मर्यादाओं का पालन करने की बात जहाँ भी आती है, वहीं अयोध्या के राजा श्रीराम स्वत: स्मरण हो जाते हैं। पूरा संसार उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से जानता है, क्योंकि उन्होंने मर्यादाओं का सदैव ध्यान रखा, उनका पालन किया, चाहे कितनी भी विषम स्थिति आई, मर्यादाओं का पालन करने में वे कभी चूके नहीं और मर्यादाओं का घोर उल्लंघन करने वाले दशानन रावण से भी युद्ध किया और उसे पराजित करके मर्यादाओं की पुन: स्थापना की।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार- भगवान श्रीराम चंद्रमा के समान अति सुंदर, समुद्र के समान गंभीर और पृथ्वी के समान अत्यंत धैर्यवान थे और इतने शील संपन्न थे कि दु:खों के आगोश में जीने के बावजूद वे कभी किसी को कटु वचन नहीं बोलते थे। वे अपने माता-पिता, गुरुजनों, भाइयों, सेवकों, प्रजाजनों अर्थात् हर किसी के प्रति अपने स्नेहपूर्ण दायित्वों का निर्वाह किया करते थे। माता-पिता के प्रति कत्र्तव्यपालन एवं आज्ञापालन की भावना तो उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी। उनकी कठोर से कठोर आज्ञा का पालन करने के लिए वे हर समय तत्पर रहते थे। यदि भगवान श्रीराम के संपूर्ण जीवन पर दृष्टि डाली जाए तो उसमें कहीं भी अपूर्णता दृष्टिगोचर नहीं होती, क्योंकि उनके जीवन में जिस क्षण जिस कार्य को करना चाहिए था, उन्होंने वैसा ही कार्य किया। श्रीराम, रीति, नीति, प्रीति तथा भीति सभी के संपूर्ण ज्ञाता व मर्मज्ञ थे। इसी कारण श्रीराम परिपूर्ण हैं और आदर्श हैं। श्रीराम ने अपने जीवन में नियमों का पालन करके, त्याग करके एक आदर्श स्थापित किया।
भगवान श्रीराम का जीवन वास्तव में त्यागमय जीवन था। श्रीराम सबका आदर करते थे, इसलिए वे महान कहलाए। जो संग्रही है, अपनी ही प्रतिष्ठा चाहता है, अपनी ही बात रखना चाहता है, वह कृपण है। लेकिन भगवान श्रीराम जो भी करते थे, दूसरों के लिए करते थे, उनके कारण किसी को क्लेश न हो, इसका वे सदैव ध्यान रखते थे। रामायण में भगवान श्रीराम के दो रूप हैं- पहला परब्रह्म रूप और दूसरा पुरुषोत्तम रूप। भगवान श्रीराम का परब्रह्म रूप तो मन-वाणी से अगोचर है, उसके विषय में तो वेदों ने भी नेति-नेति कहा है। उसका अनुभव तो योगीजन समाधि में करते हैं, वह विचार का विषय नहीं, अनुभव का विषय है।
विचारणीय विषय तो उनका पुरुषोत्तम रुप है। मनुष्य रूप धारण करके उन्होंने जो लीलाएं कीं, वे मनुष्य चरित्र का सर्वोत्तम आदर्श हैं। श्रीराम अपने भाइयों में बड़े थे, अत: छोटों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसका आदर्श उन्होंने बाल्यकाल से ही प्रस्तुत किया। भरत जी जब भी खेल में हारने लगते, तब श्रीराम कुछ ऐसा करते, जिससे भरत जीत जाते और वे स्वयं प्रसन्न होते।
भगवान श्रीराम ने सदैव गुरुजनों व माता-पिता की आज्ञा का दृढ़ता के साथ पालन किया। पिता की आज्ञा से ही वे महर्षि विश्वामित्र के साथ पहली बार वन गए, वहां राक्षसी ताड़का का वध किया। ऋषियों की हड्डियों का ढेर देखकर द्रवित हो उठे और जब जाना कि यह कार्य राक्षसों ने किया है तो तत्क्षण प्रण लिया कि मैं इस धरा को राक्षसों से हीन कर दूँगा।
युवराज श्रीराम के पराक्रम, साहस व वीरता से महर्षि विश्वामित्र अत्यंत प्रभावित हुए थे। उस समय श्रीराम व उनके छोटे भाई लक्ष्मण सुकुमार ही थे, लेकिन गुरु वशिष्ठ द्वारा दी गई शिक्षा-दीक्षा में वे अत्यंत प्रवीण थे। महर्षि विश्वामित्र ने भी उनकी पात्रता को परखकर व उन्हें अवतार जानकर उन्हें बला-अतिबला विद्या का ज्ञान दिया। वन में महर्षि के आश्रम में श्रीराम व लक्ष्मण ने उनके यज्ञों की रक्षा की और यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षसों का संहार किया। इसके बाद वे महर्षि विश्वामित्र के साथ जनकपुरी गए, जहां राम-सीता का विवाह हुआ।
