वेद, ब्राह्मण ग्रंथ एवं अरण्यक ये श्रुति वांग्मय के प्रथम तीन विभाग हैं। अंतिम और चौथा विभाग है ‘उपनिषद। इसे ‘वेदान्त’ भी कहते हैं। कुछ विद्वान कहते हैं कि जो विद्या गुरु के पास बैठकर प्राप्त की जाये वह ‘उपनिषद’ है। श्री शंकराचार्य जी ने उपनिषद की व्याख्या करते हुए कहा है कि जो ज्ञान सांसारिक बंधनों को काटे, वही उपनिषद है। इस प्रकार तत्वज्ञान के रूप में उपनिषद शब्द का प्रयोग प्रचलित हो गया है और वेदान्त भी इसी तत्वज्ञान का पर्यायवाची हो गया है तथा उसका अर्थ है वह विद्या या शास्त्र, जो वेद और लौकिक ज्ञान से परे हो। उपनिषद अर्थात् परमतत्व की ओर पहुंचाने वाला मार्ग। ईश, केन, कठ आदि प्राचीन उपनिषदों में जीव, जगत एवं ब्रह्म इनका स्वरूप और पारस्परिक संबंध और कर्मवाद के सविस्तार प्रतिपादन के साथ-साथ, इनमें सगुण पूजा के स्थान पर निर्गुण पूजा पर अधिक बल दिया गया है, लेकिन सामान्यजन को निर्गुण उपासना की रहस्यमयता को समझना सरल नहीं था। अत: उपासना के लिए अनेक सगुण प्रतीकों की कल्पना की गई। वैसे तो श्री गणेश संबंधी कई उपनिषद हैं, लेकिन इनमें प्रमुख हैं चार उपनिषद (1) गणपत्यथर्वशीर्ष, (2) गणेश पूर्व तापिनी, (3) गणेश उत्तर तापिनी एवं (4) हेरम्बोपनिषद।
गणपति- अथर्वशीर्ष उपनिषद
श्री गणेश विषयक इस उपनिषद में श्री गणेश के ओंकार स्वरूप तथा सगुण स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ ‘गणेश-विद्या’ एवं ‘गणेश गायत्री’ का भी समावेश है। वेद मर्मज्ञ पं. श्री दा. सातवलेकर जी ने इसे मस्तक (शीर्ष) को शान्त (अथर्व – अचंचल) रखने वाला स्रोत कहा है।
‘ऊँ नमस्ते गणपतये’ से इस अथर्वशीर्ष का प्रारंभ शांतिपाठ के पश्चात् होता है तथा सर्वप्रथम गणपति के सर्वव्यापी परब्रह्म स्वरूप का निरूपण किया गया है। श्री गणपति को कर्ता, धर्ता एवं हर्ता कहा गया है। ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ इस वेदान्त की सूक्ति के अनुसार श्री गणपति को इस लोक का प्रत्यक्ष (प्रति + अक्ष = आंखों से देखा जा सके) ब्रह्मï कहा गया है तथा उपासक अपनी रक्षार्थ उनसे प्रार्थना करता है।
‘ऊँ नमस्ते गणपतये’ से लेकर ‘सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात्’ तक का अंश इस अथर्वशीर्ष मंत्र का कवच है। इसके बाद उपास्य देवता की स्तुति करते हुए श्री गणपति को सर्व वेदादि वांग्मय, चिन्मय, आनंदमय, ब्रह्मïमय, सच्चिदानंद, अद्वितीय परमात्मा आदि कहा गया है। इसी कथन का विस्तार करते हुए यह कहा गया है कि श्री गणपति से ही सारा जगत उत्पन्न होता है, उसी से यह जगत सुरक्षित रहता है और उसी में यह सारा जगत लय हो जाता है तथा ‘यह संपूर्ण जगत उसी से बार-बार उत्पन्न होता है। वही भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश- ये पांच महाभूत (पंचतत्व) हैं। वही परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी, ये वाणी के चार प्रकार हैं तथा श्री गणपति सत्व, रज एवं तम इन तीनों गुणों से परे हैं तथा जागृति, स्वप्न एवं सुषुप्ति, इन तीनों अवस्थाओं से परे हैं तथा स्थूल (शारीरिक), सूक्ष्म, (मानसिक) एवं कारण (आध्यात्मिक), इन तीनों