नयी दिल्ली, 21 नवंबर (भाषा) रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बृहस्पतिवार को लाओस में क्षेत्रीय सुरक्षा सम्मेलन में कहा कि दुनिया को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के समक्ष जारी संघर्षों और चुनौतियों का समाधान खोजने के लिए बौद्ध सिद्धांतों को अपनाना चाहिए।
भारत ने जटिल अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के समाधान के लिए हमेशा से संवाद की वकालत की है तथा सीमा विवादों से लेकर व्यापार समझौतों तक, अंतराष्ट्रीय चुनौतियों की एक विस्तृत श्रृंखला को लेकर अपना दृष्टिकोण जाहिर किया है।
रक्षा मंत्री ने लाओस की राजधानी विएंतियान में दक्षिण पूर्वी एशियाई 10 देशों के संगठन आसियान समूह और उसके कुछ वार्ता साझेदारों के सम्मेलन में ये टिप्पणी की।
उन्होंने कहा, ‘‘विश्व तेजी से गुटों और शिविरों में विभाजित होता जा रहा है, जिससे स्थापित विश्व व्यवस्था पर दबाव बढ़ रहा है। इसलिए समय आ गया है कि शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के बौद्ध सिद्धांतों को सभी लोग और अधिक गहराई से अपनाएं।’’
उन्होंने कहा, ‘‘इन सिद्धांतों का पालन करते हुए भारत ने जटिल अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के समाधान के लिए सदैव बातचीत की वकालत की है और इसे अपनाया भी है।’’
चीन के डोंग जून सहित कई देशों के अपने समकक्षों की उपस्थिति में रक्षा मंत्री सिंह ने कहा कि खुले संवाद और शांतिपूर्ण वार्ता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता, सीमा विवादों सहित कई अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों के प्रति उसके दृष्टिकोण से स्पष्ट होती है।
उन्होंने कहा, ‘‘खुली बातचीत विश्वास, समझ और सहयोग को बढ़ावा देती है तथा स्थायी साझेदारी की नींव रखती है। बातचीत की ताकत हमेशा प्रभावी साबित हुई है, जिसके ठोस परिणाम सामने आए हैं जो वैश्विक मंच पर स्थिरता और सद्भाव में योगदान करते हैं।’’
हिंद-प्रशांत क्षेत्र की स्थिति पर सिंह ने कहा कि भारत नौवहन और उड़ान की स्वतंत्रता, बेरोकटोक वैध वाणिज्य और अंतरराष्ट्रीय कानून के पालन का पक्षधर रहा है।
उन्होंने कहा, ‘‘दक्षिण चीन सागर के लिए आचार संहिता पर जारी चर्चाओं के संबंध में भारत एक ऐसी संहिता देखना चाहेगा, जिससे उन देशों के वैध अधिकारों और हितों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े, जो इन चर्चाओं में पक्षकार नहीं हैं।’’
दक्षिण चीन सागर के लिए आचार संहिता पर उनकी टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब क्षेत्र में चीन की बढ़ती सैन्य ताकत की पृष्ठभूमि में विभिन्न देश इस संबंध में आचार संहिता की आवश्यकता पर जोर दे रहे हैं।
उन्होंने कहा, ‘‘यह संहिता अंतराष्ट्रीय कानून विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून 1982 के बिल्कुल अनुरूप होनी चाहिए।’’