भारतीय संस्कृति के अनन्य उपासक डॉ. राधाकृष्णन्

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दिनेशचंद्र वर्मा 
 
राजनीतिज्ञ नहीं होते हुए भी सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन भारत के राष्ट्रपति इसलिए चुने गए थे कि वे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त दार्शनिक, चिंतक एवं विचारक थे। एक दार्शनिक के रूप में पाश्चात्य देशों ने उन्हें जो सम्मान दिया वह अपने आप में अभूतपूर्व एवं ऐतिहासिक रहा है। भारतीय दर्शन पर शोधपूर्ण चिन्तन एवं मनन के लिए संसार भर के दर्शन शास्त्र के प्रेमी और पाठक उनके चिर ऋणी रहेंगे।
 
दार्शनिक के रूप में विदेशों में अपार ख्याति, कीर्ति एवं सम्मान अर्जित करने के बावजूद डॉ. राधाकृष्णन जीवन भर भारतीय संस्कृति के उपासक रहे। उन्होंने न केवल भारतीय दर्शन को अपितु भारतीय धर्मों, कला एवं काव्य को भी श्रेष्ठï निरूपित किया। इसके साथ ही वे पश्चिमी संस्कृति के भारत में प्रवेश के सदैव विरोधी रहे। अंग्रेजी के महान ज्ञाता होते हुए भी वे अंग्रेजी रहन-सहन से कितनी दूर रहते थे इसका उदाहरण उनकी वेशभूषा रही है। राष्ट्रपति होते हुए भी उन्होंने अपने भारतीय परिधान को कभी नहीं छोड़ा।
 
आज हमारे लिए यह कम दुर्भाग्य जनक नहीं है कि हम भारतीय संस्कृति के ऐसे महान उपासक और चिंतक के विचारों को भूलते जा रहे हैं। हम उनका नाम तक विस्मृत करते जा रहे हैं। आइए आज हम उनके कुछ विचारों को स्मरण करें ताकि हम इस तथ्य को एक बार दोहरा सकें कि पश्चिम में अपूर्व प्रतिष्ठा अर्जित करने वाले डॉ. राधाकृष्णन भारत, भारतीयता एवं भारतीय संस्कृति के लिए कितने समर्पित थे।
 
डॉ. राधाकृष्णन उच्च आदर्शों के समर्थक थे। एक मनुष्य को अपने जीवन का आदर्श किन लक्ष्यों पर आधारित रखना चाहिए, इस संबंध में उनका कथन था- ‘प्राकृतिक शक्तियों पर मनुष्य की विजय से नहीं अपितु वासनाओं के निरोध से ही मनुष्य की नैतिक उन्नति को परखा जाना चाहिए। गोलियों की बौछार में भी सच बोलना, सूली पर चढ़ा दिए जाने पर भी प्रतिहिंसा से विरत होना, मनुष्य तथा पशुओं सभी का सम्मान करना, सर्वस्व दान कर देना, परोपकार में जीवन उत्सर्ग कर देना, अत्याचार को अविचलित भाव से सहन करना आदि मनुष्य के प्रधान कर्तव्य हैं।‘ 
 
हिन्दू धर्म के कट्टर समर्थक एवं अनुयायी होने के बावजूद वे सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखते थे। धर्म की उन्होंने बड़ी ही सुन्दर परिभाषा की है- ‘लोक हृदय से अनुमोदित आचार-शास्त्र ही धर्म है। किसी व्यक्ति विशेष का मन इसका विधान नहीं करता, अत: यह वैयक्तिक नहीं कहा जा सकता, कानून इसे मानने को विवश नहीं करता, अत: बाह्यï भी नहीं कहला सकता। यह तो वह आचार व्यवहार है, जिसका अनुमोदन लोकमत अथवा जनसाधारण का हृदय करता है।‘ 
 
डॉ. राधाकृष्णन एक आस्तिक दार्शनिक थे और ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते थे, जैसा कि उनके इस कथन से स्पष्ट हो जाता है- ‘ईश्वर वह अनन्त तत्व है जो हमारे भीतर भी है और बाहर भी है। यदि हमारे भीतर परमात्मा न होता तो हमें उसकी आवश्यकता का अनुभव ही न होता, यदि हमारे बाहर वह न होता तो उपासना की कोई जरूरत न रहती। जब हम परमात्मा को मनुष्य की आत्मा से श्रेष्ठ स्वरूप का बताते हैं तो हमारा धर्म शक्तिपूर्ण होता है।‘ 
 
