उज्जैन:जहां मदिरा की अखंड धार से होती है देवी की नगर पूजा*

शारदीय नवरात्रि की अष्टमी पर उज्जैन में एक अनूठी परम्परा का निर्वाह जिला कलेक्टर को करना होता है। यह परम्परा लगभग दो हजार वर्षों पुरानी है। आज़ादी के पहले तत्कालीन राजवंशों द्वारा इस परम्परा का श्रद्धा के साथ निर्वहन किया जाता रहा है। आज़ादी के बाद से जो भी जिला कलेक्टर रहे उन्होने इस परम्परा को पूरी श्रद्धा के साथ निभाया।
 
*कैसे होता है नगर पूजन*
 
जिला कलेक्टर द्वारा महाकाल मंदिर के निकट  स्थित चौबीस खंबा के बीच विराजित देवी महामाया और महालाया देवी का पूजन कर नगर पूजा उत्सव प्रारंभ किया जाता है। इस पूजन में प्रात:काल  देवियों को मदिरा का भोग लगाया जाता है। इस नगर पूजा में शहर के 40 देवी और भैरव मंदिरों तक मदिरा की धार डाली जाती है। पूरे रास्ते में घुघरी का भोग बिखेरा जाता है। हर देवी मंदिर पर श्रृंगार सामग्री चढ़ा कर पूजा की जाती है। भैरव मंदिरों में भी पूजा अर्पित होती है। मदिरा की धार के लिए आबकारी विभाग  40 लीटर मदिरा उपलब्ध करवाता है।
 
*नगर पूजन यात्रा*
 
चौबीस खंबा से शुरु हुई नगर पूजा यात्रा के दौरान तांबे के घड़े में मदिरा भर कर कोतवाल चलता है। घड़े की तली में एक छेद होता है,जिससे मदिरा की धार पूरे 27 किमी मार्ग तक बिखरती रहती है। जुलूस में ढोल के साथ ध्वज, प्रसाद, श्रृंगार सामग्री और पूजन सामग्री लेकर शासकीय कर्मचारी चलते है। मंदिर दर मंदिर पूजा करते हुए जुलूस दोपहर बारह बजे हरसिद्धि मंदिर पहुंचता है । जहां जिला कलेक्टर विधिविधान से देवी पूजा करते है और फिर शेष मंदिरों से होते हुए यात्रा  रात्रि 8 बजे अंकपात मार्ग स्थित हांडीफोड़ भैरव मंदिर पर समाप्त होती है, जहां बची हुई सभी सामग्री समर्पित कर उत्सव का समापन किया जाता है। देवी और भैरव के अलावा पुरुषोत्तम सागर के पास स्थित हनुमान मंदिर में भी पूजा की जाती है। इस पूजा के माध्यम से आद्य शक्ति से नगर की खुशहाली बनाए रखने और विपत्तियों से बचाव की प्रार्थना की जाती है।
 
*प्राचीन  कथा*
 
कहा जाता है कि सम्राट विक्रमादित्य ने नगर पूजा की परंपरा शुरू की थी। इसके बाद यह परंपरा सभी राजवंशों ने निभाई। अब शासन द्वारा इस उत्सव का आयोजन किया जाता है। लोक गाथा के अनुसार उज्जैन में पहले एक ही दिन का राजा होता था। दिन पूरा होते ही देवी शक्तियां राजा का भोग ले लेती थी। दूसरे दिन नया राजा बनाया जाता था। एक बार गरीब माता-पिता के इकलौते पुत्र के राजा बनने का क्रम आ गया। सम्राट विक्रमादित्य उनके यहां अतिथि थे। जब सम्राट को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने माता-पिता को आश्वस्त किया कि उनके पुत्र की जगह वे जाएंगे। सम्राट ने रात होने के पहले ही जिन रास्तों से देवी शक्तियां राजमहल तक आती थीं वहां देवियों के पसंद के भोजन, श्रृंगार सामग्री, वस्त्र, इत्र आदि रखवा दिए। राजा के पलंग पर मिठाई का पुतला बना कर लेटा दिया। रास्ते में अपने पसंद के भोजन और अन्य सामग्रियों को ग्रहण करती हुई देवी शक्तियां राजमहल पहुंची। सभी प्रसन्न थीं। एक देवी इस पर भी संतुष्ट नहीं थी। उसने पलंग पर लेटे मिठाई के पुतले का आधा भाग खींच लिया। इस पर अन्य देवियों ने उन्हें भूखी माता नाम दिया और शहर के बाहर स्थापित होने का कहा। प्रसन्न देवियों ने राजा विक्रमादित्य को वरदान दिया कि नगर में अब कोई अनिष्ट नहीं होगा। तभी से विक्रमादित्य ने नगर पूजा उत्सव शुरू कराया।
 
हर वर्ष शारदीय नवरात्रि की महाअष्टमी को देवियों व भैरवों को भोग और श्रृंगार सामग्री अर्पित किए जाते है। शासन से इस उत्सव के लिए रियासत काल से 300 रुपए स्वीकृत किए गए हैं। अब इस उत्सव पर करीब 20 से 25 हजार रुपए खर्च होता है जो भक्त और कर्मचारी मिल कर जुटाते हैं।