वर्तमान वैश्विक युद्ध के दौर में बुद्ध की प्रासंगिकता

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  मानव सभ्यता की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वह हर सदी में वही गलती दोहराती है और हर बार वह गलती यह मानकर करती है कि इस बार कुछ नया कर रही है। इन दिनों वैश्विक मंच पर फैली बारूदी गंध और धुआं कोई असामान्य दृश्य नहीं रह गया है। समाचार बुलेटिन अब युद्धों की सूचना नहीं पढ़ते, वे मानो किसी दिनचर्या की तरह बताने लगे हैं कि आज कितने शहर ढहे, कितने लोग बचे और कितने नेता अभी भी शांति के गीत गाते हुए हथियारों के सौदे कर रहे हैं। शांति के नोबल के लिए अपना डेटा बना रहे हैं। 
            महाभारत का युद्ध 18 दिनों में समाप्त हो गया था,  कलिंग का युद्ध जिसने सम्राट अशोक को बुद्ध का अनुयाई बना दिया था,वह 262 ईसा पूर्व से 261 ईसा पूर्व की संक्षिप्त अवधि में हुआ, पर आज दुनियां भर में अनेक युद्ध निरंतर चल रहे हैं। आज चीन और ताइवान जो बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं वे भी परस्पर युद्ध के मुहाने पर हैं।
        ऐसे विचित्र समय में बुद्ध की छवि धुंध से निकलती हुई , मानवता के लिए किसी प्राचीन किंतु प्राणवान रोशनी की तरह है। उनकी प्रासंगिकता पर चर्चा करना किसी पुराने श्लोक का पाठ नहीं, बल्कि वर्तमान की कटु सच्चाइयों का सामना करना है।
          आखिर बुद्ध ने ऐसा क्या कहा था जो आज तक हमारी चेतना को जागृत कर रहा है। उन्होंने युद्ध के मैदानों से बाहर निकलने का मार्ग दिखाया था, पर  मनुष्य को यह मार्ग सदा बहुत कठिन लगा है। दुनिया की शक्तियां आज भी यह मानती हैं कि शांति युद्धों से निकलेगी और समझौता मिसाइल के साए में होगा, जबकि बुद्ध की शिक्षा है कि हिंसा का अंत हिंसा को , और जन्म देता है, यह एक चक्र है ।  वर्तमान संघर्षों का अध्ययन बताता है, हर बदले की आग में नया बदला छिपा रहता है। हर सीमा पर खड़ी बंदूक के पीछे कोई आहत मन खड़ा है जिसे यह विश्वास दिला दिया गया है कि दूसरे का विनाश ही उसकी सुरक्षा है।
         बुद्ध की शिक्षा , मनुष्य को भीतर से बदलने की बात करती है। उस भीतर में कोई राष्ट्रीय सीमा नहीं होती। वहां कोई सैनिक नहीं होता, कोई दुश्मन नहीं, केवल एक बेचैन मन होता है जो शांति की तलाश में भटकता होता है। उनका मार्ग यह नहीं कहता कि युद्ध से भाग जाओ, बल्कि यह बताता है कि युद्ध मन से हटे बिना धरती से कभी नहीं हटेगा। आज के राजनैतिक शासकों के सामने यह कथन कितना असुविधाजनक है, यह इसी से सिद्ध होता है कि वे शांति की बात करते हुए भी परमाणु हथियारों के परीक्षण करते रहते हैं। बुद्ध  बताते थे कि अहंकार ही युद्ध का असली कारण है और यह अहंकार न कोई सीमापार करता है न किसी झंडे का गुलाम होता है। वह हम सभी में समान रूप से पलता है और जब वह फूटता है तो छोटे या बड़े रूप में मानवता उसकी चपेट में आ जाती है। आज की दुनिया में यदि बुद्ध प्रकट होते तो शायद कहते कि मनुष्य ने तकनीक को तेज कर लिया है, लेकिन मन को सुस्त छोड़ दिया है। उसके  हथियार बिजली की गति से चलने लगे हैं, पर समझ अभी भी पैदल है।