देहों से परे हैं तथा श्री गणपति नित्य मूलाधार चक्र में स्थिर रहते हैं एवं वे ही प्रभु-शक्ति, उत्साह-शक्ति एवं मंत्र-शक्ति, इन तीनों शक्तियों से युक्त हैं तथा योगीजन नित्य श्री गणपति का ध्यान करते हैं और वे ही ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इंद्र, अग्नि, वायु, सूर्य एवं चंद्र हैं तथा ब्रह्मïलोक, भूलोक, भुवर्लोक एवं स्वर्गलोक, इन सभी लोकों पर उनका आधिपत्य है और इन सबके साथ-साथ उनका ऊँकार स्वर पर भी आधिपत्य है। इस प्रकार ‘त्वं वांग्मय स्त्वं चिन्मय’ से लेकर ‘भू भूर्व: स्वरोम्’ तक श्री गणपति की शक्ति एवं सामथ्र्य का वर्णन करते हुए ब्रह्मादि सभी देवताओं से उनकी एकरूपता प्रदर्शित कर यह प्रतिपादित किया गया है कि ओंकार और गणपति यथार्थ में एक ही तत्व हैं तथा श्री गणपति निर्गुण ब्रह्म के ही सगुण स्वरूप हैं।
‘गणेश विद्या’
‘गणेश विद्या’ की व्याख्या इस प्रकार की गई है-
‘गण’ शब्द के आदि अक्षर ‘गकार’ का पहले उच्चारण करें तथा बाद में आदि वर्ण ‘अकार’ का उच्चारण करें। उसके पश्चात ‘अनुस्वार’ का। इस प्रकार अद्र्धचंद्र से शोभित ‘गं’ को ओंकार के द्वारा रूद्ध करें अर्थात् ‘गं’ के पहले और पीछे भी ओंकार हो। मंत्र का स्वरूप होगा- ‘ऊँ गं ऊँ। गकार पूर्व रूप है, अकार मध्यम और अनुस्वार अन्त्य तथा बिन्दु उत्तर रूप है। इन सबका एक ही समय एकाग्र होकर उच्चारण करना चाहिये।‘
इस गणेश विद्या के ऋषि गणक है, निचृद गायत्री छंद है और देवता गणपति। मंत्र है- ‘गं’ (ऊँ गं गणपतये नम:)।
‘गणेश विद्या’ की व्याख्या के बाद ‘गणेश गायत्री’ का उल्लेख किया गया है। यह गणेश गायत्री इस प्रकार से है-
‘एक दंताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि। तन्नो दंती प्रचोद्यात्।‘
(अर्थ : एकदंत को हम जानते हैं। वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। दंती हमको उस ज्ञान एवं ध्यान में प्रेरित करें)।
विद्वानों ने ‘एक’ शब्द का अर्थ यहां ‘माया’ किया है तथा ‘दंत’ का दमन करने वाला। इस प्रकार ‘एकदंताय विद्महे’ का अर्थ हुआ कि ऐसी माया को दमन करने वाले देवता को हम जानते हैं अर्थात् उसकी सामथ्र्य से परिचित हैं। इसी प्रकार विद्वानों ने ‘वक्र’ (टेढ़ी) का अर्थ माया किया है तथा ‘तुंड’ का अर्थ नियंत्रण करने वाला। इस प्रकार ‘वक्रतुंडाय धीमहि’ का अर्थ हुआ कि ऐसे माया को नियंत्रण में रखने वाले देवता का हम ध्यान करते हैं।
सगुण स्वरूप
श्री गणेश के ध्यान हेतु उनके सगुण स्वरूप का बड़ा ही मनोहारी वर्णन इस अथर्वशीर्ष में किया गया है तथा आज भी श्री गणेश की मूर्ति का सामान्यत: यही रूप प्रचलित है। इस स्वरूप के वर्णन में श्री गणेश की ध्वजा पर मूषक का चिन्ह है। ऐसा कहा गया है, लेकिन प्रचलित मूर्तियों में मूषक उनके वाहन के रूप में दिखलाया जाता है। दृष्टव्य है-
‘एकदंत चतुर्हस्त पाशमंकुश धारिणम्ï।
टं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्॥
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्त गंधानुलिप्तांग रक्तपुष्पै सुपूजितम॥‘
