ऊर्जा का हर कण ‘शक्तिÓ का कण है और भारतीय संस्कृति की धारा हर युग, हर काल में जीवन के इस स्पंदन के सुख की कामना करती रही है। चेतना का हर कण उसके लिए शक्तिरूपी है। ‘या देवी सर्वभूतेषु नमस्तस्यै… नमस्तस्यै… नमो नम:।Ó जीवन के हर स्पर्श में, भावना के हर रंग में देवी शक्ति को देखने की भावना इस देश की सभ्यता में घुली-मिली है। विश्वास है कि यह महाचेतना दया, क्षमता, स्मृति, क्षुधा, तृष्णा, तृप्ति, श्रद्धा, भक्ति, मति, तुष्टिï, पुष्टि, शांति, कांति, लज्जा आदि उन सभी भावनाओं के रूप में मानव मन में समाई है, जो जीवन और व्यक्तित्व को आकार देती हैं। भारतीय मनीषा इन शक्तियों को कभी नवदुर्गा कहती है,ं कभी सप्त मातृका, कभी दश महाविद्या, कभी पंच महाशक्ति। अनेक रूपों में व्याप्त इस दैवी शक्ति के अनेक कोणों से दर्शन भारतीय जनमानस ने किये हैं। कभी वह उसे ‘मांÓ कहकर ममत्व की कामना करता है, कभी ‘करालÓ रूप का स्मरण कर चंडी चामुंडा से अपने शत्रुओं का पराभव और अपनी विजय का आश्वासन चाहता है।
दुर्गा की उपासना का अनुष्ठïान-दुर्गति विनाश के हेतु भक्तों द्वारा किया जाता है। दुर्गा सप्तशती के आरंभिक स्रोतों में महिमामयी अभयदायिनी देवी को महाभय विनाशिनी मानते हुए उनसे आयु, विद्या, चर, यश, कीर्ति-लक्ष्मी, गौत्र, परिवार और पशुओं की रक्षा की कामना की गई है। रणभूमि में जाते हुए योद्धाओं के शस्त्रों की धार को ‘देवीÓ का स्मरण भर पैना कर देता था।
देवी का यह रौद्र रूप महाकाली का रूप है, जिसमें वे असुरों या असत का संहार करती हैं और सुरों या संत की रक्षा करना चाहती है। इस रूप में वे कभी काली, कभी तारा, कभी छिन्नमस्ता, कभी त्रिपुरसुंदरी, कभी वाराही कहलाती रही हैं।
पर वे केवल कराली ही नहीं रसवती भी हैं। शक्ति-उपासना में ‘महासरस्वतीÓ भी उन्हीं का एक रूप हैं। जब वे वाणी, विद्या, बुद्धि और ज्ञान की तपस्या करती हैं तो ‘महासरस्वतीÓ का रूप धारण कर लेती हैं। वे हर कंठ को वाणी देती हैं, वे हर ग्रंथ की रचना करने वाली लेखनी में पैठ जाती हैं, हर स्वर और हर ताल उन्हीं की वीणा की झंकार से निसृत होने लगता है। तब वे इस सृष्टिï को एक छंद और लय प्रदान करती हैं। श्वेत वस्त्रों में श्वेत-हंस वाहिनी महासरस्वती का यह सौम्य रूप उनके साधकों को रस और शांति की धारा से नहला देता है।
देवी का एक और रूप ऐश्वर्य और सौभाग्यदात्री महालक्ष्मी का रूप है, जो जीवन से हर प्रकार की मलिनता और दरिद्रता का विनाश करती है।
सिंहवाहिनी, हंस वाहिनी और कमलासना देवियों की उपासना मनुष्य की शौर्य, ज्ञान और ऐश्वर्य की कामनाओं को तृप्त करती है। जीवन की मुख्य जरूरतें ही यही रही हैं। शायद इसीलिए भारतीय मानस ने इन देवी-रूपों की कल्पना की होगी।
भारतीय संस्कृति में हर देवता की शक्ति उसकी प्रिया में निहित मानी गई है। शिव की समानता संगिनी है उमा, जिनके बिना शिव शव मात्र हैं। राम की शक्ति हैं सीता और कृष्ण की शक्ति हैं राधा। राधा को कृष्ण से अभिन्न मानते हुए भक्त कवि कहते हैं- राधा हरि आधा-आधा तन एकै है, है ब्रज में अवतरिÓ। वे एक ही हैं सर्वथा अभिन्न हैं। एक ही शक्ति के दो पृथक दिखाई देने वाले रूप भर हैं, इसलिए हर देव अपनी शक्ति के बिना अधूरा है। यह भारत की पारिवारिक चेतना का चमत्कार है, जिसमें गृहस्थी की सुख-संपदा एक-दूसरे के पूरक बनकर ही प्राप्त हो सकती है, पृथक होकर नहीं। शक्ति के अनंत स्रोतों को मातृ रूप प्रदान करना भारतीय मानस की एक और खूबी है। मां के ममत्व और त्याग में ही अशांत मन को तमाम दु:खों और क्लेशों से मुक्ति का आश्वासन मिलता है।
‘मातृ-रूपाÓ भवानी की उपासना का भारत में लंबा इतिहास रहा है। सिंधु घाटी की खुदाई से भी देवी की पूजा के अवशेष मिले हैं। मध्य युग तो तांत्रिक उपासना की लंबी गाथा अपने पृष्ठïों में समेटे हैं। यह आत्मशक्ति ही वह भवानी भुवनेश्वरी है, जो केवल एक व्यक्ति की ही नहीं, समस्त संसार की चेतना है, जिसकी उपासना सारी जड़ता को दूर कर एक नई गति, एक नया स्पंदन, एक नया आलोक देती है। ऐसा आलोक जिमसें दुर्भावनाओं और असत्य के सारे राक्षसी भाव नष्टï हो जाते हैं।
