अरावली पर्वत श्रृंखला पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला और भाजपा कांग्रेस आमने सामने

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 सुप्रीम कोर्ट के अरावली पहाड़ियों की परिभाषा बदलने वाले आदेश के बाद इस फैसले का विरोध हो रहा है। इस फैसले के बाद अरावली की जमीन के बड़े हिस्से को कमर्शियल एक्टिविटी और माइनिंग के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। राजनीतिक दलों के विरोध के साथ ही एक्टिविस्ट और पर्यावरणविद इस कदम के खिलाफ रैली कर रहे हैं। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी सहित कई विपक्षी पार्टियों ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध किया है। विपक्षी नेताओं ने गंभीर पर्यावरणीय नुकसान की चेतावनी दी है जबकि भाजपा ने इस आलोचना को गुमराह करने वाला बताया है।

 

    अरावली केवल पहाड़ियों की एक श्रृंखला नहीं है बल्कि यह भारत की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक है। इतनी पुरानी कि जब हिमालय का जन्म भी नहीं हुआ था तो उससे करोड़ों साल पहले अरावली मौजूद थी। भूवैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार, अरावली पर्वतमाला की उम्र करीब 2.5 अरब वर्ष मानी जाती है। यह समय पृथ्वी के प्रारंभिक प्रीकैम्ब्रियन युग का था जब धरती अभी स्थिर आकार ले रही थी। इसके विपरीत हिमालय अपेक्षाकृत युवा पर्वतमाला है जिसका निर्माण लगभग 5-6 करोड़ वर्ष पहले भारतीय और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेटों के टकराव से हुआ था।

 

भौगोलिक दृष्टि से अरावली पर्वतमाला लगभग 670-692 किमी लंबी है। यह गुजरात से शुरू होकर राजस्थान होते हुए हरियाणा और दिल्ली तक फैली है। माउंट आबू में स्थित गुरु शिखर (1,722 मीटर) इसका सबसे ऊँचा शिखर है। दिल्ली की ‘रिज’ जिसे अक्सर राजधानी की ‘हरी दीवार’ या ‘ग्रीन लंग्स’ कहा जाता है, भी अरावली का ही विस्तार है।

 

 अरावली पर्वतमाला का महत्व केवल भूगोल तक सीमित नहीं है बल्कि यह उत्तर भारत के पर्यावरण संतुलन की एक रक्षक की तरह काम करती है। अरावली पर्वतमाला इंडो-गंगा के उपजाऊ मैदानों और थार रेगिस्तान के बीच एक प्राकृतिक दीवार का काम करती है। यदि यह पर्वतमाला न होती, तो राजस्थान का थार रेगिस्तान धीरे-धीरे पूर्व की ओर फैलकर हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक पहुँच सकता था। इसी कारण इसे मरुस्थलीकरण को रोकने वाली प्राकृतिक ढाल माना जाता है।

 

यह पर्वत श्रृंखला क्षेत्र की जलवायु को स्थिर बनाए रखने में मदद करती है। इसकी पहाड़ियाँ गर्म हवाओं की गति को नियंत्रित करती हैं, जिससे तापमान में अत्यधिक उतार-चढ़ाव नहीं होता और वर्षा भी संतुलित रहती है। अरावली का एक बड़ा योगदान जैव-विविधता के संरक्षण में भी है। इसकी पहाड़ियों और जंगलों में अनेक प्रकार के पेड़-पौधे, पक्षी और वन्य जीव पाए जाते हैं। ये जंगल न केवल पर्यावरण को संतुलित रखते हैं बल्कि आसपास के क्षेत्रों को हरा-भरा बनाए रखने में भी सहायक होते हैं।

 

