अखंड सुहाग व पारस्परिक प्रेम का प्रतीक : करवाचौथ

पुराणों में करक चतुर्थी नाम से जानी जाने वाली कार्तिक कृष्णा-चतुर्थी का लोक प्रचलित नाम ही ‘करवा चौथ’ है। इस पर्व में अतीत की प्राचीन संस्कृति और परंपराएं तथा उज्जवल भविष्य की आकाक्षाएं भरी रहती हैं। महिलाओं में प्रति वर्ष इस त्यौहार के प्रति उत्सुकता बनी रहती हैं। चाहे वे जीवन के किसी भी क्षेत्रा में कार्यरत हों, वे अपनी प्राचीन परंपराओं के प्रति पूरी तरह सजग रह कर श्रद्धा पूर्वक यह त्यौहार मनाती हैं।
‘करवाचौथ’ सुहाग की मंगल कामना से जुड़ा एक सर्वाधिक लोकप्रिय पर्व है जिसका इतंजार हर विवाहित स्त्रा को बड़ी बेसब्री से रहता है क्यांकि इस दिन औरतें व्रत रखकर अपने पति व सुहाग की दीर्घायु व सर्व संपन्नता की कामनाएं करती हैं। यह व्रत न केवल सुहागिनें ही रखती हैं अपितु कुँआरी विवाह योग्य कन्याएं भी रखती हैं। नवविवाहिताओं से लेकर ढलती उम्र तक की स्त्रियां यह व्रत रखती हैं।
करवाचौथ के दिन सुबह सुहागिनें मांग में सिन्दूर, माथे पर बिंदिया व हाथों में रंग-बिरंगी चूड़ियां व आभूषणों के साथ-साथ तड़क-भड़क वाले रंग-रंगीले परिधानों को धारण करती हैं। वे आज के दिन यह व्रत भी लेती हैं कि वे अपने पति परमेश्वर के प्रति पूरी निष्ठा, त्याग, मन, वचन से उसको अपना सर्वस्व अर्पण करती हैं। इस व्रत की महत्ती विशेषता यह है कि सजी-धजी औरतें शाम को चन्द्रमा देख उसे अर्ध्य चढ़ाकर व पूजा-अर्चना के बाद ही अन्न ग्रहण करती हैं। वे आज के दिन एक बूंद भी पानी नहीं पीती। यह त्यौहार न केवल भारत में बसी स्त्रियाँ ही करती हैं बल्कि विदेशों में रह रही हिंदू स्त्रियां भी इसे पूरी श्रद्धा के साथ मनाती हैं।
करवे की संध्या बेला में महिलाओं के सौंदर्य से समूचा वातावरण महकने लगता है, वे बड़ी तन्मयता के साथ चन्द्रोदय का इतंजार करती हैं। इससे पहले वे विधि-विधान के अनुसार ‘करवाचौथ’ पर्व से जुड़ी अनेकानेक कथाओं में से किसी एक बहुप्रचलित कथा को सुनती हैं तथा एक चौकी पर पानी का लोटा, बयाने हेतु करवा में गेंहू या चावल, पैसा, रोली, गुड़, इत्यादि रखकर लोटे व करवे पर संतिया बनाकर 13-13-टीकियां लगाती हैं व हाथ में तेरह दाने लेकर कथा सुनती हैं। कथा सुनने के पश्चात् बयान निकाल कर सास के चरण छूकर उन्हें देती हैं व गेहूं तथा पैसा कथा सुनाने वाली कन्या को देती हैं व इसके बाद पके अन्न, अक्षत व दूध भरकर 10 करवे एवं प्रसाद ब्राह्मणों में बांट देना चाहिए।
जैसे ही चांद दिखाई देता है, बच्चों व पति के मन उमंग से भर जाते हैं। पत्नियां छलनी में चांद को देख उसे अर्ध्य देकर पूजा करने के बाद अपने पति के पांव छूती हैं तथा चन्द्रमा को चढ़ाए गये प्रसाद को पूरे परिवार में बांट देती हैं।
‘करवाचौथ’ व्रत से पति-पत्नी के मध्य जहां विश्वास, प्रेम व श्रद्धा की डोर मजबूत होती है, वहीं समर्पण की भावना को भी बल मिलता है। इस दिन आपसी मनमुटाव दूर होता है व एक नये संकल्प के साथ जीने का प्रण स्त्रा-पुरूष परस्पर लेते हैं।
बदले परिवेश में जब आज भी स्त्रियां इस व्रत को पूरी निष्ठा से करती हैं तो ऐसा नहीं लगता है कि यह पर्व किसी जाति अथवा वर्ग विशेष से संबंधित हो। निश्चय ही ऐसे पर्व हमारी बहुमूल्य संस्कृति व परंपराओं को समृद्ध बनाने में योगदान देते हैं। हालांकि इसके तौर-तरीके अवश्य बदले हैं, आधुनिकता की भी छाप पड़ी है किंतु केंद्रीय भावों में कोई अन्तर नहीं आया है।
‘करवा चौथ’ के अवसर पर एक दिन पूर्व ही बाजारों में स्त्रियों की चहल-पहल बढ़ जाती है। वे प्रायः सजने-संवरने हेतु प्रसाधन सामग्री की खरीदारी में व्यस्त हो जाती हैं। साथ ही नये वस्त्रों को धारण करने की ललक मन में लिये रहती हैं जो उनके पति बिना किसी झिझक व संकोच किये पूरी कर देते हैं। ‘करवा चौथ’ के दिन विशेष प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं।
वैसे देखा जाये तो अखण्ड सौभाग्य की इच्छा के व्रत के रूप में यह पति-पत्नी का विशुद्ध प्रेम व्रत है ही लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि यह पर्व संबंधों में भी प्रेम प्रगाढ़ता को बढ़ावा ही देता है। इस दिन सास, जेठानी या घर के अन्य सदस्यों के प्रति भी कोई मनमुटाव रहता है तो उसकी कालिमा भी व्रत के प्रकाश में धुल जाती है। सामीप्य तो बढ़ता ही है, साथ ही स्नेह की जो अविरल धारा पूरे परिवार में बहने लगती है, उससे सभी भावविभोर हो जाते हैं व पति के मन में भी अपनी पत्नी के प्रति अनन्य प्रेम उपजता है क्योंकि पत्नी और चाहती भी क्या है, अपने पति से प्रेम-प्यार और सहानुभूति के अलावा और कुछ भी तो नहीं …..।