समस्त विश्व एवं मानव जीवन सदैव समय, परिस्थितियों एवं व्यवहार की अनुकूलता, प्रतिकूलता के अनुपात में परिवर्तनशील रहा है। सभी प्राणियों की अन्तर्मन की मूल इच्छा सुखी, स्वतन्त्र एवं सम्माननीय एवं मर्यादित जीवन जीने की होती है तथा मानव सहित सभी प्राणी प्रकृति से प्राप्त क्रियाशील मस्तिष्क का उपयोग जीवन को सुखी एवं समुन्नत बताने तथा प्रकृति से अधिकाधिक लाभ उठाने के लिये करते आये हैं तथा आगे भी करते रहेंगे।
आज के परिवेश में छोटे परिवारों का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। यह देखने में आता है कि विभाजन की इच्छा न होने पर भी परिवार विभाजित होते हैं और इसका कारण 100 में से 10 बार सास एवं बहू होती हैं। विभाजन के पश्चात दोनों से पूछा जावे तो पता चलता है कि विभाजन से दोनों को पर्याप्त शिक्षा मिल गई है और वे विभाजन को अच्छा नहीं मानते किन्तु यह कहते हैं कि फिर भी जो हुआ अच्छा हुआ, क्योंकि इसकी आवश्यकता उत्पन्न हो गई थी।
सामाजिक कार्यकर्ता होने के कारण मैं विभिन्न परिवारों से जुड़ी रही हूं तथा अपने कार्यक्षेत्र से दूरस्थ परिवारों के सदस्यों से भी चर्चा के दौरान मैंने यह पाया कि किसी बड़े एवं प्रतिष्ठित परिवार के टूटने (विभाजित होने) में मुख्यत: निम्नलिखित कारण होते हैं-
1. एक घर से दूसरे घर में जाने वाली बेटी, बेटी न होकर बहू के रूप में स्वीकार की जाती है।
2. बहू पति की माता को, माता के बजाय सास के रूप में स्वीकार करती है।
3. दोनों ही अपने-अपने तरीके से एक-दूसरे पर अधिकार एवं नियंत्रण बनाये रखने की चेष्टा करती हैं किन्तु सास इस नियंत्रण एवं अधिकार को अपना हक समझती है तथा इसे बनाये रखने में अपने पुत्र (बहू के पति) का सहारा भी प्राप्त करती है। दूसरी तरफ बहू नई एवं सामान्यत: अपरिचित एवं अपरिपक्व होने के कारण अपने कत्र्तव्य की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करती है किन्तु सास के नियंत्रण कार्य में सहयोग न देने की प्रवृत्ति, पुत्रियों के प्रति अधिक स्नेह को सहन नहीं कर पाती तथा महसूस करने लगती है कि सास उसे सभी की नौकरानी बना देना चाहती है, जिससे उसका अस्तित्व ही उसे समाप्त होता प्रतीत होता है और वह अवसर पाते ही स्वतंत्रता पाने के लिये येन-केन प्रकारेण प्रयास करती है।
4. दूसरी तरफ यदि सास अच्छी सहयोगी एवं मातृवत मिल गई तो बहू उसे अपने अधिकार एवं नियंत्रण में रखने का पूरा-पूरा प्रयास करती है और ऐसी दशा में सास भी छटपटाकर किसी तरह स्वयं को स्वतंत्र करने का प्रयास करती है।
इस प्रकार एक-दूसरे पर दोषारोपण की जो प्रक्रिया प्रारंभ होती है, उसमें श्वसुर, पति, ननद, देवर आदि को मिलाकर कम से कम दो ऐसे गुट तैयार हो जाते हैं, जो अपने-अपने गुट को विजयी रखना चाहते हैं। परिणाम निराशा, दोषारोपण से गुजरते हुये परिवार सम्पत्ति सम्बन्धी विभाजन तक पहुंचता है तथा कभी-कभी परिवार में आत्महत्या जैसी घटनाएं भी देखी जाती हैं। मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि परिवार एवं सम्पत्ति का बंटवारा नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह न केवल आवश्यक है, बल्कि सुखी जीवन की कुन्जी भी यही है तथा यही वह प्रक्रिया है, जिससे जीवन के चलने में निरन्तरता बनी रहती है।
परिवार के सभी जनों का अपना-अपना हक सुख एवं आत्मशान्ति प्राप्त होकर आपस में एक रहकर सहयोग करने से अपनत्व का ही जन्म होता है। यह की कहना उपयुक्त होगा कि न्यायपूर्ण विभाजन एवं आपसी सहयोग तथा परस्पर विश्वास से ही स्त्री-पुरुषों को आत्महत्या एवं अग्नि में जलने की घटनाओं को काफी हद तक रोका जा सकता है।
किसी पक्ष पर दोषारोपण करने के स्थान पर यदि निम्नलिखित विधियां अपनाई जावे तो घर-संसार को सुखी, समुन्नत एवं विकासशील बनाया जा सकता है। सास एवं बहू एक-दूसरे पर दोषारोपण न करें, बल्कि यथासंभव एक-दूसरे को सहयोग करें। साथ ही यथासंभव एक-दूसरे की आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयास करें।
सास एवं बहू क्रमश: अपने पति, पुत्र, ससुर अपनी-अपनी गलतियों का सुधार करें तथा अपनी ओर अंगुली उठाने वाले पक्ष पर क्रोधित न हो अपना आकलन करें तथा उचित निर्णय लेकर परिवार के सुख में वृद्धि करें।
सास, बहू को पुत्रियों के समान दर्जा दें तथा बहू भी सास को माता के समान आदर एवं सम्मान दे।
घर के अन्य सदस्यों में एक-दूसरे की मान-मर्यादा बनाये रखने एवं परस्पर सहयोग को अपनाने से ओतप्रोत रखें। भूलकर भी किसी पक्ष के सदस्य के साथ अन्याय न होने दें तथा सदैव न्याय एवं उचित का पक्ष लें। जो उक्त नियमों का पालन करते हैं, वे सुखी समुन्नत, बलवान, भाग्यवान एवं आगे बढऩे की भावनाओं से ओतप्रोत होकर स्वस्थ भारत के निर्माण में सहयोगी हैं, क्योंकि स्वस्थ एवं सुखी परिवार ही स्वस्थ, सुखी एवं समृद्धिशाली राष्ट्र की आत्मा है।
