ईश्वर ने शून्य अथवा बिना किसी उपादान के सृष्टि की रचना की। उसकी इच्छा थी कि- सृष्टि हो जाये और सृष्टि हो गई। उस समय ईश्वर ही था, दुनिया नहीं थी। ईश्वर सर्व विभूति सम्पन्न है और इसलिये उसे दुनिया की कोई आवश्यकता नहीं थी। अनन्त होने के लिये ईश्वर को अक्षय शक्ति का भंडार होना चाहिये जो कि जगत के रूप में व्यक्त होती है। अतएव ईश्वर और जगत दोनों ही नित्य और अनादि हैं। यदि ईश्वर ने शून्य से दुनिया का निर्माण किया है तो यही शून्य दुनिया का कारण होगा। कारण की विशेषता कार्य में आ जाती है। जिससे दुनिया शून्य अर्थात अभाव ग्रस्त होती है। यदि ईश्वर के द्वारा प्रकृति से दुनिया की सृष्टि होना माना जाय तो ईश्वर की शक्ति को मर्यादित मानना पड़ेगा। वह ससीम हो जायेगा। अगर सृष्टि के बाद ईश्वर दुनिया से अलग हो जाता है तो भी उसे परिच्छिन्न मानना पड़ेगा क्योंकि उस अवस्था में जगत उसको सीमित करेगा। जगत की सृष्टि एक विशेष काल में ही क्यों की गई? उससे पहले और पीछे क्यों नहीं? संभवत: पहले ऐसा समय था जब कुछ भी नहीं था। दूसरी बात यह कि ईश्वर की शक्ति उसके स्वरूप से अलग होकर अकेले दुनिया का निर्माण करने की कल्पना ही असंभव है। यदि ईश्वर अपनी शक्ति से दुनिया की सृष्टि करता है तब उसे उसकी रक्षा और पालन करने वाला होना चाहिये। समय-समय पर दुनिया के कामों में ईश्वर का हस्तक्षेप मानने से वह एक सीमित शक्ति वाले अकुशल शिल्पी की तरह हो जायेगा। एक बात यह भी प्रश्न की तरह उठती है कि अगर ईश्वर सब तरह से पूर्ण है तब उसकी सृष्टि दोष युक्त क्यों है? दुनिया में समय-समय पर उसे हस्तक्षेप की जरूरत क्यों पड़ती है? विज्ञान का अकाट्य प्रमाण है कि दुनिया की सृष्टि नहीं हुई बल्कि कालक्रम से धीरे-धीरे उसका विकास हुआ। ईश्वर को जगत का कारण कहने का अर्थ है कि विश्व को समझने के लिये वह ही आधार है। ऐसी स्थिति में ईश्वर के स्वरूप को भी विश्व में अभिव्यक्त होना चाहिए। इसीलिए शास्त्र कहते हैं जो है वह एक ईश्वर है।
वैज्ञानिकों की माने तो यह जगत अव्यवस्थित बिखरा हुआ था उसे व्यवस्थित किया गया है। ईश्वर की जगत सृष्टि के पूर्व कुछ नहीं था। अकस्मात सृष्टि की रचना के अध्यात्मिक प्रामाणिक तथ्य विज्ञान के कान उमेंठते हैं। ईश्वर ने स्वचालित कर्म परिपाटी बना दी। जैसा बीज वैसा फल। बीच में ईश्वर के आने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। इसीलिये उसने विश्व को स्वतंत्र छोड़ दिया। पेड़ पौधों पशु और आदमी सहित सभी जन्तुओं के लिये नित्यता के नियम भी ईश्वर के यांत्रिक आविष्कार है जो आश्चर्यजनक है। प्राण नाम की नई शक्ति है वह उसी स्तर की है जिस स्तर की शरीर में रहने वाली भौतिक और रासायनिक शक्तियां हैं। इसीलिये प्राण शक्ति ही भौतिक शक्ति में और भौतिक शक्ति ही प्राण शक्ति। प्राण शक्ति की पूर्णता के लिये चित्त का अद्भुत संयोग है। शारीरिक आवश्यकतायें और इच्छाएं इन्द्रियों को विकसित करती हैं। प्रयत्न से अंग विकसित होते हैं। देखने का प्रयत्न नेत्र उत्पन्न करता है। सुनने का प्रयत्न कान उत्पन्न करता है। इन सबके पीछे जागृत इच्छाओं की शक्ति होती है। जगत की सृष्टि में जीवन संघर्ष का उपक्रम विकसित हुआ यह सब भोजन की व्यवस्था के लिये और जीवन यापन के हेतु है। वर्जित जीवन जीने से ही मृत्यु की संभावना उत्पन्न हुई तथा वर्जित भोजन से क्लेश। यह जगत जीवन में सार माने गये। प्रकृति की अव्यक्त क्रियायें जहां मिलती है उस सेतु प्रबंधन को परमात्मा कहा गया।
शरीर के सभी अंग एक-दूसरे से मिलकर कार्य करते हैं उस अंत: प्रज्ञा सेतु को आत्मा कहा गया। अन्त में सब मिलकर आश्चर्य फलित होता है जिसे ईश्वर की माया कहते हैं।