भूजल के दृष्टिकोण से अरावली अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसकी चट्टानों और मिट्टी की संरचना वर्षा के पानी को जमीन के भीतर जाने में मदद करती है। इससे भूजल पुनर्भरण होता है और कुएँ, बावड़ियाँ व ट्यूबवेल लंबे समय तक जल से भरे रहते हैं। अरावली पर्वतमाला से ही चंबल, साबरमती और लूनी जैसी महत्वपूर्ण नदियाँ निकलती हैं, जो राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात के बड़े हिस्से को जल उपलब्ध कराती हैं। ये नदियाँ कृषि, पेयजल और स्थानीय जीवन का आधार हैं। इसके अलावा अरावली क्षेत्र खनिज संसाधनों से समृद्ध रहा है। यहाँ बलुआ पत्थर, चूना पत्थर, संगमरमर और ग्रेनाइट के साथ-साथ सीसा, जस्ता, तांबा, सोना और टंगस्टन जैसे खनिज पाए जाते हैं। इसी कारण यह क्षेत्र लंबे समय से खनन गतिविधियों का केंद्र रहा है। पिछले कुछ दशकों में पत्थर और रेत खनन ने गंभीर समस्याएँ पैदा की हैं। इससे वायु प्रदूषण बढ़ा है, जंगल नष्ट हुए हैं और वर्षा जल का जमीन में समाना कम हुआ है। इसके चलते भूजल स्तर तेजी से गिरा है और पर्यावरण संतुलन बिगड़ने लगा है।

 

सोशल मीडिया से लेकर सड़कों पर अरावली के समर्थन में किया जा रहा प्रदर्शन सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद आया है। कुछ दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में माना था कि अरावली क्षेत्र में 100 मीटर से नीचे की पहाड़ियों को अपने-आप ‘जंगल’ नहीं माना जाएगा।

 

सीजेआई बीआर गवई, जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस छट अंजारिया की खंडपीठ ने कहा कि आईसीएफआरई  जैसे विशेषज्ञ निकाय द्वारा वैज्ञानिक मूल्यांकन के बिना नई खनन गतिविधियों को अनुमति देना पर्यावरण और पारिस्थितिकी के हित में नहीं होगा। कोर्ट ने कहा कि एमपीएसएम तैयार होने के बाद ही यह तय होगा कि किन क्षेत्रों में खनन संभव है और किन क्षेत्रों को संरक्षण की आवश्यकता है। लॉइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, इसी फैसले में कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय द्वारा दी गई अरावली की ऑपरेशनल परिभाषा को मंजूरी दी है। इसके तहत अरावली हिल्स किसी भी ऐसे स्थलरूप (लैण्डफोर्म) को माना जाएगा जिसकी ऊँचाई स्थानीय सतह से कम से कम 100 मीटर हो। साथ ही, परिभाषा में अरावली रेंज ऐसे दो या अधिक पहाड़ियाँ 500 मीटर की दूरी में होने को माना गया है।

 

इसके साथ ही कोर्ट ने केंद्र को ‘सस्टेनेबल माइनिंग प्लान’ करने का आदेश दिया है। कोर्ट ने केंद्र से कहा है कि खनन योग्य क्षेत्रों, पर्यावरण-संवेदी क्षेत्रों और उन क्षेत्रों की पहचान हो जहाँ खनन बैन होना चाहिए। खनन के बाद पुनर्वास और बहाली की योजना के लिए भी निर्देश दिए गए हैं। इसी दौरान कोर्ट से पूरे अरावली क्षेत्र में पूर्ण खनन प्रतिबंध की माँग की गई थी जिसे कोर्ट ने ठुकरा दिया है। कोर्ट का मानना है कि इससे अवैध खनन को बढ़ावा मिल सकता है।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद कई लोगों में डर है कि इससे खनन कारोबारियों के लिए रास्ते खुल जाएँगे। एक्सपर्ट्स का मानना है कि नई परिभाषा के बाद करीब 90 प्रतिशत हिस्सा ‘अरावली क्षेत्र’ के दायरे से बाहर हो जाएगा। 1990 के दशक से पर्यावरण मंत्रालय ने खनन को केवल स्वीकृत परियोजनाओं तक रखने तक के नियम बनाए थे लेकिन इनका खूब उल्लंघन हुआ और अब एक्सपर्ट मान रहे हैं कि खनन को कानूनी रूप मिल सकता है।

 

