परंपरा द्वारा निर्धारित मान्यताओं का पालन हर भारतीय का कर्तव्य

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अशोक ‘प्रवृद्ध’

वैदिक, पौराणिक व लौकिक मान्यतानुसार वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वालों, परमात्मा और जीवात्मा के अस्तित्व पर विश्वास करने वालों, कर्म फल और पूर्व जन्म को स्वीकार करने वालों, मानव के लिए निर्धारित दस धर्म पर आचरण करने वालों को हिन्दू की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। भारत में रहने वाले और इन विचारों को मानने वालों को हिन्दू नाम विगत लगभग दो सहस्त्र वर्ष से चला आ रहा है। इससे पूर्व हिन्दू को भारतीय, आर्य अथवा वेदानुयायी कहा जाता था, किन्तु नाम बदल जाने से अस्तित्व का आधार तो नहीं बदल सकता।

गुजरात के राजकोट जिला के मोरबी के पास स्थित काठियावाड़ क्षेत्र में पिता -करशनलाल जी तिवारी और माता अमृता (अम्बा) बाई के घर में 12 फरवरी 1824 को उत्पन्न बालक का जन्म राशि और मूल नक्षत्र में होने के कारण  ना मूलशंकर रखा गया, लेकिन कालांतर में उनको स्वामी दयानन्द सरस्वती के नाम से जाना जाने लगा। गुजरात के ही पोरबंदर गांव में 2 अक्टूबर 1869 को पिता – करमचंद गाँधी तथा माता -पुतलीबाई के घर  जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी को कालांतर में महात्मा और बाद में राष्ट्रपिता के नाम से संबोधित किया जाने लगा, किन्तु मूल व्यक्ति तो मूलशंकर और मोहनदास करमचंद गांधी ही थे। नाम बदल जाने पर भी इनके अस्तित्व का आधार तो नहीं बदला। व्यक्ति तो वही थे।

इसी प्रकार वेद मतानुयायी, भारतीय और हिन्दू समानार्थी शब्द हैं। भारतीय और हिन्दू नाम तो स्थान के उद्बोधक हैं। तदपि वेद के साथ इन नामों का अटूट संबंध होने के कारण यह तीनों नाम समानार्थक ही समझे जाते हैं। भारतीय परंपरा में प्रत्येक हिन्दू के नामकरण संस्कार के अवसर पर वेदमंत्रों का उच्चारण किया जाता है। फिर भी कुछ भ्रमग्रस्त जन वेद को भारतीय और हिन्दू से पृथक अर्थ वाला मानते हैं, किन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है। उसका कारण यह है कि भारतवर्ष में रहने वाले और हिन्दू नाम से जाने वाले लोगों में मूल रूप में वेद ही जीवन का विधि विधान बताने वाले हैं।

 

इस दृष्टि से हिन्दू समाज में उन सबकी गणना की जा सकती है, जो इन सब अथवा इनमें से किसी एक साधन द्वारा अपने जीवन में प्रेरणा प्राप्त करता है। वेद मंत्रों द्वारा ऋषियों ने जीवन -यापन की विधि बखान की है। वेदोक्त ऋत ब्रह्म सूत्र के मंत्रों में वर्णित बातें सब एक ही परिणाम पर पहुंचने वाली होती हैं। वह परिणाम है- वेद, भारतीय और हिन्दू। आर्य का अर्थ है- श्रेष्ठ। मानवता एक जीवन विधि है और उसमें भी श्रेष्ठ विधि आर्य है। इससे सिद्ध होता है कि आर्य तो विशेषण मात्र है। आर्य भारतीय अथवा आर्य हिन्दू कहा जा सकता है। आर्य न होते हुए भी अर्थात मानवता उत्कृष्ट न होते हुए भी भारतीय और हिन्दू हो सकता है। आर्य होने से श्रेष्ठ भारतीय अथवा श्रेष्ठ हिन्दू का अभिप्राय लिया जाएगा। कोई व्यक्ति मानता है कि मानव के दस धर्म के अंतर्गत धैर्य रखना अथवा सत्य बोलना धर्म का लक्षण है, परंतु किसी कारणवश अथवा मानवीय दुर्बलता के कारण सत्य बोलने में त्रुटि रह जाती है और उसमें असत्य का मिश्रण हो जाता है, तब भी इस त्रुटि पूर्ण व्यवहार के होने पर भी यदि मानव मानता है कि सत्य बोलना धर्म है। धैर्य धारण करना धर्म है। ऐसे व्यक्ति के व्यवहार को दोष युक्त मानते हुए भी जब तक वह अपनी मान्यताओं में इन कर्मों को अपना धर्म मानता है, और उन पर आचरण के लिए प्रयत्नशील रहता है, उसे हिन्दू, भारतीय अथवा वेदानुयायी ही माना जाएगा।