विवाह उपरांत जब राजा दशरथ गुरु की आज्ञा से श्रीराम का राज्याभिषेक करना चाहते थे, तो पूरी अयोध्या नगरी खुशी से झूम उठी, लेकिन रात भर में ही ऐसा घटनाचक्र परिवर्तित हुआ कि जिसके कारण पिता के वचनों को पूरा करने के लिए उन्हें 14 वर्षों के लिए वनवास को जाना पड़ा। वनवास जाने की खबर सुनकर वे दु:खी नहीं हुए, बल्कि प्रसन्न हुए कि उन्हें वन में ऋषियों का सान्निध्य मिलेगा और उनके छोटे भाई भरत को राज्य मिलेगा। वन में श्रीराम के साथ उनकी भार्या सीता व अनुज लक्ष्मण भी गए। अपने राजसी वस्त्रों को त्यागकर, बिना किसी साधन-सामग्री के उन्होंने वन के लिए प्रस्थान किया। सबने उन्हें बहुत रोका, लेकिन वे नहीं माने।
श्रीराम के वन जाने के बाद पुत्र वियोग में राजा दशरथ के प्राण चले गए। पिता के प्राण त्यागने की खबर पाकर जब श्रीराम के छोटे भाई भरत व शत्रुघ्न अपने नाना के घर से आए और स्थिति को जाना तो अपने भाई को मनाने के लिए नंगे पैर वन की ओर गए, लेकिन श्रीराम नहीं लौटे। भरत श्रीराम से अत्यंत प्रेम करते थे। वे श्रीराम के परम भक्त थे। लेकिन जब श्रीराम नहीं माने, तो उनकी चरण पादुका लेकर वापस आए और उन्हें ही राज्य सिंहासन पर रख दिया और तपस्वी की तरह जीवन जीते हुए राज्य का कार्यभार संभालते रहे।
वन में प्रभु श्रीराम का सामना अनेक राक्षसों से हुआ, जिनका उन्होंने संहार किया। दैवी योजना के तहत वे वन में आए ही इसलिए थे कि वन में रहने वाले राक्षसों का संहार हो, लेकिन श्रीराम के जीवन में एक ऐसी भी घड़ी आई, जब राक्षसों के राजा दशानन रावण ने उनकी भार्या सीता का हरण कर लिया। तब सीता की खोज में उन्होंने वन में रहने वाले वानरों की सेना बनाई, ये कोई साधारण वानर नहीं, बल्कि देवताओं के अंशरूप थे, जो उनकी सहायता करने के लिए आए थे। वानरों की सहायता से श्रीराम ने रावण को पराजित किया, रावण के पूरे राक्षस वंश का सर्वनाश हुआ और सीता जी के साथ सकुशल वे अयोध्या नगरी आ गए और राजा बने।
भगवान श्रीराम ने अपने जीवन में तप को बहुत महत्व दिया। वन में रहते हुए उन्होंने तपस्वी जीवन को अंगीकार किया और राजा बनकर भी प्रजा के हितों के लिए एक तपस्वी की तरह कष्ट सहते रहे। वे पिता की भांति अपनी प्रजा का पालन करते थे, उनके राज्य में किसी को किसी भी प्रकार का दु:ख-कष्ट नहीं था, इसलिए उनके राज्य को रामराज्य कहा जाता है। रामराज्य का मतलब ही ऐसा राज्य जिसमें दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को भी नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। आज भी मनुष्य जाति भगवान श्रीराम को राजा राम के रूप में याद करती है, क्योंकि भगवान श्रीराम ने केवल अयोध्या में ही नहीं, बल्कि सभी के हृदयों पर राज किया था।
भगवान विष्णु के अंशावतार होते हुए भी उन्होंने मर्यादाओं की सीमा में रहकर अपना जीवन-निर्वाह किया और एक आदर्श जीवन दिया। उनके जीवन में अनगिनत कष्ट आए, लेकिन मर्यादाओं का पालन करने में वे कभी भी विचलित नहीं हुए। वे अत्यंत धैर्यवान, पराक्रमी, ज्ञानी, मधुरभाषी, सत्यभाषी, नीतिकुशल, साहसी आदि गुणों की खान थे। उनके गुणों की महिमा अनंत है, जिसका वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी अपने को असमर्थ पाते हैं। राम-नाम की महिमा व्यापक है। श्रीराम की भक्ति की महिमा का कोई पार नहीं है, जिससे रामभक्त हनुमान उनके चरणों की सेवा करके असंभव कार्य करते हैं।
हम भी भगवान श्रीराम की तरह आदर्श जीवनशैली का निर्वाह करें, मर्यादाओं का पालन करें, गुणों को धारण करें और श्रीराम नाम की भक्ति से अपने जीवन को सफल करें।