अमरपाल सिंह वर्मा
कीटनाशकों के अंधाधुध इस्तेमाल के दुष्प्रभावों से दुनिया भर के लोग परेशान हैं। हमारी धरती, वायु से लेकर खानपान की चीजों तक कीटनाशकों की मौजदूगी के प्रमाण
पहले ही मिल चुके हैं। दुनिया में विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों ने कीटनाशकों को लेकर नई चिंता पैदा की है। इन अध्ययनों के नतीजे यकीनन डराने वाले हैं। हाल में इस अध्ययन की रिपोर्ट आई है जिससे पता चलता है कि कीटनाशक अब केवल
खेतों या फसलों तक सीमित नहीं रहे। यह रासायनिक जहर अब बादलों में भी पहुंच चुका है, यानी जो बादल कभी जीवनदायी
जल के रूप में अमृत बरसाते थे, अब वही प्रदूषित बूंदों के जरिए धरती पर जहर बरसा रहे हैं। भारत में भी बादलों में कीटनाशकों के मौजूद होने की पुष्टि हो चुकी है।
हाल में यह भयावह सच्चाई फ्रांस के क्लेरमोंट औवर्गे विश्वविद्यालय की टीम के अध्ययन में
सामने आई है। इस टीम ने 2023-24 में फ्रांस और इटली के बादलों व बारिश के नमूनों का विश्लेषण किया तो परिणाम
चौंकाने वाले आए। अध्ययन में पाया गया कि बारिश के पानी में 32 तरह के कीटनाशक पाए गए जिनमें से कई कीटनाशक यूरोप में एक दशक से प्रतिबंधित हैं। अध्ययन में पाया गया है कि एक तिहाई नमूनों में कीटनाशक की मात्रा पीने योग्य पानी की सीमा से अधिक थी। अध्ययन में लगाए गए अनुमान के मुताबिक केवल फ्रांस के ऊपर मंडराते बादलों में ही
6 से 139 टन कीटनाशक मौजूद हो सकते हैं। यानी यह जहर हवा में घुल चुका है और बारिश के साथ खेतों, झीलों, तालाबों, जंगलों, यहां
तक कि पहाड़ों तक पहुंच रहा है। यह वही स्थिति है जैसी कुछ दशक पहले माइक्रो प्लास्टिक के साथ देखी गई थी। माइक्रो प्लास्टिक पहले नदियों में, फिर मछलियों में पाया गया और अब हमारे शरीर में भी यह विद्यमान है।
भारत में यह पता लगाने के लिए अध्ययन हुए हैं कि भारत के बादलों में अमृत है या जहर?
यह चिंताजनक है कि हमारे देश के बादलों में भी कीटनाशक पहुंच जाने की पुष्टि हो चुकी है। कोलकाता स्थित भारतीय विज्ञान एवं शिक्षा अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ताओं के मुताबिक, पश्चिमी घाट और हिमालय क्षेत्र के बादलों में लगभग 12 प्रकार की विषैली धातुओं की मौजूदगी दर्ज की गई है। इनमें कैडमियम, क्रोमियम, तांबा और जस्ता जैसी धातुएं शामिल हैं। ये खतरनाक तत्व निचले इलाकों में फैले प्रदूषण से उडक़र बादलों में घुल जाते हैं और
फिर पृथ्वी के सबसे ऊंचे व संवेदनशील पारिस्थितिक क्षेत्रों तक पहुँच जाते हैं। भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत एक स्वायत्त शोध
संस्था द्वारा किए गए अध्ययन में यह निष्कर्ष सामने आया है कि पूर्वी हिमालय के बादलों में
प्रदूषण की मात्रा पश्चिमी घाट की तुलना में लगभग डेढ़ गुना अधिक है। भारत विश्व के सबसे बड़े कीटनाशक उपभोक्ता देशों में से एक है। हर साल 60 हजार टन से अधिक कीटनाशक देश भर के खेतों में डाले जाते हैं। इनमें से बड़ी मात्रा में रासायनिक अवशेष मिट्टी, पानी और हवा में मिल जाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के आंकड़ों के अनुसार भारत में
कीटनाशकों का उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2000 में देश में जहां 44,958 टन कीटनाशकों का प्रयोग होता था, वहीं 2020 तक
