आरएसएस को भाजपा में संजय जोशी जैसे समझदार नेता की आज भी है जरूरत, समझें मोदी-शाह

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देश-दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को यदि नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री (संगठन) संजय जोशी मिल जाते तो बहुत अच्छा होता। यह बात मैं नहीं बल्कि आरएसएस-भाजपा से जुड़े लोग अपने निज अनुभवों के आधार पर बताते हैं लेकिन यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के द्वारा यह अप्रत्याशित निर्णय लिया जाता तो यह सोने पर सुहागा सियासी फैसला माना जाता। निर्विवाद रूप से

आरएसएस को भाजपा में संजय जोशी जैसे समझदार नेता की जरूरत आज भी है लेकिन मोदी-शाह को समझाना उसके लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है।

 

वैसे भी जब भाजपा का प्रधानमंत्री ओबीसी हो तो राष्ट्रीय अध्यक्ष संजय जोशी से बेहतर कोई दूसरा नहीं हो सकता।  लोगों का कहना है कि संजय जोशी को भाजपा में हाशिए पर धकेले जाने का मुख्य कारण मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनके व्यक्तिगत और रणनीतिक मतभेद थे, खासकर गुजरात में सांगठनिक भूमिका को लेकर। बताते चलें कि संजय जोशी को संगठन का जमीनी कार्यकर्ता माना जाता है जबकि नरेंद्र मोदी को सत्ता-केंद्रित रणनीति के प्रतिनिधि के तौर पर जिससे पारस्परिक विचारों का टकराव बढ़ा। इससे संजय जोशी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कटुता बढ़ी लेकिन अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साबित कर दिया है कि वो अपनी जगह पर सही हैं और अपनी सत्ता-केंद्रित रणनीति से भाजपा को ऐतिहासिक ऊंचाइयां प्रदान की है। 

 

हालांकि, पार्टी में कई ऐसे मौके भी आए जब मोदी के कदमों और बयानों से कट्टर हिन्दू समुदाय ने खुद को आहत महसूस किया। इसलिए वैसे लोगों की पहली पसंद संजय जोशी आज भी बने हुए हैं। वहीं, लोकसभा चुनाव 2024 के परिणाम भी इस बात की चुगली करते हैं कि अब आरएसएस-भाजपा के रणनीतिकारों को उन संजय जोशी को भी आगे बढ़ने का मौका देना चाहिए जिनको संगठन का जमीनी कार्यकर्ता माना जाता है। 

 

यह भी सौ फीसदी सही बात है कि आम चुनाव 2014 और 2019 की तुलना में 2024 में भाजपा के बढ़ते सियासी ग्राफ के पिछड़ने से भाजपा में संजय जोशी की उपयोगिता बढ़ी है। यूँ तो मुम्बई, हरियाणा, दिल्ली, उड़ीसा, बिहार आदि के विधानसभा चुनावों में भाजपा पुनः मजबूत हुई है, फिर भी संजय जोशी की उपयोगिता बरकरार है। ऐसा इसलिए कि भाजपा को मूलाधार सवर्ण वर्गों को जोड़े रखते हुए ओबीसी, दलित-आदिवासी और पसमांदा मुसलमानों में अपनी पैठ बढ़ाने की जरूरत है लेकिन पार्टी में सोशल इंजीनियरिंग के जनक के एन गोविंदाचार्य और हिन्दू इंजीनियरिंग के पुरोधा अमित शाह की नीतियों से सवर्णों का एक खेमा नाराज है और विकल्पहीनता की वजह से वह भाजपा के साथ बना हुआ है। 

 

वहीं, गोविंदाचार्य और शाह ने जिन लोगों को पार्टी से जोड़ा, वह पूरी तरह से पार्टी के प्रति वफादार नहीं बने हैं। इससे आरएसएस-भाजपा चिंतित है और डैमेज कंट्रोल के लिए संजय जोशी को मुख्य भूमिका में देखना चाहती है। बार बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव टलते रहने की महत्वपूर्ण वजह यह भी है। पार्टी मामलों के जानकार बताते हैं कि 2005 में एक कथित सीडी कांड (जिसे बाद में फर्जी बताया गया) को लेकर संजय जोशी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया। तब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उभर रहे थे। फिर नितिन गडकरी के अध्यक्षीय कार्यकाल में संजय जोशी को आगे बढ़ाया गया और उन्हें यूपी में संगठन को मजबूत करने की जिम्मेदारी दी गई हालांकि, 2012 में ही संजय जोशी ने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया जिसे नरेंद्र मोदी के दबाव से जोड़ा गया। 

