भाषा पहचान बताएं, संस्कृति संरक्षण कर सम्मान दिलाए

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निसंदेह प्रकृति ने भारत को अनेकानेक वरदान दिये हैं। हिमाच्छादित पर्वत, रेगिस्तान, पठार, समतल मैदान, नदियां, झीले, समुद्र, अनंत प्रकार के फल-फूल, हर कोस पर बदलता पानी का स्वाद, हर दो कोस पर बदलता वाणी का स्वर हमें विविधता लेकिन समृद्ध एकात्मकता प्रदान करता है। हजारों बोलियों-भाषाएं इस धरती की खूबसूरती है। ये बोलियां-भाषाएं संस्कृति की वाहिनियां हैं। इन्हीं से संवाद है। सम्पर्क है। व्यापार है। व्यवहार है। इनके बिन लोक गूंगा है क्योंकि इन्हीं से लोक संस्कृति है। सभी तीर्थों मेलों और धर्म स्थलों पर परस्पर बोल चाल का माध्यम किसी न किसी न किसी रूप में हिंदी ही होती है। इस प्रकार हिंदी निश्चय ही, देश में परस्पर सम्पर्क और एकता की भाषा है। यह देश की सामासिक संस्कृति की भाषा है। इसी में देश की आत्मा निवास करती है। राष्ट्र की अस्मिता की पहचान भी इस से है।

माँ की लौरी से प्रारंभ हुआ भाषा का प्रवाह, अपने प्रभाव से हमारे जीवन मूल्यों का पोषण करता है। ममता, वात्सल्य, स्नेह, प्रेम, श्रद्धा को विशाल क्षितिज प्रदान करने वाले शब्द ही हमारी भाषाओं में विद्यमान है परंतु कोई विदेशी भाषा यह कार्य नहीं कर सकती क्योंकि निज भाषा में जो संवेदनात्मकता होती है, अन्यत्र उसे ढूंढना व्यर्थ है। उदाहरण के तौर पर ‘गुरु’ शब्द की पड़ताल की जाए तो हम देखते है कि इस शब्द में जो गुरुता है वह ‘टीचर’ में नहीं है। यह अंतर दो भाषाओं के गहरे सांस्कृतिक अंतर के कारण ही है। गुरु शब्द से जिस श्रद्धा की अनुभूति होती है वह टीचर में कहां? लोकभाषा में पवन शब्दों की अर्थ छटाएँ अलग-अलग हैं। इसके लिए हवा, बतास, बयार, पवन, बगुला, आँधी, अँधड़, बवण्डर, बुढिया, घुमरी, चकरी झाँक, लूक, भूतरा, फगुनहट, सिरवाई, पुरवाई, आदि शब्दों प्रयोग में लाए जाते हैं। यह उदाहरण बताता है कि लोक अपने परिवेश के प्रति सदा से सजग रहा है। जो हमारी भाषायी सम्पन्नता को नहीं समझता, वह भारत और भारतीय संस्कृति के मर्म को  समझ ही नहीं सकता।

 

मैं नहीं कह रहा, बहुत पहले 1782 में, हैनरी ब्रुक ने कहा है, ‘जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रांत के लोग करते हैं। जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है और जिसे प्रत्येक गांव में थोड़े बहुत पढ़े लिखे लोग समझते हैं, उसका नाम हिंदी है।’ समय-समय पर भारत को जानने जो विद्वान यहां आये उन्होंने अपने अनुभवों में इस बात को स्वीकारा है कि जब दो भिन्न प्रान्तों, समुदायों और भाषाओं के लोग आपस में अपनी बात करते हैं तो हिंदी उनकी मदद करती है। लब्धप्रतिष्ठ विद्वान श्री नरमदेश्वर चतुर्वेदी अपने ग्रन्थ ‘हिंदी का भविष्य’ में लिखते हैं, ‘हिन्दी वास्तव में किसी एक ही भाषा अथवा बोली का नाम नहीं है अपितु एक सामाजिक भाषा परम्परा की संज्ञा है, जिसका आकार-प्रकार विभिन्न उपभाषाओं और बोलियों के ताने-बाने द्वारा निर्मित हुआ है।’

