भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण नाम को युगों-युगों से संत, महात्मा, योगी, संयासी, ज्ञानी, गृहस्थ आदि सभी ने गाया तथा सुना-सुनाया है। प्रभु के जीवन चरित्रों में दर्शन, अध्यात्म, भक्ति, योग, मनोविज्ञान आदि सभी गुण दिखाई देते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने दिव्य दर्शन के साथ ज्ञान, भक्ति, कर्म आदि के मार्ग को बताया है। श्रीरामचरितमानस में प्रभु श्रीराम के जीवन चरित्र को गोस्वामी तुलसीदास ने बड़े ही सुंदर शब्दों में सामान्य जन की भाषा में लिख दिया है। विचार करें तो यह दोनों ही पावन-पवित्र ग्रंथ भारतीय संस्कृति और दर्शन के महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। शैलीगत दृष्टि से देखें तो गीता संस्कृत भाषा और श्लोकों में है, इसमें 700 दोहे हैं। श्रीरामचरितमानस चौपाई, दोहा, सोरठा और छंदों में है. इसमें सात कांड हैं। सात का संयोग दोनों में ही है। इन दोनों ग्रंथों में कई ऐसे विचार और भाव हैं, जो समान रूप से प्रकट होते हैं। दोनों ही ग्रंथ कर्म, भक्ति, ज्ञान, धर्म आदि के महत्व पर बल देते हैं। यह दोनों ही ग्रंथ भारतीय और वैश्विक जनमानस की आत्मा के ग्रंथ हैं। इन दोनों दिव्य ग्रंथों का विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि, जब जब होई धरम कै हानी, बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी। तब-तब धरि प्रभु विविध सरीरा, हरहिं दयानिधि सज्जन पीरा।। अर्थात जब-जब पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, दुष्टों और अभिमानियों का प्रभाव बढ़ने लगता है। तब सज्जनों की पीड़ा को हरने के लिए करुणानिधान प्रभु श्रीराम अलग-अलग रूपों मे अवतार लेते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि, यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है,तब-तब मैं धर्म की स्थापना के लिए, अपने आप को अवतार रूप में प्रकट करताहूँ। मानस में गोस्वामी जी लिखते हैं कि ,राम जन्म के हेतु अनेका, परम विचित्र एक ते एका।।इसका अर्थ है प्रभु श्रीराम जन्म के कई कारण हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारण है, भक्तों को दर्शन देना, उनके कष्ट हरना, उनका उद्धार करना और असुरों का संहार करना।
गीता में भगवान कहते हैं कि,कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। अर्थात भगवान अर्जुन को कहते हैं कि कर्म करने का अधिकार तुम्हारा है लेकिन कर्म के फल का अधिकार नहीं। दूसरे शब्दों में समझें तो भगवान अर्जुन को कहते हैं कि तुम्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, परिणाम के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए। रामचरितमानस में गोस्वामी जी लिखते हैं कि, कर्म प्रधान बिस्व रचि राखा। जो जस करहि सो तस फल चाखा।। कहने का भाव है कि ईश्वर ने संसार को कर्म प्रधान बना रखा है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल चखता है। विचार करें तो कर्म से किसी का पीछा छूटने वाला नहीं है।
श्रीमद्भगवद्गीता में ईश्वर की सर्वव्यापकता दिखाई देती है, यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।। अर्थातजो-जो भी ऐश्वर्ययुक्त, कान्तिमान और शक्तिशाली वस्तु है, उसे तुम मेरे तेज के अंश से उत्पन्न जानो। गीता में ही भगवान कहते हैं, अहं सर्वस्य प्रभवो. इसका अर्थ है मैं सभी का मूल कारण हूँ। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि अहम आत्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितःअर्थातहे अर्जुन, मैं सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान आत्मा हूँ। गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस में लिखते हैं कि हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना।।अर्थात भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं। देश, काल, दिशा में सभी जगह प्रभु का वास है।
दोनों ग्रंथों की समानताएं ही हमें बार-बार इन्हें पढ़ने- सुनने- गाने के लिए प्रेरित करती रहती हैं। ज्ञानी जन कहते हैं कि, राम कृष्ण दोऊ एक हैं, अंतर नहीं निमेष। उनके नयन गंभीर हैं, इनके चपल विशेष। विचार करें तो दोनों ही दिव्य ग्रंथ मानव जीवन के उत्थान के लिए नैतिक, भक्तिपरक, आध्यात्मिक, दार्शनिक आदि सिद्धांतों का उपदेश देते हैं। यद्यपि इनकी प्रस्तुति के तरीके भिन्न हैं। गीता भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद से प्रकट हुई है और श्रीरामचरितमानस भक्त के भाव से प्रकट हुई है।
डॉ. नीरज भारद्वाज