(अर्थ : गणपति देव के एक दांत तथा चार हाथ हैं। वे पाश और अंकुश धारण किए हुए हैं तथा एक हाथ में कल्याणकारी दंत लिए हुए हैं तथा उनकी ध्वजा पर मूषक का चिन्ह है। उनका रंग लाल है तथा उदर लम्बा है एवं उनके कान सूप के सदृश्य हैं तथा लाल वस्त्र धारण किए हुए हैं तथा उनके शरीर पर लाल चंदन का अंग-लेप लगा है तथा वे उत्तम रीति से लाल पुष्पों से पूजित हैं।)
श्री गणपति के स्वरूप का वर्णन करने के बाद इस स्रोत में गणपति महिमा को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि श्री गणपति भक्तों की मनोकामना पूरी करने वाले हैं, वे ज्योतिर्मय जगत के कारण हैं, वे अच्युत हैं एवं वे प्रकृति और पुरुष से परे पुरुषोत्तम हैं तथा वे सृष्टि के आदि में आविर्भूत हुए हैं।
स्वरूप और स्तुति के बाद ‘नामाष्टक’ हैं, जिसमें गणपति के आठ नामों का उल्लेख है। ये आठ नाम हैं- (1) व्रातपति, (2) गणपति, (3) प्रथमपति, (4) लम्बोदर, (5) एकदंत, (6) विघ्ननाशक, (7) शिवसुत एवं (8) वरदमूर्ति।
अथर्वशीर्ष का मंत्र रूप भाग नामाष्टïक तक है। बाद में ‘एतद् अथर्वशीर्षयोऽधिते’ से अंत तक अथर्वशीर्ष के जप आदि से जो फल-प्राप्ति हो सकती है, उसका उल्लेख है।
गणपति अथर्वशीर्ष की रचना कब हुई, यह सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इसमें श्री गणपति की मूर्ति के पूजन का उल्लेख है तथा श्री गणपति को ‘शिवसुत’ कहा गया है। अत: वैदिक युग के उस कालखंड में इसकी रचना संभव है, जब मूर्ति-पूजा प्रचलित हुई तथा गणपति को शिव के पुत्र के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। इस उपनिषद के रचनाकाल के संबंध में तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी ने मराठी विश्वकोश में लिखा है कि ‘यह उपनिषद गुप्तकाल के आसपास का होगा।‘
गणेश पूर्व तापिनी उपनिषद
श्री गणेश विषयक दूसरा प्रमुख उपनिषद है ‘गणेश पूर्व तापिनी’। यह तीन भागों में विभाजित है तथा प्रत्येक भाग को भी उपनिषद कहा गया है। यथा प्रथमोपनिषद्, द्वितीयोपनिषद एवं तृतीयोपनिषद्। इस उपनिषद का एक दूसरा नाम भी इसी उपनिषद में दिया है और वह नाम है ‘ब्रह्मोपनिषद।‘
प्रथमोपनिषद में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रजापति (सृष्टिकर्ता) ने अपने को शशिवर्ण, चतुर्भुज, गजमुखधारी रूप में देखा, जिससे पंचमहाभूतों की उत्पत्ति होती है, जिससे सबकी स्थिति होती है और जिसमें सभी लय को प्राप्त होते हैं, यही अक्षर परब्रह्मï है। इसी से प्राण, मन एवं इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। इसी से आकाश, वायु, जल, तेज और विश्वधारिणी पृथ्वी सभी उत्पन्न होते हैं। यही पुरुष है, यही परब्रह्मïा, यही सच्चिदानंद स्वरूप है। स्वयं निर्गुण-निराकार होकर भी परमात्मा गणेश ने अपने को त्रिधा रूप में व्यक्त किया और इस सृष्टि को उत्पन्न करके, इसकी व्यवस्था भी बनाई किंतु उस व्यवस्था के संचालन के लिए उन्होंने स्वयं प्रकट होकर मंत्र दिये हैं, जिनके द्वारा विधिपूर्वक उपासना करने से उपासक को लक्ष्य की प्राप्ति होती है तथा यह उपासना निर्गुण एवं सगुण दोनों प्रकार की विधियों से की जा सकती है। द्वितीयोपनिषद् में श्री गणपति के मंत्र, ध्यान एवं यंत्रादि का विवरण है तथा विनायक की माया की शक्ति का सामथ्र्य प्रतिपादित करते हुए कहा है-