 

कालप्रवाह वश आरएसएस ने कई बार संजय जोशी की वापसी की कोशिश की लेकिन नरेंद्र मोदी ने इसे रोका जिससे संघ-भाजपा में तनाव पैदा हुआ। हाल के वर्षों में भी संजय जोशी की चर्चा संघ द्वारा मोदी-शाह की जोड़ी को चुनौती देने के रूप में हो रही है लेकिन वे अब भी हाशिए पर ही हैं। दरअसल, संजय जोशी के खिलाफ मुख्य आरोप 2005 का सेक्स सीडी कांड था जिसमें उन्हें एक महिला के साथ अंतरंग संबंधों में दिखाया गया था। मसलन गुजरात के एक होटल में जासूसी कैमरे से रिकॉर्ड की गई डेढ़ घंटे की वीडियो सीडी मुंबई भाजपा अधिवेशन से पहले देशभर में फैलाई गई जिसमें जोशी को ब्रह्मचारी होने के बावजूद महिला के साथ कथित संबंधों का आरोप लगाया गया। इसके बाद एक ऑडियो सीडी भी सामने आई जिसमें बड़ौदा की एक महिला के साथ उनकी बातचीत रिकॉर्ड की गई थी।

 

इससे क्षुब्ध संजय जोशी ने मध्य प्रदेश पुलिस से जांच की मांग की जिसने 20 दिनों में ही सीडी को फर्जी और छेड़छाड़ वाला बताकर क्लीन चिट दे दी।  इसके बावजूद  संजय जोशी के राजनीतिक करियर पर इस षड्यंत्र का असर पड़ा। तब प्रवीण तोगड़िया जैसे नेताओं ने दावा किया कि सीडी गुजरात भाजपा नेताओं द्वारा बनवाई गई। इसके अलावा मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं उमा भारती को विधायक दल की बैठक से धक्के देकर निकालने का विवाद भी उनके मत्थे मढ़ा रहा जो चर्चित सीडी कांड से महज 29 दिन पहले हुआ। दरअसल, ये आरोप मुख्यतः नरेंद्र मोदी से उनके मतभेदों से जुड़े माने जाते हैं। 

 

जानकारों के मुताबिक, संजय जोशी सेक्स सीडी कांड की शुरुआत 2005 में मध्य प्रदेश भाजपा विधायक दल की उस बैठक से हुई जहां उन्होंने उमा भारती को धक्के देकर बाहर निकाला। इसके ठीक 29 दिन बाद मुंबई भाजपा राष्ट्रीय अधिवेशन से पहले डेढ़ घंटे की वीडियो सीडी सामने आई जिसमें जोशी को गुजरात होटल में एक महिला के साथ अंतरंग दृश्यों में दिखाया गया। सीडी प्रसारित होने के कुछ दिनों बाद जोशी ने मध्य प्रदेश पुलिस में शिकायत दर्ज कराई और जांच की मांग की। जोशी ने पुलिस को कुछ लोगों द्वारा ब्लैकमेलिंग की शिकायत भी की, साथ ही सीडी को लेकर छेड़छाड़ का संकेत दिया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि वे जांच का सामना करने को तैयार हैं जिसके बाद सीआईडी ने 20 दिनों में क्लीन चिट दी। उनके इस बयान के बावजूद राजनीतिक नुकसान हुआ क्योंकि पार्टी में अफवाहें बनी रहीं। 

 

लिहाजा, तत्कालीन डीजीपी स्वराज पुरी ने सीआईडी को सौंपा।  20 दिनों में रिपोर्ट आई जिसमें सीडी को फर्जी और छेड़छाड़ वाला बताया गया, और जोशी को क्लीन चिट मिली। वहीं, जांच के बीच भुवनेश्वरी चित्ते नामक महिला ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि सीडी में वह नहीं है और गुजरात भाजपा नेताओं ने उसे गायब होने का दबाव डाला। कांड ने जोशी के राजनीतिक करियर को नुकसान पहुंचाया हालांकि बाद में इसे गुजरात नेताओं की साजिश माना गया। 

 

संजय जोशी, आरएसएस के प्रमुख कार्यकर्ता और पूर्व भाजपा संगठन महामंत्री, को नरेंद्र मोदी से मतभेदों के कारण 2012 में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया यानी हटा दिया गया, जिससे वे हाशिए पर चले गए। इस घटना ने भाजपा में आंतरिक असंतोष को बढ़ावा दिया, खासकर संघ और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं में। इससे भाजपा को संगठनात्मक क्षति हुई। जोशी को हाशिए पर धकेलने से भाजपा कार्यकर्ताओं में नाराजगी फैली, क्योंकि वे उनकी बुद्धिमत्ता और संगठनात्मक क्षमता के कायल थे। संघ ने इसे अहंकार का परिणाम माना, जिससे पार्टी विचारधारा और संगठन दोनों कमजोर हुई। 