            बुद्ध की प्रासंगिकता इसलिए भी बढ़ जाती है कि उन्होंने दुख को स्वीकारने की कला सिखाई थी। आज का समाज दुख से बचना चाहता है, उसे नकारना चाहता है, छिपाना चाहता है और उसके नकार में ही वह और हिंसक होता जा रहा है। यदि मनुष्य अपने भीतर के दुख को पहचान ले, उसे समझ ले, तो शायद वह दूसरे के दुख को भी समझ पाए और वही समझ युद्धों का अवरोध बन सकती है। दुख का यह मनोविज्ञान शांति के किसी भी सम्मेलन से कहीं अधिक कारगर है, पर यह विज्ञान , सत्ता को डराता है क्योंकि इससे हथियारों का व्यापार बंद हो सकता है।
         वैश्विक युद्धों के बीच बुद्ध का विचार किसी उपदेश की तरह नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक आवश्यकता की तरह  है। मनुष्य ने बाहर की दुनिया को जितना भी बदल लिया हो, भीतर की दुनिया वैसी ही है। उस भीतर से ही हिंसा का बीज फूटता है और उसी भीतर में दया की पहली कोंपल जन्म लेती है। बुद्ध ने इसी कोंपल की ओर इशारा किया था। उन्होंने कहा था कि मन का शुद्धिकरण करो, तभी बाहरी दुनिया भी शांत हरी भरी होगी। लेकिन हम ने मन की बंजर जमीन को यूं ही छोड़ रखा है तथा प्रभुता के पागलपन में युद्ध के लिए अपने कुतर्क गढ़ लिए हैं ।
        आज जब कोई राष्ट्र दूसरे पर आक्रमण करता है तो वह अपने लोगों को यह विश्वास दिलाता है कि यह आवश्यक है। बुद्ध ऐसी आवश्यकताओं पर मुस्करा देते। वे पूछते कि यदि हिंसा आवश्यक है तो शांति किस दिन गैर आवश्यक घोषित कर दी जाएगी। वे शायद यह भी बताते कि मनुष्य की सबसे बड़ी भूल यह है कि वह युद्ध को असाधारण घटना मानता है जबकि वह उसे अपने भीतर रोज घटित होने देता है। वही भीतर का युद्ध बाहर के युद्धों को जन्म देता है और मनुष्य इस चक्रव्यूह में फंसता जाता है।
         इस दुनियावी संकटग्रस्त समय में बुद्ध की प्रासंगिकता किसी पुरानी गुफा से निकली प्रतिध्वनि नहीं है। वह वर्तमान का दबाव है, विवेक का आग्रह है, और मनुष्य का अंतिम सहारा है। यदि दुनिया शांति चाहती है तो उसे बुद्ध को पढ़ना नहीं, समझना पड़ेगा। समझने के लिए मन को निर्मल करना पड़ेगा और यह निर्मलता शायद किसी सौदेबाज संधि से उत्पन्न नहीं होगी। यह तब पैदा होगी जब मनुष्य समझ पाएगा कि जीतना भी एक प्रकार की हार हो सकती है और युद्धों का कोई विजेता नहीं होता, वहां केवल मानवता घायल होती है।
       बुद्ध मानव मन की इकाई पर वैचारिक कार्य चाहते हैं, पर वर्तमान विश्व समान स्वार्थी समूहों में उन प्रभुतावादी मूर्ख नेताओं के हाथों चल रहा है, जिन्होंने कभी बुद्ध को पढ़ा या समझा तक नहीं है, वे किसी विचारक लेखक की लिखी बुद्ध की सैद्धांतिक बातों को अपने तरीके से विवेचना कर  स्पीच देते हैं।
   बुद्ध की रोशनी आज भी उतनी ही उजली है, बस हमारे  आंखों पर चढ़े चश्मे की धूल बढ़ गई है। यदि हम इस धूल को साफ कर पाएं, तो शायद दुनिया को समझ आएगा कि हथियारों का ढेर जितना ऊंचा होता है, मनुष्य उतना ही छोटा हो जाता है। और जब मनुष्य छोटा होने लगे तो बुद्ध की राह ही उसे फिर से बड़ा बना सकती है। इसके लिए आम लोगों को केवल बुद्ध के मंदिर जाने से ज्यादा उनके विचार को राजनीति में , अपने नेतृत्व के चयन में इस्तेमाल करना पड़ेगा। बुद्ध की शिक्षा में वैश्विक शान्ति है, हर मन की शांति है, उसका इस्तेमाल आवश्यक है, यही उनकी सबसे बड़ी और सबसे आवश्यक प्रासंगिकता है।

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