‘माया वा एषा वैनायकी सर्वामिदं सृजति,
सर्वमिदं रक्षति, सर्वमिदं संहारति।
तस्मान्मायामेतां शक्ति वेदं।‘
(विनायक की माया की ही शक्ति से सबका सृजन, रक्षण एवं संहार होता है।)
इसी भाग में आगे श्री गणपति का वर्णन दिया है। दृष्टव्य है-
क्षीरोदार्णव शायिनं कल्पद्रुमाध: स्थितं वरदं व्योम रूपिणं
प्रचण्ड दण्डदोर्दण्डं वक्रतुण्ड स्वरूपिणं
पाश्वधि: स्थित कामधेनुं शिवोमातनयं विभुम्।
रुक्माम्बर निभाकाशं रक्तवर्णं चतुर्भुजम्।
कपर्दिनं शिवं शान्तं भक्तानामभयप्रदम्।
उन्नत प्रपदांगुष्ठं गूढग़ुल्फं सपाष्णिकम्।
पीनजंघं गूढज़ानुं स्थूलोरूं प्रोन्नमत्कटिम्। निम्ननाभिं कंबुकंठं लंबोष्ठं लंबनासिवम्।
सिद्धि-बुद्धभयाश्लिष्टं प्रसन्नवदनाम्बुजम्।
(भावार्थ : शिव एवं उमा के पुत्र (गणपति) क्षीरसागर में कल्पवृक्ष पर शयन कर रहे हैं। उनका आकार आकाश सदृश्य है तथा भक्तों को अभय देने वाले हैं. उनकी जंघाएं पीन हैं तथा जानु पुष्ट हैं। उनका वक्षस्थल विशाल एवं कटि उन्नत है, उनकी नाभि गहरी है तथा होंठ मोटे और नासिका प्रदीर्घ है तथा वे सिद्धि और बुद्धि द्वारा आलिंगनबद्ध हैं तथा उनका मुखकमल प्रसन्न है।
इसके बाद आगे यह निरूपित किया है कि प्रकृति और पुरुष, माया और शिव का यह पुत्र गणपति विश्वात्मा है। गणपति की स्तुति के बाद गणपति संबंधी कतिपय यंत्रों की रचना विधि एवं उनकी पूजा के महात्म्य का विवरण है।
तृतीयोपनिषद में विनायक संबंधी यंत्रों की रचना विधि तथा उनकी प्रतीकात्मकता पर प्रकाश डाला गया है तथा इनकी उपासना से प्राप्त होने वाले फलों का वर्णन है।
गणेश उत्तर तापिनी उपनिषद
यह उपनिषद गणेश पूर्व तापिनी का ही आगे का भाग है। इसके छह छंद हैं तथा प्रत्येक खंड को उपनिषद की संज्ञा दी गई है। इसमें वर्णित विषय वस्तु सारत: निम्नांकित है –
प्रथम खंड में ओंकार के सर्वव्यापी स्वरूप का वर्णन है। गणपति और ओंकार के अभेद की व्याख्या की गई है।
जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तूर्या। ये चार अवस्थाएं ही मानो ओंकार रूप गणपति के चार चरण हैं। ‘मैं विनायक हूं’ यह प्रतीत होना, ‘मैं ब्रह्म हूं’ ऐसा प्रतीत होने जैसा ही है।
‘प्रपंचोपशमं, शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स गणेश आत्मा विज्ञेय:।
विनायकोऽहमित्येतत्तत्त्वत: प्रवदन्तिये।‘
दूसरे खंड में ओंकार रूप गणपति निधिपति हैं, ऐसा निर्देश है। गणपति यह महानाद है। यह ओंकार के नाद से मिलता-जुलता है। अत: इस दृष्टि से गणपति शब्द ब्रह्म है।
तीसरे खंड में गणपति शक्ति युक्त हैं, वह गजमुख हैं, ऐसा वर्णन है तथा उनका विराट पुरुष से साम्य की कल्पना कर, पुरुषसूक्त में वर्णित सृष्टि रचना का क्रम गणपति के विविध अवयवों से कैसे हुआ, उसका सविस्तार वर्णन है। ब्रह्माजी के गर्वहरण की कथा इसमें सम्मिलित है। ‘मैं सृष्टिकर्ता हूं’ ऐसा गर्व ब्रह्माजी को होने पर गणपति ने उन्हें अपने भयानक रूप को दिखाया और अंतत: शरण में आने पर गजमुख रूप में उन पर कृपा की। रुद्र के गर्व परिहार होने का भी उल्लेख है। गणपति ने सृष्टि की उत्पत्ति, पालन तथा लय को क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु और शिव में बांट दिया, ऐसा वर्णन है।