 

उदाहरणस्वरूप, दिल्ली विधानसभा चुनाव में किरण बेदी को टिकट दिए जाने के फैसले पर जोशी की चेतावनी न मानने से भाजपा को ऐतिहासिक हार मिली। इससे बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भाजपा की संभावनाएं कमजोर हुईं क्योंकि विपक्ष एकजुट हो गया और कार्यकर्ताओं का उत्साह घटा। संघ को चिंता थी कि जोशी कार्यकर्ताओं का केंद्र बनकर पार्टी को चुनौती दे सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इससे भाजपा नेताओं को राहत मिली। कुल मिलाकर यह घटना भाजपा की एकजुटता और संघ के साथ संबंधों को नुकसान पहुंचाने वाली साबित हुई। 

 

यदि संजय जोशी की भाजपा में वापसी होती है तो इसके रणनीतिक फायदे होंगे। संजय जोशी को भाजपा में वापस लाने से पार्टी को संगठनात्मक मजबूती मिलेगी क्योंकि वे आरएसएस के अनुभवी प्रचारक हैं और कार्यकर्ताओं के बीच सम्मानित हैं। आरएसएस उनकी वापसी से वैचारिक संतुलन की उम्मीद करता है, जो पार्टी की मूल विचारधारा को मजबूत करेगा। जोशी देशभर में भाजपा संगठन को मजबूत बनाने में सक्षम माने जाते हैं, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में। उनकी वापसी से कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ेगा और आंतरिक असंतोष कम होगा, जैसा कि हाल के सर्वे में दिखा। 

 

आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक इसे संगठन के आत्मसम्मान का प्रतीक मानते हैं। जोशी की वापसी पार्टी में सत्ता की बजाय विचारधारा को प्राथमिकता देगी जिससे भाजपा का असली चरित्र बरकरार रहेगा। यह आरएसएस-भाजपा संबंधों को सुधारते हुए आंतरिक संतुलन लाएगा। कुल मिलाकर इससे चुनावी रणनीतियों में संगठनात्मक गहराई बढ़ेगी। संजय जोशी की वापसी से नीतिगत बदलाव भी होंगे। 

 

संजय जोशी की भाजपा में वापसी से नीतियां वैचारिक शुद्धता की ओर झुकेंगी जहां सत्ता-केंद्रित रणनीतियों के बजाय आरएसएस की मूल विचारधारा को प्राथमिकता मिलेगी। आरएसएस का मानना है कि जोशी पार्टी को जमीनी कार्यकर्ताओं से जोड़कर राजनीतिक चतुराई पर निर्भरता कम करेंगे। उनकी वैचारिक प्राथमिकताएं भी स्पष्ट हैं। पार्टी में हाईकमान संस्कृति कम होकर संगठन-आधारित निर्णय प्रक्रिया बढ़ेगी, जो विचारधारा को मजबूत करेगी। 

 

भाजपा पर आरएसएस का नियंत्रण बढ़ने से नीतियां संघ की लाइन पर चलेंगी, मोदी-शाह की व्यक्तिगत शैली पर अंकुश लगेगा। जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता-केंद्रित नीतियां उभरेंगी, जो चुनावी रणनीतियों को वैचारिक रूप से संतुलित करेंगी। जहां तक संगठनात्मक प्रभाव की बात है तो जोशी के प्रभाव से भाजपा का चरित्र बदलेगा, सत्ता की संस्कृति से हटकर वैचारिक संगठन पर जोर बढ़ेगा। यह बदलाव आरएसएस-भाजपा संबंधों को मजबूत करते हुए नीतियों में संतुलन लाएगा। कुल मिलाकर, नीतियां अधिक शुद्ध और कार्यकर्ता-उन्मुख होंगी। 

 

पार्टी मामलों के जानकारों के मुताबिक, संजय जोशी को भाजपा अध्यक्ष बनाने में मुख्य बाधा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह हैं क्योंकि उनके साथ पुराने मतभेदों के कारण ही वे जोशी के नाम को मंजूर नहीं करेंगे। हालांकि, आरएसएस जोशी को आगे बढ़ा रहा है लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने पहले ही उन्हें हाशिए पर धकेल दिया था। नरेंद्र मोदी का संजय जोशी के साथ गुजरात काल से ही वैमनस्य है। उनपर सीडी कांड के जरिए करियर तबाह करने का आरोप है। 