डॉ. राधाकृष्णन ने हिन्दू धर्म, वर्ण व्यवस्था एवं आश्रम व्यवस्था की बड़ी  ही विशद विवेचना की है। हिन्दू धर्म के बारे में उनका मत था कि ‘यह स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म एक प्रणाली है, परिणाम नहीं, एक  परम्परा है, अटल दिव्य प्रकाशन नहीं। किसी भी ओर से आने वाले ज्ञान पर इसने प्रतिबंध नहीं लगाया।‘ एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है कि ‘हिन्दू धर्म भारत के अध्यात्म ज्ञान का निर्देशक है। ब्रह्म की एकता एवं सम्पूर्णता का ज्ञान ही इसका आधार है। अपने इस विश्वास के कारण कि मनुष्य जीवन सर्वत्र एवं सदैव भगवान का अंश होता है, इस धर्म ने धार्मिक उदारता का बहुत अभ्यास किया है।’
 
डॉ. राधाकृष्णन ने इस्लाम और कुरान शरीफ का भी बड़ा ही गहन अध्ययन किया था। उनका मत था कि ‘कुरान के अनुसार मुसलमान वे हैं जो नैतिक आचरण में विश्वास रखते हैं और अपने जीवन में नैतिक आचरण का पालन करते हैं। वे सब लोग मुसलमान हैं जो ईश्वर में आस्था रखते  हैं और अच्छे काम करते हैं।‘ डॉ. राधाकृष्णन ने इस्लाम की शिक्षाओं को हिन्दू धर्म के बहुत निकट पाया था इसीलिए उनका मत था कि ‘इस्लाम और हिन्दू धर्म अपने उच्चतम स्वरूप में यही शिक्षा देते हैं कि ईश्वर की सत्य और पवित्रता के साथ सेवा करना और जीवन की सभी घटनाओं में उसकी आज्ञाओं को श्रद्धा के साथ पालन करना ही यथार्थ धर्म है।‘ 
 
डॉ. राधाकृष्णन का मत था कि ‘दर्शन का अर्थ विचारों की उड़ान भरने वाला कठोर विषय नहीं है।‘   एक स्थान पर उन्होंने कहा है-‘दर्शन का काम जीवन को व्यवस्थित करना तथा उसे मार्ग प्रदर्शित करना है। दर्शन जीवन के नेतृत्व को ग्रहण कर संसार के अनेक परिवर्तनों एवं परिस्थितियों में से होकर रास्ता दिखाता है।‘ 
 
डॉ. राधाकृष्णन ने अपना जीवन एक शिक्षक के रूप में शुरू किया था। वे अंग्रेजी के महान विद्वान होते हुए भी पाश्चात्य सभ्यता के परम विरोधी थे। वे भारतीय दर्शन, सभ्यता और संस्कृति के परम उपासक थे। भारतीयों की पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के अंधानुकरण के वे सख्त विरोधी थे। उन्होंने कहा था-‘आश्चर्य का विषय है कि जब पश्चिम के लोगों ने भारत को हास्यजनक समझना बंद कर दिया है तो उसी भारत की सन्तान ने उसे विचित्र समझना आरंभ कर दिया है।
 
 पश्चिम ने भरपूर कोशिश की कि वह भारत को इस बात का विश्वास दिला दे कि उसका दर्शन मूर्खतापूर्ण, उसकी कला बच्चों का खिलवाड़, उसका काव्य प्रतिभा रहित तथा उसका आचरण-शास्त्र बर्बर है। अब जब पश्चिम यह अनुभव कर रहा है कि उसका विचार सर्वथा सत्य नहीं है तो हममें से कुछ लोग जोर देकर यह कह रहे हैं कि पश्चिम का पुराना विचार ठीक है।‘ 
 
डॉ. राधाकृष्णन् अंग्रेजों की बनाई हुई वर्तमान शिक्षा पद्धति के भी घोर विरोधी थे। इस संबंध में उन्होंने मैकाले को भी आड़े हाथों लिया। यह बात उनके इस कथन से स्पष्ट हो जाती है-‘मैकाले ने जिस नीति का उद्घाटन किया था उसका सांस्कृतिक महत्व कुछ भी क्यों न हो, वह एकांगी अवश्य है। यह नीति जहां सदा सजग रहकर वह हमें पाश्चात्य संस्कृति की शक्ति एवं महत्ता को एक क्षण के लिए भी भूलने नहीं देती, वहीं दूसरी ओर उसने हममें अपनी संस्कृति में अनुराग एवं आवश्यकतानुसार उसमें संस्कार कर लेने की प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं की। किसी-किसी पक्ष में तो मैकाले की अभिलाषा बिल्कुल पूर्ण हो गई है और ऐसे शिक्षित भारतवासी भी हैं, जो मैकाले के ही सुप्रसिद्ध शब्दों में अंग्रेजों से बढ़कर अंग्रेज हैं।‘ 
 
मगर आज हममें से कितने हैं जो इस महान दार्शनिक की विचारधारा को अपने जीवन में उतार रहे हैं और पश्चिमी संस्कृति, सभ्यता एवं संस्कारों के पीछे आंखें मूंदकर नहीं दौड़ रहे हैं?

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