डायबिटीज ग्रस्त रोगियों की संख्या के मामले में भारत विश्व में सिरमौर बनकर इसकी राजधानी बनने पर तुला हुआ है। इसके रोगियों की संख्या दिन-प्रतिदिन यहां बढ़ती जा रही है। बड़ी संख्या में यहां की महिलाएं भी डायबिटीज ग्रस्त हैं।
डायबिटीज ग्रस्त महिलाओं का मां बनना, मातृत्व सुख पाना एवं गर्भवती होना जोखिम भरा होता है। इससे ग्रस्त गर्भवती महिला एवं गर्भस्थ शिशु को पूरी अवधि भर विविध जटिलताओं से जूझना पड़ता है। फिर भी आधुनिक चिकित्सा जगत में इसका निदान है।
गर्भवती की परेशानी
डायबिटीज ग्रस्त गर्भवती को भूख व प्यास अधिक लगती है। उस पर चिड़चिड़ापन हावी हो जाता है। मूत्रा की मात्रा बढ़ जाती है। जिस पर चीटिंयां आती हैं। घाव धीमी गति से ठीक होता है। यौनांगों में खुजली होती है। शरीर में कई प्रकार का परिवर्तन होता है। यह हार्मोनल परिवर्तन होता है जो मेटाबालिक अर्थात चयापचय क्रियाओं को प्रभावित करता है। प्रातः कमजोरी लगती है। यूरिनरी सिस्टम में संक्रमण होता है। अन्य शरीरांगों पर भी प्रभाव पड़ता है।
डायबिटीज के कारण
महिलाओं को यह वंशानुगत कारणों के अलावा मोटापा, मानसिक तनाव, उच्च रक्तचाप, एवं विलासी जीवन आदि कारणों से होता है।
गर्भवती एवं गर्भस्थ शिशु पर यह प्रभाव
यदि डायबिटीज पीड़ित महिला गर्भवती होती है तो उसकी अधिकता एवं अनियंत्रित होने का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है। सामान्य शिशुओं के आकार व वजन की तुलना में उसका वजन बढ़ जाता है, अथवा शिशु अल्प विकसित रह जाता है। उसकी गर्भ में मौत के अलावा बार-बार गर्भपात की संभावना या समय पूर्व प्रसव की संभावना बढ़ जाती हैं, वहीं गर्भस्थ शिशु जन्मजात विकृतियों वाला हो सकता है।
गर्भवती का शरीर खानपान में मौजूद शर्करा का उपयोग नहीं कर पाता इसलिए जो ज्यादा मात्रा में शर्करा है वह रक्त में ग्लूकोज के रूप में जमा होती है, वह मात्रा अधिक बढ़ जाने पर मूत्रा के माध्यम से निकलती रहती है। इसका प्रभाव गर्भ के शिशु की चयापचय क्रियाओं पर पड़ता है।
माता के शरीर का अतिरिक्त ग्लूकोज गर्भस्थ शिशु तक पहुंच कर उसके शरीरांग, ह्नदय, किडनी, लिवर व मांसपेशियों को प्रभावित करता है। परिणामतः शिशु गोल मटोल, छोटी गर्दन वाला तथा लंबे बालों वाला पैदा हो सकता है जिसका वजन व आकार बढ़ सकता है। ऐसी स्थिति में उसके विकास में कमी रह जाती है। शारीरिक विषमता के साथ उसकी समय पूर्व प्रसव क्रिया शुरू हो जाती है।
मुश्किलें व बचाव
एक तरफ डायबिटीज ग्रस्त गर्भवती महिला मुश्किलों से जूझती रहती है तो दूसरी तरफ उसका बचाव भी संभव रहता है। गर्भ के भीतर बच्चा झिल्ली में अधिक मात्रा में तरल पदार्थ से घिरा रहता है। वह मृत्यु की चपेट में आ सकता है। प्रथम तीन माह दोनों के लिए कठिनाइयों से भरे रहते हैं। आगे पांचवें, छठवें, सातवें माह में उसकी परेशानी कम होती है किन्तु नौवां महीना खतरों से भरा होता है।
प्रथम तीन माह व नौवें माह के अंतिम दो सप्ताह लगातार चिकित्सक से जांच कराने एवं पूरी अवधि शुगर को नियंत्रित रखने पर सभी जटिलताओं, परेशानियों व कमियों से बचा जा सकता है। मधुमेही गर्भवती महिला को पूरी अवधि चिकित्सक के संपर्क में रहना चाहिए।