नए लेबर कोड: सुधार या खतरे की घंटी

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 भारत के श्रम बाज़ार में आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा कानूनी बदलाव चुपचाप लागू कर दिया गया है। चार नए लेबर कोड—जिन्हें सरकार ऐतिहासिक सुधार बता रही है-देश के करोड़ों कामगारों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी को सीधे प्रभावित करेंगे। उद्योग जगत इसे आधुनिक अर्थव्यवस्था की ज़रूरत मानता है लेकिन मज़दूर संगठनों के लिए यह अधिकारों के क्षरण की शुरुआत है। असल सवाल यही है कि ये बदलाव रोजगार को सुरक्षित बनाएंगे या असुरक्षा को क़ानूनी जामा पहनाएंगे। क्या भारत स्थायी नौकरियों की अवधारणा से विदा लेकर कॉन्ट्रैक्ट और गिग इकॉनॉमी की ओर निर्णायक मोड़ ले चुका है?

 

सरकार का दावा है कि नए लेबर कोड से उद्योगों को लचीलापन मिलेगा, निवेश बढ़ेगा और ‘ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस’ सुधरेगा। लेकिन किसी भी सुधार की असली परीक्षा यह होती है कि वह सबसे कमजोर तबके के लिए क्या बदलता है। अगर विकास की कीमत नौकरी की स्थिरता, कामगार की आवाज़ और सामाजिक सुरक्षा है, तो यह सुधार नहीं, चेतावनी की घंटी है। सवाल यह नहीं है कि बाज़ार कितना आज़ाद होगा. सवाल यह है कि काम करने वाले कितना सुरक्षित रहेंगे।

 

44 कानूनों से 4 कोड: सरलता या नियंत्रण

सरकार ने 44 पुराने श्रम कानूनों को समेटकर चार कोड बनाए हैं—कोड ऑन वेजेज, कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी, इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड और ऑक्युपेशनल सेफ्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशंस कोड। वेजेज कोड 2019 में पारित हुआ जबकि शेष तीनों कोड 2020 में संसद से मंज़ूरी पा चुके थे। इसके बाद लंबे समय तक इन पर अमल नहीं हुआ जिससे यह धारणा बनी कि इन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। 2024 में सरकार का दूसरा कार्यकाल समाप्त हो गया और तीसरे कार्यकाल के शुरुआती महीनों में भी इन पर कोई सार्वजनिक चर्चा नहीं हुई। ऐसे में अचानक इन श्रम संहिताओं को लागू करने की अधिसूचना जारी होना कई सवाल खड़े करता है।

 

सरकार का तर्क है कि पुराने कानून बिखरे हुए थे और उनमें पारदर्शिता की कमी थी, इसलिए एक सरल और एकीकृत ढांचा बनाया गया। यह भी कहा गया कि ये कोड कर्मचारियों और मज़दूरों के हित में हैं और श्रम सुधारों की दिशा में एक प्रगतिशील कदम हैं लेकिन यह नहीं बताया गया कि पिछले कार्यकाल में इन्हें लागू करने से सरकार को किसने रोका था और अब अचानक इनकी क्या अनिवार्यता पैदा हो गई।

 

यह भी याद रखना ज़रूरी है कि इन संहिताओं को जिस समय संसद से पारित कराया गया था, वह कोरोना महामारी का दौर था। नोटबंदी के बाद पहले से ही जूझ रही अर्थव्यवस्था पर महामारी ने करारा प्रहार किया। लाखों लोग बेरोज़गार हुए, प्रवासी मज़दूर सड़कों पर आ गए और देश ने अभूतपूर्व मानवीय संकट देखा। तब सरकार ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ का नारा दिया था। दिलचस्प है कि अब, श्रम संहिताओं को लागू करते समय भी वही नारा दोहराया जा रहा है। लेकिन मज़दूर संगठन तब भी इनका विरोध कर रहे थे और आज भी यही कह रहे हैं कि ये संहिताएं मज़दूरों से ज़्यादा पूंजीपतियों के हितों को साधती हैं।

 

काग़ज़ पर अधिकार, ज़मीन पर डर

न्यूनतम वेतन की गारंटी, एक साल में ग्रेच्युटी, महिलाओं को समान वेतन, समय पर सैलरी, गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स की कानूनी पहचान-ये सभी प्रावधान काग़ज़ पर सकारात्मक दिखाई देते हैं। लेकिन असली चिंता वहीं से शुरू होती है, जहां नौकरी की स्थिरता, हड़ताल का अधिकार और काम के घंटों का सवाल आता है।

यह समझना ज़रूरी है कि ‘क़ानून’ और ‘संहिता’ में बुनियादी अंतर होता है। क़ानून में उल्लंघन पर कड़ी सज़ा का प्रावधान होता है, जबकि संहिता में अधिकतर मामलों में जुर्माने तक ही सीमित दंड रखा गया है। इससे अनुपालन की गंभीरता अपने-आप कमजोर पड़ जाती है।

फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट: स्थायित्व पर चोट

फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट (एफटीसी ) को लेकर सबसे अधिक विवाद है। इसके तहत कंपनियां स्थायी पदों को भी कॉन्ट्रैक्ट आधारित बना सकती हैं। सरकार का कहना है कि एफटीसी वर्कर को स्थायी कर्मचारी जैसी सुविधाएं मिलेंगी, लेकिन मज़दूर संगठनों का तर्क है कि इससे नौकरी की सुरक्षा खत्म हो जाएगी। कॉन्ट्रैक्ट अवधि पूरी होते ही बिना किसी मुआवज़े के काम समाप्त किया जा सकेगा।

इसके साथ ही फैक्ट्री बंद करने और छंटनी के लिए कर्मचारियों की सीमा 100 से बढ़ाकर 300 कर दी गई है। इसका मतलब यह है कि देश की लगभग 70–75 प्रतिशत औद्योगिक इकाइयाँ बिना सरकारी अनुमति कर्मचारियों को निकाल सकती हैं। उद्योग के लिए यह लचीलापन है लेकिन कामगारों के लिए असुरक्षा की एक चौड़ी खाई।

काम के घंटे: काग़ज़ पर सीमा, ज़मीन पर दबाव

कानून कहता है कि कुल काम के घंटे नहीं बढ़ाए जाएंगे लेकिन राज्यों को इसमें छूट दी गई है। कई राज्यों ने 12 घंटे की शिफ्ट और ओवरटाइम की ऊपरी सीमा बढ़ा दी है। यह व्यवस्था नियोक्ताओं के लिए सुविधाजनक हो सकती है, लेकिन मज़दूरों के लिए शारीरिक और मानसिक बोझ बढ़ाने वाली है।

हड़ताल: अधिकार से अपराध की ओर

इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड की एक और विवादित धारा हड़ताल से जुड़ी है। अब हड़ताल से पहले 60 दिन का नोटिस अनिवार्य होगा। वार्ता, मध्यस्थता और रिफ़रल प्रक्रिया के दौरान हड़ताल पर रोक रहेगी और उल्लंघन की स्थिति में जुर्माना और जेल तक का प्रावधान है। पहले ऐसे नियम केवल ज़रूरी सेवाओं तक सीमित थे, अब इन्हें लगभग सभी क्षेत्रों पर लागू कर दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि हड़ताल अब एक संवैधानिक अधिकार से फिसलकर अपराध की श्रेणी में प्रवेश कर रही है।

सामाजिक सुरक्षा: पहचान है, भरोसा नहीं

गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स को पहली बार कानूनी परिभाषा दी गई है, यह एक महत्वपूर्ण कदम है लेकिन उनकी सामाजिक सुरक्षा कैसी होगी, फंडिंग कौन करेगा और पात्रता कैसे तय होगी-इन सवालों पर स्पष्टता नहीं है। पहचान मिल गई है, लेकिन सुरक्षा अभी भी धुंध में है।

राज्यों की भूमिका: एक देश, कई नियम

श्रम समवर्ती सूची का विषय है। कोड केंद्र ने बनाए हैं, लेकिन नियम राज्यों को बनाने हैं। कई राज्यों ने अभी तक पूरी अधिसूचना जारी नहीं की है। इससे देश में एक असमान श्रम ढांचा उभरता दिख रहा है, जहाँ काम के घंटे, सुरक्षा और अधिकार राज्य दर राज्य बदलेंगे।

 

नए लेबर कोड भारत को ऐसे रोजगार मॉडल की ओर ले जाते दिखते हैं,  जहां  स्थायी नौकरी धीरे-धीरे अपवाद बनती जाएगी और कॉन्ट्रैक्ट व गिग वर्क सामान्य नियम। पश्चिमी देशों में इस मॉडल ने उत्पादन और मुनाफ़ा तो बढ़ाया, लेकिन सामाजिक अस्थिरता और असमानता भी गहरी की। भारत में इसका असर और गंभीर हो सकता है, क्योंकि यहां पहले से ही अधिकांश कामगार असंगठित हैं और सामाजिक सुरक्षा बेहद सीमित है।

देश ने मज़दूर अधिकार किसी दान में नहीं पाए थे. ये दशकों की लड़ाई, हड़तालों और सामूहिक संघर्षों का नतीजा थे। 44 श्रम कानूनों का ढांचा उसी संघर्ष की विरासत था। नए लेबर कोड उस संतुलन को पलटते नज़र आते हैं, जहां  सुविधा का पलड़ा भारी है और सुरक्षा का हल्का। अब फैसला देश को करना है- क्या हम मज़बूत अर्थव्यवस्था सिर्फ़ मज़बूत कंपनियों के भरोसे खड़ी करना चाहते हैं या मज़बूत कामगारों के साथ, जो हर विकास की असली नींव होते हैं। सुधार तभी टिकाऊ होते हैं, जब विकास के साथ न्याय भी चले; वरना इतिहास गवाह है कि असुरक्षा पर खड़ी तरक्की देर तक नहीं टिकती।


राजेश जैन

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