 

वहीं, अमित शाह तो नरेंद्र मोदी के करीबी के रूप में जोशी की वापसी का विरोध करते हुए संगठन पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहते हैं। यही वजह है कि मोदी-शाह खेमा पार्टी अध्यक्ष पद पर अपनी पसंद थोपने की कोशिश कर रहा है क्योंकि संघ की स्वतंत्र आवाज को ये पसंद नहीं नहीं। चूंकि आरएसएस भाजपा पर पकड़ मजबूत करने को जोशी को चाहता है लेकिन मोदी ने जेपी नड्डा के बयान से संघ को नाराज किया। यह रस्साकशी अध्यक्ष चुनाव को लंबा खींच रही है। अन्य नाम जैसे नितिन गडकरी या शिवराज चौहान वैकल्पिक हैं। 

 

जहां तक संजय जोशी का भाजपा में पृष्ठभूमि का प्रश्न है तो संजय जोशी पूर्व भाजपा राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रहे जो गुजरात से जुड़े आरएसएस प्रचारक हैं। वे 2012 में नरेंद्र मोदी के दबाव में राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा देकर पार्टी छोड़ चुके थे लेकिन हालिया चर्चाओं में भाजपा अध्यक्ष पद के लिए उनका नाम संघ के समर्थन से उभर रहा है। उनको संघ और भाजपा नेताओं का समर्थन भी प्राप्त है। आरएसएस (संघ) संजय जोशी को भाजपा अध्यक्ष बनाने की कवायद चला रहा है जो मोदी खेमे को साइडलाइन करने का मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है। 

 

वहीं, नितिन गडकरी ने 2012 में उन्हें यूपी संगठन प्रमुख बनाया था और कार्यकर्ता स्तर पर उनका समर्थन मजबूत है। हालिया बिहार विधानसभा चुनावों में भी कुछ भाजपा उम्मीदवारों ने संजय जोशी की मदद ली जो संघ के इशारे पर था। वहीं, उत्तर प्रदेश में संगठन मजबूत करने के लिए गडकरी ने उनका सहयोग लिया हालांकि मोदी ने विरोध किया। हाल ही में मेरठ जैसे क्षेत्रों में स्थानीय भाजपा नेताओं (जैसे बालकृष्ण उपाध्याय) के साथ उनकी सक्रियता दिखी। वर्तमान में कोई स्पष्ट सूची नहीं मिली लेकिन संघ और पुराने संगठन समर्थक मुख्य मददगार हैं। 

 

कहना न होगा कि संजय जोशी के संघ से जुड़े संबंध काफी मजबूत और गहरे हैं। वे संघ के प्रचारक रहे हैं और संघ के प्रमुख संगठनात्मक कार्यों में सक्रिय रूप से सम्मिलित रहे हैं। संघ में उनकी पृष्ठभूमि और सक्रियता ने भाजपा के संगठनात्मक ढांचे में उन्हें महत्वपूर्ण स्थान दिलाया है। संघ के पूर्व प्रमुखों और आरएसएस के वरिष्ठ स्वयंसेवकों से उनका जुड़ाव गहरा है, जो उन्हें भाजपा के भीतर संघ समर्थित नेता के रूप में स्थापित करता है। 

 

संजय जोशी संघ की विचारधारा और संगठनात्मक कार्यप्रणाली को अच्छी तरह समझते हैं जो भाजपा की राजनीति में उनके प्रभाव के प्रमुख कारणों में से एक है। संघ में उनकी भूमिका प्रचारक और संगठनसेवक के रूप में रही, जिन्होंने पार्टी के चुनावी और संगठनात्मक कामों में महत्वपूर्ण मदद दी है। संघ के निर्देशानुसार वे भाजपा के कई फैसलों और केंद्रीकृत रणनीतियों को लागू करने में सहायक रहे हैं। उनके संघ से जुड़ाव ने उन्हें भाजपा के संगठन में कई समर्थन दिलाए हैं, खासकर उन प्रदेशों में जहां संघ की भूमिका अधिक सक्रिय है। 

 

वस्तुतः, संघ के नेतृत्व पर उनका प्रभाव पार्टी में अपनी स्थिति मजबूत करने का आधार है। इस गहरे और प्रभावी संघीय जुड़ाव के कारण उन्हें भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं का सहयोग प्राप्त होता है। 

 

कमलेश पांडेय

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