 यह भी सर्वविदित है कि हमारे संविधान की आठवीं अनुसूची में प्रमुख भाषाओं को शामिल किया गया है। अनेक अन्य बोलियों-भाषाओं को भी इस सूची में शामिल करने की मांग की जा रही है। विशेष यह, हिंदी की उपभाषाओं और बोलियों को भी आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने की आवाजें लगातार उठ रही हैं। भारतीय भाषाओं में ज्ञान की अथाह राशि संचित है इसलिए हर बोली-भाषा को संरक्षण मिलना चाहिए। उनका विकास, विस्तार होना चाहिए। इसलिए अवधी, बुंदेली, भोजपुरी, राजस्थानी, कन्नौजी, ब्रज, पहाड़ी, गढ़वाली, कुमा़ऊॅनी, ब्रज, मालवी, हरियाणवी, छत्तीसगढ़ी सहित देश की सभी बोलियों- भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाये लेकिन हिंदी के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व एवं प्रभाव को देखते हुए इस सूची से अलग कर तत्काल राजभाषा का दर्जा दिया जाए। हिंदी की सहयोगी विविध बोलियाँ सदियों से हमारे घर-आँगन से संस्कृति और परम्पराओं की संवाहिका बनी हुई हैं। लेकिन इस बात से भला किसे इंकार होगा कि इन बोलियों-भाषाओं की प्रभाव एक प्रदेश अथवा उसके एक आंचल तक ही हो सकता है परंतु हिंदी समस्त भारत में किसी न किसी रूप में बोली और समझी जाती है।

यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे कारगिल से कन्याकुमारी, कच्छ से कामरूप तक भारत के सभी राज्यों में प्रवास का अवसर मिला। हर प्रांत, हर स्थान पर हिंदी देश की एकता की कुंजी के रूप में मेरे साथ रही। यह केवल मेरी नहीं, हर भारतीय की शक्ति है। सशक्त एकता की इसी कड़ी के बल पर हमने स्वतंत्रता संग्राम में विजय प्राप्त की। गाँधी, सुभाष, टैगोर, तिलक, भगतसिंह, चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, लाला लाजपत राय हिंदी भाषी नहीं थे लेकिन बात मातृभाषा की नहीं, मातृभूमि की थी। सभी ने एक स्वर में, हिंदी के माध्यम से सोये हुए पूरे देश को जगाया। तमिल भाषी राष्ट्रकवि सुब्रह्मण्यम भारती ने 1906 में अपनी पत्रिका ‘इंडिया’ के कुछ पृष्ठ हिन्दी के लिए आरक्षित करते हुए सभी से हिंदी सीखने की अपील की। मराठी भाषी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1905 में सबसे पहले घोषणा की कि हिंदी ही भारत की सर्वमान्य भाषा हो सकती है और देवनागरी लिपि वैकल्पिक रूप से भारत की सभी भाषाओं के लिए प्रयुक्त की जानी चाहिए।

 

स्वतंत्रता के बाद हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा अनुच्छेद 351 में हिंदी को भारत की सामासिक संस्कृति की प्रतिनिधि भाषा के रूप में विकसित करने का निर्देश इस बात का द्योतक है कि हिंदी भारत की प्रतिनिधि भाषा के रूप में अपना कार्य करेगी। संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। राजनीतिक लाभ के लिए कुछ लोगों द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले विवादों के कारण वर्तमान में राजभाषा के रूप में विराजित अंग्रेजी की स्थिति अस्थायी है, जिसे एक दिन हिंदी के लिए यह स्थान खाली करना ही होगा।

वर्ष 2020 में लागू की गई नई शिक्षा नीति में विदेशी भाषा अंग्रेजी के स्थान पर बच्चे की मातृ-भाषा को प्राथमिक कक्षाओं में अनिवार्य बनाने पर बल दिया गया है। लेकिन दुखद आश्चर्य है कि आज भी अंग्रेजी माध्यम नर्सरी से जारी है। ऐसा करने वालों पर किसी भी प्रकार की दण्डात्मक कार्यवाही न होना दुखद है। शर्मा की बात तो यह है कि तथाकथित अंग्रेजी माध्यम स्कूलों के दसवीं पास छात्र भी ठीक से हिंदी नहीं पढ़ सकते। ऐसे में वे जीवन भर ‘आधे तीतर आधे बटेर’ बने किसी तरह से अपनी जीवन गाड़ी को धकेलते हैं।

 

