झारखंड के संथाल परगना प्रमंडल के पाकुड़ जिले के अंतर्गत झारखंड-बंगाल की सीमा पर स्थित महेशपुर राज प्रखंड के श्मशान क्षेत्र के निकट मई, 24 के मध्य में बांसलोई नदी के कुलबोना घाट में बालू की खुदाई के दौरान खड़ी मुद्रा में शाक्त देवी की एक अत्यंत सुघड़ कलात्मक प्रतिमा मिली है जो अपनी मूर्तिकला की विशिष्टताओं के कारण आम जनों के साथ इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के आकर्षण का केंद्र बन गई है। करीब चार फीट ऊंची विशिष्ट शैली की जटा-मुकुट धारण किये ब्लैक बैसाल्ट पत्थर से निर्मित कमल पद्म पर आसीन इस प्रतिमा की पहचान विशेषज्ञों ने देवी पार्वती के सिद्धा स्वरूप में की जो एक हजार पुरानी बताई जा रही है।
हाथों में शिवलिंग, त्रिशूल और घट लिये हुए चार भुजाओं वाली यह मूर्ति प्रथम दृष्टया शैव मत से संबंधित देवी पार्वती अथवा किसी शाक्त देवी की लग रही थी। किंतु शास्त्रों एवं विभिन्न पुराणों में वर्णित देवी पार्वती के एक हजार स्वरूपों से निश्चित रूप से निर्धारित करना कि यह किस देवी की है, कठिन प्रतीत हो रहा था। किंतु प्रतिमा की सूक्ष्म रूप से मीमांसा करने के पश्चात कोलकाता विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग की पूर्व अध्यक्ष तथा जानी-मानी मूर्ति-विज्ञानी प्रोफेसर दुर्गा बसु और कोलकाता के ही मौलाना अबुल कलाम आजाद यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के प्राध्यापक, पुराविद् अरबिंदो सिन्हा राय, जो झारखंड और बिहार के पुरातात्विक सर्वेक्षणों से निकटता से जुड़े रहे हैं, के अनुसार यह मूर्ति देवी पार्वती के एक स्वरूप सिद्धा की है। इस संबंध में मूर्ति विज्ञानी प्रो.बसु ने बताया कि सिद्धा देवी पार्वती के महत्वपूर्ण रूपों में एक है, जब उन्होंने दक्षपुत्री सती के रूप में यज्ञ-कुंड में अपना शरीर त्यागने के पश्चात् हिमालय-पुत्री के रूप में जन्म लेकर भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु कठिन तपस्या कर सिद्धि लाभ किया था। प्रो. बसु बताती हैं कि देवी पार्वती के इस तपस्विनी सिद्धा रुप का उल्लेख अग्नि पुराण सहित अन्य ग्रंथों में किया गया है।
देवी के इस सिद्धा रुप की पहचान का काम पुराविदों के लिये चुनौतीपूर्ण रहा। पुराविद् श्री सिन्हा राय बताते हैं कि महेशपुर राज में मिली इस मूर्ति में देवी पार्वती के दो प्रमुख रूप सिद्धा और ललिता, दोनों के लक्षण समाविष्ट हैं। इस कारण रूप-निर्धारण में कठिनाई हो रही थी। किंतु मूर्ति का बारीकी से निरीक्षण करने पर देवी के एक पैर के बगल में बनी गणेश मूर्ति के पीछे केले के दो पत्तों की आकृतियां मिलने पर ये निश्चित हो गया कि यह देवी पार्वती का सिद्धा स्वरूप है। प्रो. बसु के अनुसार शास्त्रों में केले के वनों के साथ देवी के उल्लेख मिलते हैं। उन्होंने बताया कि यह मूर्ति संभवत: 10-11 वीं शताब्दी के बाद की अवधि की लगती है। इस तरह यह मूर्ति तकरीबन एक हजार साल पुरानी है।
