आइए ! राजस्थान के सांगवान को संरक्षित करें !

मारवाड़ टीक या रोहिड़ा, संस्कृत में जिसे चलचड़ा कहा जाता है और जिसे राजस्थान के राजकीय पुष्प का दर्जा प्राप्त है तथा जिसका वानस्पतिक नाम टिकोमेला उंडुलता है, तथा जो राजस्थान की जैव-विविधता संरक्षण में बहुत ही सहायक सिद्ध होता है,

मुख्यतया राजस्थान के थार मरूस्थल और पाकिस्तान के कुछ भागों में पाये जाने वाला प्रमुख वृक्ष है। पाकिस्तान के सिंध और बलूचिस्तान में इसके वृक्ष विशेषतया पाये जाते हैं। वैसे कुछ अरब देशों मे यह वृक्ष मिलता है। यह ओमान में और दक्षिण-पश्चिम ईरान से उत्तर-पश्चिम भारत तक अनेक स्थानों पर पाया जाता है। रोहिड़ा शुष्क क्षेत्रों और बाहरी हिमालय का एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी वृक्ष है। भारत में राजस्थान के अलावा महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और हरियाणा में यह बहुतायत में मिलता है। राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र (चूरू, झुंझुनूं व सीकर) व मारवाड़ अंचल यानी कि जोधपुर एवं इसके आसपास के क्षेत्रों में यह वृक्ष मुख्य रूप से पाया जाता है और यहां पर यह वृक्ष इमारती लकड़ी का विशेष व मुख्य स्रोत कहलाता है क्योंकि बुजुर्गों का यह मानना है कि इसकी लकड़ी स्वाद में कड़वी होने के कारण इसमें दीमक नहीं लगती हैं, इसकी लकड़ी सैकड़ों वर्षों तक भी खराब नहीं होने के कारण एवं मजबूत व टिकाऊ लकड़ी होने के कारण से इसे अधिकतर फर्नीचर के काम में लिया जाता है। आज विभिन्न हैंडीक्राफ्ट्स आइटमों, खिलौनों में इसका भरपूर उपयोग किया जा रहा है। यही वजह है कि रोहिड़ा धीरे-धीरे सिमट गया है।

 

कहना ग़लत नहीं होगा कि रोहिड़ा राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र के लोगों के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। देखा जाए तो यह इन क्षेत्रों की जीवनरेखा ही है। जोधपुर के अलावा राजस्थान में यह जैसलमेर, पाली, अजमेर, नागौर, बीकानेर आदि जिलों में भी बहुत बड़ी संख्या में मिलता है। इस वृक्ष की लकड़ी की उपयोगिता को देखते हुए इसे ‘राजस्थान का सागवान’ या ‘मारवाड़ का सागवान’ भी कहा जाता है। मारवाड़ क्षेत्र(जोधपुर व इसके आसपास का क्षेत्र) में इसकी (इस वृक्ष की) अधिकता होने के कारण यह वृक्ष इतना अधिक प्रसिद्ध हो गया है कि लोग इसे ‘मारवाड़ी’ टीक के नाम से भी जानते हैं, लेकिन आज बढ़ती आधुनिकता, शहरीकरण, लगातार बढ़ती हुई जनसंख्या, पर्यावरण के लगातार होते हृास(ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव), बढ़ती जनसंख्या के साथ लकड़ी की फर्नीचर के लिए बढ़ती मांग,आधुनिक कृषि यंत्रों की सहायता से कृषि कार्य करने से, कीटनाशकों व पेस्टीसाइडों के खेती में बढ़ते उपयोग तथा चारागाहों की लगातार अनदेखी करने से राजस्थान में इन पेड़ों की संख्या लगातार कम होती चली जा रही है।

 

यह कहना ग़लत नहीं होगा कि राजस्थान का सागवान कहलाने वाले रोहिड़ा के वृक्ष आज शनै: शनै: मरूधरा से कम होते चले जा रहे हैं। कुछ समय पहले भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा 05 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर “एक पेड़ माँ के नाम” अभियान की शुरुआत की गई थी और इस पहल का मुख्य उद्देश्य वर्तमान समय में बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग से निजात पाना एवं इस धरा के भविष्य को सुरक्षित रखना है, लेकिन आज ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है।धरती पेड़ों की कमी के कारण तपने लगी है। तपती धरती में रोहिड़ा के वृक्ष राजस्थान की धरती का तापमान कम करने में सहायक है लेकिन अब यहां के तापमान में लगातार इजाफा देखने को मिल रहा है। उल्लेखनीय है कि राजस्थान में खेजड़ी के पेड़ के साथ ही रोहिड़ा के वृक्ष विशेष रूप से पाए जाते हैं लेकिन हाल ही के वर्षों में अब दोनों ही वृक्षों की संख्या में अभूतपूर्व कमी देखने को मिली है। रोहिड़ा में कमी आने का एक प्रमुख कारण इसकी लकड़ी का बेशकीमती होना है, वहीं इसके वृक्ष(रोहिड़ा के वृक्ष) भूमि या मृदा कटाव को रोकने में काफी सहायक होते हैं। यह तेज हवा के बहाव को भी कम करता है तथा पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में मददगार है। इसके फूल मरू की शोभा बढ़ाते हैं, भले ही इसके फूलों में अन्य फूलों की तरह इतनी खुशबू नहीं होती है और न ही इसके फूलों को पूजा इत्यादि में काम में ही लिया जाता है।

 

 यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि रोहिड़ा के फूल को 21 अक्तूबर, 1983 को राजस्थान सरकार ने राज्य पुष्प घोषित किया था। यह विडंबना से कम बात नहीं है कि आज के समय में रोहिड़ा के पेड़ राष्ट्रीय औसत से भी कम हैं। यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि रोहिड़ा का पेड़ औसतन 20-25 फीट तक ऊंचा होता है तथा यह बिगोनिएसी परिवार के टेकोमेला वंश/ प्रजाति का एक प्रमुख वृक्ष है। यह अधिकतर शुष्क व अर्ध शुष्क भागों में समुद्र तल से 1100-1200 मीटर की ऊंचाई में पाया जाता है। रोहिड़ा पतझड़ वाला वृक्ष है लेकिन वर्ष के अधिकांश महीनों में इसके वृक्ष पर हरी पत्तियां रहती हैं तथा ऐसा बहुत कम होता है जब यह पूरी तरह पत्तियों से रहित हो जाता है। इसकी पत्तियां लंबी, नुकीली होती हैं तथा फल कुछ मुड़े हुए होते हैं एवं इसके बीज बालदार होते हैं, जो हवा के साथ रेगिस्तान में इधर-उधर बहकर पेड़ का रूप धारण कर लेता है। रोहिड़ा पर फूल सर्दियों के मौसम में आते हैं और इसके फूल पीले, नारंगी और लाल रंग के होते हैं, जिनकी आकृति घंटीनुमा होती है। सच तो यह है कि दिसंबर से अप्रैल माह तक तीन प्रकार के चटकीले फूलों से गुलजार होने वाला यह वृक्ष हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता है।

 

 रोहिड़ा की जड़ें अन्य रेगिस्तानी पेड़ों की भांति काफी लंबी होती हैं और यह रेगिस्तान में गहराई तक फैली होने के कारण मिट्टी को आसानी से कटने नहीं देती हैं। इसे लगभग सदाबहार वृक्ष अथवा अर्ध-सदाबहार वृक्ष कहा जा सकता है। रेतीले धोरों में कम तापमान और कम पानी में यह आसानी से पैदा हो सकता है। इसमें सूखा सहने की विशेष क्षमता होती है। आश्चर्यजनक है कि यह गर्म व ठंडा दोनों प्रकार के तापमान को सहन कर लेता है, क्यों कि रेत जल्दी गर्म होती है और जल्दी ही ठंडी भी हो जाती है। इसकी लकड़ी पर सुंदर नक्काशी आसानी से की जा सकती है, क्यों कि इसकी लकड़ी मखमली टाइप की होती है और लोग आमतौर पर इसका फर्नीचर बनाने में उपयोग करते हैं। लकड़ी ही नहीं इसकी छाल भी उपयोगी होती है जो कि विभिन्न बीमारियों/रोगों यथा मूत्र रोगों, त्वचा रोगों, गर्मी और लीवर संबंधी रोगों के उपचार में काम में ली जाती है



उल्लेखनीय है कि औषधीय गुणों के कारण रेगिस्तान में रोहिड़ा की पूजा की जाती है। राजस्थानी बुज़ुर्ग यह मानते हैं कि है कि अगर कोई बीमार है, तो उसके कपड़े पेड़ की शाखाओं पर लटका दिए जाने चाहिए। इससे औषधीय प्रभाव अंदर तक पहुँचता है और फिर जब व्यक्ति उन्हें पहनता है, तो उसकी बीमारी दूर हो जाती है। फोड़े-फुंसियों, पेट के रोग, घाव, कान का रोग, आंख के रोग की दवा में भी रोहिड़ा का उपयोग होता है। जानकारी मिलती है कि पेट संबंधी रोगों में यह विशेष गुणकारी है और लिव-52 औषधि में भी इसका उपयोग किया जाता है। आज रिहायशी क्षेत्र बढऩे, चरागाह भूमि कम होने के कारण और वन्य क्षेत्र के लगातार घटने से रोहिड़ा पर जबरदस्त असर पड़ा है। आज यदि अंधाधुंध कटाई, व्यावसायिक उपयोग रोककर इसका सघन पौधरोपण किया जाए तो यह फिर राज्य और देश की शान बन सकता है। रोहिड़ा की समस्या यह है कि रोहिड़ा का बीज संग्रहण कोई आसान काम नहीं है। वैज्ञानिकों के अनुसार इसके बीज की संरक्षण-संवर्धन क्षमता बहुत कम होती है है। वैज्ञानिकों का कहना है कि मानसून सीजन में तत्काल नहीं रोपने पर यह बहुत जल्दी खराब हो जाता है। आज रोहिड़ा की स्थिति बहुत खराब है। पहले 60 से 70 के दशक में हल से खेती होने के कारण इसके बीज जमीन में पनप जाते थे। वर्तमान में ट्रेक्टर से व अन्य आधुनिक उपकरणों से खेती, अतिक्रमण, वृक्षों की अवैध व अंधाधुंध कटाई के बाद हालात बदल गए हैं। लोगों का यह मानना है कि इसके पेड़ के नीचे फसलें पैदा नहीं होती हैं, इसलिए काश्तकार इसे अपने खेतों में लगाने में रूचि नहीं दिखाते हैं।

 

 जो भी हो, रोहिड़ा वर्तमान में राजस्थान का राज्य पुष्प है और बेशकीमती वृक्ष। पर्यावरण संरक्षण में इसकी भूमिका अतुलनीय है। थार का यह शृंगार सरकार के साथ साथ ही स्वयंसेवी संस्थाओं, आम नागरिकों द्वारा एक अदद पहल और संरक्षण की बाट जोह रहा है। आइए राजस्थान के सांगवान को संरक्षित रखने के लिए हम सभी गंभीरता से अपने यथेष्ट व अनूठे प्रयास करें ताकि राजस्थान की इस अमूल्य, अनूठी निधि को हम आने वाली पीढ़ियों के हितों के लिए छोड़ सकें। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि एक पेड़ दस पुत्रों के समान होता है।