जानकारों के अनुसार यह फैसला किसी भी तरह से अरावली में कटाई या पूरी तरह नष्ट कर देने की इजाजत नहीं देता है। कोई जमीन अगर पहले से ही वन भूमि है या किसी कानून के तहत वो संरक्षित है तो उस पर इस फैसले का कोई असर नहीं पड़ता है। वहीं, इस फैसले से राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन को जमीन की व्याख्या से जुड़ा ज्यादा ताकत मिलती है। यानि अगर जंगल के क्षेत्र को सरकार चाहे तो ‘गैर-वन क्षेत्र’ बताया जा सकता है। इसी से लोगों को डर है लेकिन सरकार इसे बेकार का डर बताकर खारिज कर रही है।

 

केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव का कहना है कि खनन को लेकर किसी भी तरह की छूट नहीं दी गई है और इसे लेकर भ्रम फैलाना बंद किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि अरावली के कुल 1.44 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में मात्र 0.19 प्रतिशत हिस्से में ही खनन की पात्रता हो सकती है। उन्होंने कहा, “अरावली भारत के 4 राज्यों और कुल 39 जिलों में है। अरावली की याचिका 1985 से चल रही है और इसमें खनन के लिए कड़े नियम होने चाहिए. हम भी इसका समर्थन करते हैं।”

 

भूपेंद्र यादव का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का सभी राज्यों से कहना था कि अरावली की सभी जगह एक जैसी परिभाषा होनी चाहिए। उन्होंने बताया कि इसी कड़ी में 100 मीटर को माना गया है और यह ऊँचाई 1968 की रिचर्ड मर्फी स्टडी के आधार पर तय की गई है। साथ ही, भूपेंद्र यादव ने यह भी स्पष्ट किया कि इस 100 मीटर में पहाड़ी के बॉटम को भी काउंट किया जाएगा। इसके अलावा अगर 2 पहाड़ियों के बीच में 100 मीटर का अंतर है तो वो जमीन भी अरावली रेंज मानी जाएगी। उनका कहना है कि अरावली के मौजूदा क्षेत्र का 90 प्रतिशत हिस्सा इस परिभाषा के तहत अरावली क्षेत्र में आ गया है।

 

भूपेंद्र यादव के अनुसार, “कुल अरावली का क्षेत्र 1.4 लाख वर्ग किलोमीटर है और अभी 39 जिलों में 217 वर्ग किलोमीटर में ही माइनिंग हो सकती है। इसके लिए भी सुप्रीम कोर्ट से अनुमित मिलती है। दिल्ली में माइनिंग की ना इजाजत है और ना ही आगे होगी। यहाँ के फॉरेस्ट रिजर्व जस के तस ही रहेंगे।” श्री यादव ने इस विवाद पर सरकार ने स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की है और सरकार की बातों को देखें-समझें तो लगता है कि जितना बखेड़ा सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर हो रहा है असल में कहानी उससे अलग है।

 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का बाद विरोध शुरू हो गया है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने हरियाणा के गुरुग्राम और राजस्थान के उदयपुर में अरावली पहाड़ियों की ऊंचाई पर आधारित नई परिभाषा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। उन्होंने चेतावनी दी कि इस बदलाव से देश की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक के इकोलॉजिकल संतुलन को नुकसान पहुंच सकता है। प्रदर्शनकारियों ने बैनर और पोस्टर लिए हुए थे। उन लोगों ने ’’अरावली बचाओ, भविष्य बचाओ’’ और ’’अरावली नहीं, जीवन नहीं’’ जैसे नारे लगाए। पर्यावरण एक्टिविस्ट का कहना है कि संशोधित परिभाषा को मंजूरी देने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने अरावली रेंज के भविष्य को लेकर उनकी चिंताओं को और बढ़ा दिया है।

 

यही नहीं अरावली पर्वत श्रृंखला को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भाजपा और कांग्रेस आमने सामने है। कांग्रेस नेता आरोप लगा रहे हैं कि केंद्र सरकार ने कोर्ट में सही रिपोर्ट पेश नहीं की जिसकी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया है। उधर भाजपा नेताओं का कहना है कि कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की सही व्याख्या नहीं कर रही है।

 

रामस्वरूप रावतसरे



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