गुलामी की भाषा प्रेमियों को इस संदर्भ में यूनेस्को की 2008 में प्रकाशित पुस्तक (इम्प्रूवमेंट इन द कुआलटी आफ़ मदर टंग- बेस्ड लिटरेसी एण्ड लर्निंग, पृष्ठ 12) पढ़ना चाहिए जिसके अनुसार, ‘हमारे रास्ते में बड़ी रुकावट भाषा एवं शिक्षा के बारे में कुछ अंधविश्वास हैं और लोगों की आँखें खोलने के लिए इन अंधविश्वासों का भंडा फोड़ना चाहिए। ऐसा ही एक अन्धविश्वास यह है कि विदेशी भाषा सीखने का अच्छा तरीका इसका शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयोग है। दूसरा अंधविश्वास यह है कि विदेशी भाषा सीखना जितनी जल्दी शुरू किया जाए उतना बेहतर है। तीसरा अंधविश्वास यह है कि मातृ-भाषा विदेशी भाषा सीखने के राह में रुकावट है।’ यह कौन नहीं जानता कि भारत में महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन से मिसाइल मैन एपीजे अब्दुल कलाम सहित अनेक वैज्ञानिक मातृभाषा में प्रारंभिक अध्ययन की देन हैं। स्पष्ट है कि ये असत्य, अंधविश्वास और पाखंड हैं जबकि वास्तविकता यह है कि सीखने के लिए अपने परिवेश की भाषा ही सबसे सहज, सरल, ग्राह्य होती है। आवश्यक होने पर अंग्रेजी, जर्मन, फ्रैंच, स्पैनिस सहित कोई भी भाषा सीखी जा सकती है। अपनी भाषा से कटने का अर्थ है, जड़ विहीन पौधे की तरह जीवन भर संघर्ष करते रहना। हमंे अपने आपसे पूछना चाहिए कि क्या हम अपने बच्चों को जड़विहीन, संस्कृति विहीन, संस्कार विहीन, मानसिक गुलाम बनाना चाहते है? हम यह क्यों भूलते हैं कि दूसरों की बोली-भाषा बोलने वाला तोता पिंजरे में रहता है तो अपनी बोली बोलने वाली मैना आजाद रहती है?

 

अंग्रेजी के पक्षधर नहीं जानते या नहीं जानना चाहते कि पिछली जनगणना के अनुसार मात्र 4 प्रतिशत लोग ही भारत में धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हैं। यदि वे कहते हैं कि अंग्रेजी के बिना विकास पथ पर आगे बढ़ना असंभव है तो उन्हें विश्व 20 उन्नत देशों की सूची को देखने चाहिए जिसमें मात्र 3 देश (अमेरिका, इंग्लैंड तथा आस्ट्रेलिया) ही अंग्रेजी वाले हैं, जबकि शेष 17 देश गैर अंग्रेजी लेकिन अपनी-अपनी मातृभाषाओं का उपयोग करते हैं। इसलिए बिना किसी हीन भावना के गर्व से सिर उठाकर अपनी भाषा को अंगीकार करे। हर भारतीय को अपनी पहचान मातृभाषा के साथ-साथ अपनी मातृभूमि की भाषा के रूप में हिंदी से जुड़कर समाज और देश के कामकाज में हिंदी के प्रयोग को प्राथमिकता देनी चाहिए। हमें अपने प्रतिनिधियों पर प्रशासन और न्यायालयों का कामकाज लोक की भाशा में करने का दबाव बनाना चाहिए। तभी महामना  मदन मोहन मालवीय का स्वप्न साकार होगा जिसकी चर्चा अपने महत्वपूर्ण लेख में ‘’कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर’’ के 30 सितंबर 1830 ई. के आज्ञापत्र का उल्लेख करते हुए बताया गया था, ‘यहाँ के निवासियों को जज की भाषा सीखने के बदले जज को भारतवासियों की भाषा सीखना बहुत सुगम होगा, अतएव हम लोगों की सम्मति है कि न्यायालयों की समस्त कार्यवाई उस स्थान की भाषा में हो।’

 

अनंत बोलियों के होते हुए भी हिंदी हिंद की आत्मा है। यदि मातृभाषा को मां का आंचल कहे तो हिंदी मातृभूमि का विस्तृत आंचल है जो मेरा ज्ञान और प्रभाव बढ़ाता है। इस बात से भी किसे असहमति होगी कि अधिक से अधिक भाषाएं सीख अधिकतम ज्ञान अर्जित करना चाहिए लेकिन मातृभाषा की कीमत पर ऐसा करना आत्मघाती है।  और अंत में वैलिंग्टन, न्यूजीलैंड के संग्रहालय में प्रदर्शित की जाने वाली उस फिल्म की चर्चा प्रासंगिक होगी जिसमें एक माओरी आदिवासी कहता है — As long as we have the language, we have the culture As  long as we have the culture, we can hold on to the land. (जब तक हमारे पास भाषा है, तब तक हमारे पास संस्कृति है, जब तक हमारे पास संस्कृति है, तब तक हम अपनी भूमि पर बचे रहेगें)

 स्पष्ट है कि यह वैश्विक सत्य हमारे लिए भी महत्वपूर्ण है। भाषा और संस्कृति का संबंध गर्भनाल का होता है। हिंदी और भारतीय भाषाओं को बचाकर हम अपनी श्रेष्ठ संस्कृति को संरक्षित कर सकते हैं।