वत (वर्तमान में अरावली पर्वत) पर तप करने गए। वहां उन्होंने भूमि के अंदर एक गुफा में प्रवेश किया। उस गुफा में उन्होंने वैदिक विधान से शिवलिंग की स्थापना की।
अब वे प्रतिदिन भक्तिभाव पूर्वक शिवलिंग का षोडशोपचार पूजन और रूद्राभिषेक करते। उन्होंने इसी प्रकार पूर्ण मनोयोग पूर्वक निराहार रहकर एक हजार वर्ष तक दारूण तप किया। उनके तप और भक्ति के प्रभाव से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन देकर कहा, ’हे द्विजोत्तम, मैं तुम्हारी आराधना से परम संतुष्ट हूं। तुम जो भी चाहते हो, वह वरदान मुझसे मांग लो।
शुक्राचार्य ने करबद्ध उनकी प्रार्थना की और कहा,’हे महेश्वर, यदि आप मुझसे संतुष्ट हैं, तो मुझे वह विद्या दीजिए जिसके प्रभाव से युद्ध में मारे गए जीव जीवित हो जावें।
भगवान शंकर ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें मरे प्राणी को जीवित करने की शक्तिशाली संजीवनी विद्या प्रदान की। फिर शिवजी ने कहा, तुम और कुछ मांगना चाहते हो, तो वह भी मांग सकते हो।
शुक्राचार्य ने कहा, भगवन आपका यह शिवलिंग शुक्रेश्वर शिवलिंग कहा जाए एवं कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को जो भक्त इस शुक्रेश्वर का पूजन व अभिषेक करे, उसे कभी अकाल मृत्यु का भय न रहे।
भगवान शिव’ तथास्तु’ कहकर कैलाश पर्वत की ओर चले गए। इसके पश्चात जब भी देवों और दैत्यों में युद्ध होता था, तब शुक्राचार्य संजीवनी विद्या की शक्ति से दैत्य पक्ष में मारे गए वीरों और पशुओं को जीवित कर देते थे। इससे देवताओं से दैत्य पराजित नहीं होते थे। वे देवताओं को पराजित कर देते थे। शुक्रेश्वर शिवलिंग की पूजा-अर्चना से भक्तों का सभी प्रकार कल्याण होता है और अंत में वह शिव को प्राप्त करता है।