महेशपुर राज से प्राप्त विशिष्ट शैली की जटा-मुकुट धारण किये देवी सिद्धा की यह तिरछी भौं व ललाट पर ऊध्र्वाकार टीका व कानों में विशिष्ट आकार के गोल कुण्डल धारण किये इस विरल मूर्ति की आंखें बंगाल की पारंपरिक दुर्गा प्रतिमाओं की तरह लम्बी हैं। गले में हार, हाथों में कंगन, बाजूबंद और पहुंची, कमर में कलात्मक कमरबंद, पैरों में पायल और छाती पर यज्ञोपवीत से अलंकृत है । देवी के सिर के पीछे कलात्मक वृत्ताकार आभामंडल बने हुए हैं जिसके दोनों ओर गंधर्व एवं अप्सरा उत्कीर्ण हैं जबकि सिर उपर बड़े आकार का और उसके दोनों ओर छोटे आकार के शेर की मुखाकृतियां बनी हुई हैं। देवी के पैरों के दोनों ओर गणेश और कार्तिकेय की मूर्तियां हैं जिससे इसका सौंदर्य अद्भुत प्रतीत होता है।
जानकारों के अनुसार महेशपुर राज में तंत्र से संबंधित उक्त मूर्ति का मिलना यह संकेत देता है कि पुरातन काल में यह शाक्त पूजन का क्षेत्र रहा होगा। आज से करीब 150 वर्ष पूर्व भी इसी तरह की देवी पार्वती की काले पत्थर की मूर्ति मिली थी जो करीब एक हजार साल पुरानी है और यहां के बूढ़ा महेश्वर नाथ शिव मंदिर में संग्रहित है। विदित हो कि घने वन-प्रांतर और पहाड़ों से घिरे पहाडय़िा आदिम जनजाति बहुल महेशपुर राज में पुरातन काल से शाक्त देवियों के पूजन की परम्परा रही है। यहां सदियों से मां दुर्गा देवी सिंहवाहिनी महेशपुर राज-परिवार की कुलदेवी के रूप में पूजी जाती रही हैं जिनका मंदिर आज भी विद्यमान है। देवी सिंहवाहिनी के प्रति इस क्षेत्र के लोगों की अगाध श्रद्धा रही है। 1910 ई. में प्रकाशित बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स संथाल परगनास में एल एस एस ओमाले बताते हैं कि सुल्तानाबाद परगना (वर्तमान महेशपुर राज) की अधिष्ठात्री देवी सिंहवाहिनी की पूजा के लिये यहां सिंहवाहिनी टैक्स लगाया जाता था जिसकी राशि गांव के प्रधानों के द्वारा अपने से निर्धारित किया जाता था (पृ. 190)। सिंहवाहिनी मंदिर परिसर में सखुआ के पवित्र वृक्ष के तने के रूप में स्थापित पहाडिय़ा आदिम जनजाति की ईष्ट देवी की भी यहां नियमित रूप से पूजा होती है। यहां प्रखंड मुख्यालय के निकट शक्ति-स्वरुपा अपराजिता मां का भी जाग्रत मंदिर अवस्थित है। गौरतलब है कि महेशपुर राज में प्राप्त देवी पार्वती की मूर्ति की ही तरह सेन फ्रांसिस्को के म्यूजियम में भी कई मूर्तियां संग्रहित हैं।
पुराविद् अरविंद सिन्हा राय बताते हैं कि 672-695 ई. के दौरान चीनी यात्री फाहियान और ह्वेन संग की तरह ही इत्सिंग सुमात्रा के रास्ते समुद्री मार्ग से बंगाल के ताम्रलिप्ति बंदरगाह पर उतरकर नालंदा जाने के क्रम में जंगल और पहाड़ों से घिरे झारखंड के इस मार्ग से जा रहा था, तो यहां के खूंखार आदिम जनजाति के लोगों ने उसे नरबलि देने हेतु बंदी बना लिया था। इसका उल्लेख इत्सिंग ने अपनी यात्रा विवरणी में किया है। पुराविद् श्री अरविन्द सिन्हा राय का अनुमान है कि अवश्य ही उन दिनों इस क्षेत्र में तंत्र-मंत्र की परंपरा रही होगी जिसके कारण चीनी यात्री इत्सिंग को नरबलि देने हेतु बंदी बनाया गया होगा।
महेशपुर राज प्रखंड भागलपुर (बिहार) में अवस्थित तंत्रयान के प्रसिद्ध केंद्र विक्रमशिला बौद्ध महाविहार और बंगाल के सिद्धपीठ तारापीठ व नलहट्टेश्वरी के मध्य में स्थित है। महेशपुर राज क्षेत्र की प्राचीन कालीन तांत्रिक गतिविधियों पर शोध व खोज करने पर कई तथ्यों के उजागर होने की संभावना है। गौरतलब है कि आज से करीब एक हजार साल पूर्व विक्रमशिला बौद्ध महाविहार तंत्रयान और वज्रयान की साधना और सिद्धि का एक प्रमुख केंद्र था जहां अध्ययन-अध्यापन हेतु पूरे देश से ही नहीं, बल्कि विदेशों से भी भिक्षु व शिक्षु आते थे।