यह मात्रा बढकऱ 61,702 टन हो गई है। इन बीस सालों में भारत में कीटनाशक उपभोग में करीब 37.24 फीसदी की वृद्धि दर्ज
की गई है। भारत में कीटनाशकों के उपयोग की रफ्तार विशेष रूप से 2000 से 2012 के बीच सबसे
अधिक रही। इसके बाद 2017 तक कीटनाशकों क उपभोग स्थिर स्तर पर बना रहा और फिर इसमें थोड़ी गिरावट देखने को मिली। 2020 के आंकड़ों के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका सबसे बड़ा कीटनाशक उपभोक्ता है,
जहां लगभग 4.1 लाख टन कीटनाशक उपयोग किए गए। इसके बाद ब्राजील (3.8 लाख टन) और चीन (2.7 लाख टन) का स्थान है। भारत भी दुनिया के सर्वाधिक कीटनाशक इस्तेमाल करने वाले देशों में शामिल है।
मानसूनी बादलों का दूषित होना चिंताजनक है। अगर कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल नहीं रोका गया तो इससे बारिश की हर बूंद खेतों को सींचने के साथ-साथ उनमें नया जहर भी मिला सकती है जिससे नदियां, भूजल और खाद्य श्रृंखला तक
सब कुछ प्रभावित होगा। जो अध्ययन हुए हैं, उनसे हमें चिंता इसलिए करनी चाहिए क्योंकि देश में कीटनाशकों के
लिहाज से स्थिति पहले से ही गंभीर है। पंजाब, हरियाणा समेत कई हिस्सों में भूजल में कीटनाशकों के अंश पाए जा चुके हैं। पंजाब और राजस्थान के श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिलों को तो ‘कैंसर बेल्ट’ कहा जाने
लगा है, जहां कीटनाशकों से दूषित पानी गंभीर बीमारियों का कारण बन रहा है। श्रीगंगानगर जिले में बीस साल पहले ही मांओं के दूध में अत्यधिक कीटनाशक पाए जा चुके
हैं। हरियाणा की हिसार यूनिवर्सिटी के शोध में भी मां के दूध में जहर की पुष्टि हो चुकी है। यह चिंताजनक है कि विभिन्न राज्यों में फसलों पर अत्यधिक छिडक़ाव से मिट्टी की उर्वरता घट
रही है। एक वैज्ञानिक अध्ययन से इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि गंगा नदी में मिले विषैले रसायनों
का खतरनाक स्तर लुप्तप्राय गंगेटिक डाल्फिन के स्वास्थ्य और अस्तित्व के लिए खतरा
बन रहा है।
कुल मिलाकर, जब कीटनाशकों का जहर धरती, पानी और हवाओं में पहले ही पहुंच चुका है, वहां बादलों में इसकी पहुंच भयभीत करने वाली है। कीटनाशक अब किसी एक खेत, देश या महाद्वीप की समस्या नहीं रहे। यह विश्वव्यापी समस्या हैं और प्रकृति के साथ समन्वय समाप्त कर हमने इसे खुद खड़ा
किया है। अब अगर बादल भी दूषित हो गए हैं तो यह सबसे बड़ी चेतावनी है। समय आ चुका है कि हमें स्थिति को नियंत्रण से बाहर होने से बचाने के लिए आगे आना
चाहिए। कई पुराने और प्रतिबंधित कीटनाशकों का इस्तेमाल अब भी खेतों में किया जा रहा है। इसे रोकना होगा। कीटनाशकों के नियंत्रित इस्तेमाल की नीति को अमली जामा पहनाने की कोशिश में तेजी लानी होगी। प्राकृतिक खेती समाधान की ओर बढऩे का जरिया है। खेती और बागवानी में वैकल्पिक जैविक उपायों को बढ़ाना होगा। इससे भी जरूरी है कि भारत के मानसूनी बादलों और बारिश के नमूनों में कीटनाशकों
की उपस्थिति की निगरानी शुरू की जाए। देश में बारिश और बादलों के नमूनों की जांच होनी चाहिए क्योंकि जीवन का प्रतीक रहे
बादल अब प्रदूषण के वाहक बन रहे हैं। अगर हमने रासायनिक खेती से मुख नहीं मोड़ा तो आने वाले समय में इसके परिणाम
क्या होंगे, इसकी कल्पना ही डरा देने के लिए काफी है।