इसका मुख्य कारण यह है कि जीवन परिपूर्ण नहीं है। इसमें अपूर्णता रह जाती है। जब तक मनुष्य का मुख हिन्दू  मान्यताओं की ओर है। अर्थात वह उन मान्यताओं के पालन का यत्न करता रहता है, तब तक वह हिन्दू ही है। स्पष्ट है कि जब तक हिन्दू का मुख अपनी मान्यताओं की ओर है, वह अपनी पूर्णता की ओर अग्रसर है। यह दूसरी बात है कि कोई दस पग आगे बढ़ा हुआ हो सकता है और कोई दस पग पिछड़ा हुआ। यद्यपि इसकी त्रुटि क्षम्य नहीं मानी जा सकती, किन्तु वह त्रुटि उसको हिन्दू होने से वंचित नहीं कर सकती। मनुष्य यद्यपि अपूर्ण है, तदपि वह पूर्णता की ओर पग बढ़ा रहा है। जब तक वह उचित दिशा में चल रहा है अर्थात वेद धर्म का पालन कर रहा है वह हिन्दू ही है। वह कितना आगे अथवा कितना पीछे है, यह प्रश्न उसके हिन्दू होने से सर्वथा पृथक है। आर्य उसको कहा जा सकता है, जो अपनी मान्यताओं में दक्ष है, अर्थात जो अपने कर्मों का अधिक श्रेष्ठता से पालन करता है।

विभिन्न देशों की कुछ विशेषताएं होती हैं। उन्हें परंपराएं कहा जाता है। इस दृष्टि से जो आदिकाल से भारतवर्ष में रहते आए हैं, उनकी भी कुछ परंपराएं हैं। परंपराएं भी दो प्रकार की होती है। एक वे हैं, जिनका संबंध व्यवहार से है और दूसरी परंपराएं वे हैं, जिनका संबंध मान्यताओं के साथ है। व्यवहार मान्यताओं के अनुकूल होना चाहिए किन्तु वह शत प्रतिशत मान्यताओं के आधार पर हो यह आवश्यक नहीं है। उसका कारण भी यह है कि मनुष्य की अपूर्णता के कारण यह संभव है, तदपि जब तक मनुष्य के सम्मुख मान्यताओं की बात है और वह पूर्णता की ओर अग्रसर है तब तक उसको उन मान्यताओं का पालक ही माना जाएगा और उन्हीं मान्यताओं के पोषक को ही भारत देश में रहने का अधिकार है। इस देश के वासी उसको होटल जैसा अस्थाई निवास अथवा प्रजनन की सुविधा जैसी कोई अस्पताल नहीं मानते। यही कारण है कि देश का संबंध जन्म अथवा निवास से संबंधित न होकर मान्यताओं से संबंधित है।

संसार भर के अन्य देशों के लोग क्या मानते हैं अथवा क्या नहीं, इससे हमारा कोई लेना- देना नहीं है। हमारे पड़ोसी पाकिस्तान में ही जो इस्लाम का समर्थक नहीं है, वह द्वितीय श्रेणी का नागरिक माना जाता है। इतना ही नहीं, कुछ देश तो ऐसे भी हैं, जहां यदि व्यक्ति सुन्नत न कराए तो उसको नागरिकता का अधिकार प्राप्त नहीं होता। कुछ ऐसे भी देश हैं, जो धन उपार्जन तथा उसके भोग पर किसी प्रकार की सीमा का निर्धारण करते हैं। ऐसे देश स्वयं को समाजवादी देश कहते हैं। फिर किसी अन्य देश में यही मानने की स्वीकृति है, जो वहां के शासक उचित समझते हैं। इसलिए अन्य देशों की मान्यताएं क्या है और क्या नहीं? इससे हमारा संबंध नहीं है। भारतीय परंपरा में भारत देश का नागरिक होने के लिए कुछ ऐसी मान्यताओं का पालन करना आवश्यक है, जो परंपरा द्वारा निर्धारित कर दी गई है। वह मान्यताएं अति प्राचीन काल से इस देश में प्रचलित हैं। न केवल इतना कि वे मान्यताएं प्राचीन काल से प्रचलित हैं, इसलिए माननीय है अपितु ये युक्ति युक्त हैं, इसलिए माननीय  हैं।