चौथे खंड में गणेश प्रवण से सृष्टि की उत्पत्ति के वर्णन में सांख्य और वेदान्त के विचारों का मिश्रण है। गणपति की ज्ञान शक्ति से सत्व गुण, क्रियाशक्ति से रजोगुण, द्रव्यशक्ति से तमोगुण के उत्पन्न होने का उल्लेख है। रजोगुण, सत्वगुण, तमोगुण क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं, ऐसा भी इसमें कहा गया है और इसीलिए गणपति को ‘गुण-भयातीत’ कहा गया है।
पांचवें खंड में रुद्र द्वारा अन्य देवों को निम्नलिखित ‘गणेश मंत्र’ के महत्व को बतलाया गया है।
‘ऊँ एकदंताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि। तन्नो दंती प्रचोद्यात्।‘
छठे खंड में गणेश मंत्र के महत्व की सविस्तार चर्चा है। आह्वान, पंचोपचार, जप, पूजा, अष्टांग, न्यास, मुदरा, पुरुष-सूक्त, रुद्राध्याय एवं शांति पाठ। इनके पठन और आरती व महानैवेद्य आदि क्रिया करने के बाद गणेश मंत्र या गणेशयंत्र की पूजा एवं होम-हवन करने से जो सांसारिक एवं पारलौकिक फल प्राप्त होते हैं, उनका उल्लेख है।
हेरम्बोपनिषद्
‘हेरम्ब’ गणपति का ही एक नाम है, जिसका अर्थ होता है दीन या भक्तजनों का पालनकर्ता। यह चौदह श्लोकों की एक लघु रचना है। इस रचना की विषय वस्तु संक्षेप में निम्नलिखित है-
एक बार गौरी ने भगवान शंकर से दु:खों के निवारणार्थ आत्मविद्या के संबंध में जब जिज्ञासा व्यक्त की तो भगवान शंकर ने गौरी से कहा कि यह हेरम्ब की उपासना से प्राप्त हो सकती है, हेरम्बत्व ही यथार्थ ज्ञान है। इस हेरम्ब की कृपा के फलस्वरूप ही त्रिपुर का दहन हो सका। गणेश, यह सभी देवों का ईश है तथा वह ही विघ्नेश है। इस देवता का रंग सिन्दूरी है, लक्ष्मीजी इनके साथ हैं तथा इनका मुख गज का है, इसके चार हाथ हैं, चन्द्रकला से ललाट शोभित है, माया इनका शरीर है तथा स्वभाव मधुर है। इनसे तादात्म्य स्थापित कर बड़े-बड़े ऋषिगण भवसागर पार कर गए। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, चन्द्र आदि के रूप में वही दिखलाई देते है। लोगों के भले-बुरे कर्मों का वही साक्षी परमात्मा है। वह सृष्टि का निर्माता, पालक एवं संहारक है। वह अपनी माया से विविध रूप धारण करता है। गणेशभक्ति की महिमा प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि श्री गणेश के प्रति भक्तिभावना सदैव हृदय में रखनी चाहिए। इसी से श्री गणेश से सान्निध्य प्राप्त होता है तथा उपासक को स्वयं को पुरुषोत्तम, विघंतक, नागानन मानकर श्री गणेश से अभिन्नता माननी चाहिए तथा श्री गणेश की भक्ति में तल्लीन रहना चाहिए।
सारत: उपरोक्त उपनिषदों में श्री गणेश के सर्वव्यापी परब्रह्म रूप को प्रतिपादित किया गया है कि अव्यक्त परब्रह्म का सबसे प्रथम व्यक्तस्वरूप ओंकार हैं तथा ओंकार का ही मूर्तिमंत रूप श्री गणेश है।
श्री गणेश के देवता का उदात्तीकरण करके, इन उपनिषदों में श्री गणेश को ओंकार का प्रतीक मानकर, उन्हें निर्गुण एवं सगुण, दोनों उपासना पद्धतियों में उपास्य माना है तथा यही सच्चिदानंद स्वरूप श्री गणेश की महत्ता एवं अग्रपूज्यता का प्रधान कारण है।