सकारात्मक सोच

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श्रद्धा, विश्वास का प्रतीक है। आदमी के अंदर विश्वास की भावना यदि मजबूत है तो वह अपने भीतर श्रद्धा को अटूट बंधन में बांध सकता है। अविश्वास की धार इस बंधन को बिना कुछ सोचे काटने में देर नहीं लगाती। श्रद्धा के जरिए आदमी सकारात्मक सोच रखकर प्रगति के सोपान पर बढ़ता चला जाता है, क्योंकि कर्म विश्वास उसे आगे बढ़ाने को प्रेरित करता है। मन के भीतर झिझक और डर का भाव अविश्वास की जननी है, इससे आदमी नकारात्मक सोच के बंधन में उलझ जाता है, जिसमें से वह निकल नहीं सकता। वक्त अब बदल गया है आदमी की दूरियां अब नजदीकियों में बदल गई हैं। तत्काल निर्णय लेने का वक्त आ गया है और जो वक्त की रफ्तार को समझ गये वे आगे बढऩे में अपनी गति पकड़ लेते हैं। मुट्ठी में सिमटी दुनिया को विश्वास की डोर ही बांधकर रख सकती है। आज अगर जीवन मेें हम शांति चाहते हैं तो हमारे समक्ष राम सुख के रूप में हैं और सीता जी शांति के रूप में। जीवन में जब शांति नहीं होती है तो सुख अकेला रोता है। जीवन में इन दोनों का अर्थात् सुख और शांति का होना नितान्त आवश्यक है। आज हम इस संसार में मानव के रूप में तो आ गये हैं पर मानवता अभी हममें पूर्णरूप से नहीं आयी है। तेरा-मेरा, अपना-पराया, राग-द्वेष की वजह से हममें पूर्ण मानवता का अभाव है।
आज मानव में जो अज्ञानता रूपी अंधकार व्याप्त है, उसे दूर करना होगा। जब मानव बुराइयों और अज्ञानता से दूर होकर ज्ञान की ओर चला जाता है तो उसमें देवत्व की शक्ति आ जायेगी। यह तभी होगा जब व्यक्ति गुरु की शरण में जाये और भाईचारा मातृत्व, प्रेम बढ़ाये। धन, सम्पत्ति और परिवार को व्यक्ति नित्य मानकर चलता है, लेकिन यह अनित्य है। इसके अभाव में वह दु:खी भी होता है। सच्चा मनुष्य प्रिय के संयोग में फूलता नहीं है और वियोग में दु:खी नहीं होता है। ऐसे ही वह अप्रिय के संयोग में न तो दु:खी होता है और न ही वियोग में सुखी होता है। इस अनित्य शरीर द्वारा नित्य की खोज करना ही सनातन धर्म है। इस संसार में जो भी प्राणी जन्म लेता है उसे मरना ही पड़ता है। इस भावना को समझने वाला व्यक्ति ही संसार सागर से पार हो सकता है।
शरीर का अदृश्य छोर आत्मा है और आत्मा का ही दृश्य छोर शरीर है। अगर कोई अपने शरीर को भीतर से जान जायेगा तो बहुत शीघ्र वह उस कुण्ड पर पहुंच जायेगा जहां से शरीर की सारी शक्तियां उठ रही हैं। उस कुण्ड में सोई हुई शक्ति का नाम ही कुण्डलिनी है। मंगलाचरण हमारे जीवन में हमारे अन्त:करण में अभिमान को दूर करने के लिए किया जाता है। ज्ञानी पुरुष को भी अपने ज्ञान का अभिमान हो जाता है, करोड़पति को भी अपने धन का अहम् हो जाता है किन्तु यदि मानव में विनम्रता आ जावे तो उसमें अभिमान नम्रता के रूप में परिलक्षित हो जाता है तथा मानव में धर्म के प्रति श्रद्धा आती है व जीवन में मृदुलता, सरलता आने से धर्म का वास होता है। अच्छे चरित्र पढऩे और उसके वाचन करने से कमजोर व्यक्ति में भी हिम्मत आ जाती है। महापुरुषों के जीवन चरित्र पढऩे व सुनने से हमें विपत्ति के समय उसका सामना करने का रास्ता सहज ही मिल जाता है।

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