फिर उड़ी महिला आरक्षण की धज्जियां

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   हमारे देश में महिला आरक्षण के नाम पर बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं। आरक्षण के बाद चुनाव जीतकर आयी महिलाओं की संख्या बताकर महिला सशक्तिकरण को जमकर उछाला जाता है लेकिन असलियत में इस आरक्षण की जमकर धज्जियां बिखेरी जाती हैं। इस बार यह कारनामा हुआ है विदिशा नगर पालिका में। विदिशा नगरपालिका में इस बार का अध्यक्ष पद महिलाओं के लिए आरक्षित है लेकिन यहां की राजनीति ही कुछ ऐसी है जहाँ महिलाओं को राजनीति करने ही नहीं दी जाती है।
      विदिशा वह नगर है जहाँ आजादी के समय से ही महिलाएं शिक्षित रही है। यहां की महिलाएं मतदान में भी बढ़चढ़कर हिस्सा लेती हैं। पचास और साठ के दशक में भी यहाँ अनेक महिलाएं अध्ययन और अध्यापन कार्य में संलग्न थी। यहाँ की महिलाएं आज भी डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, वैज्ञानिक, बैंकर, लेखक, पत्रकार सब कुछ बन रही है लेकिन यहां  राजनीति में वे मात्र कठपुतली ही प्रतीत होती हैं क्योंकि जब उन्हें अधिकार देने की बात आती है तो उन्हें इतना मजबूर, लाचार और बेबस कर दिया जाता है कि वे राजनीति छोडऩे को ही विवश हो जाती हैं।
         ताजातरीन मामला यहां की नगरपालिका अध्यक्ष प्रीति शर्मा का है, जिन्होंने अपना स्वास्थ्य ठीक न होने की बात कहकर अपने अध्यक्षीय प्रभार नपा के वर्तमान उपाध्यक्ष संजय दिवाकीर्ति को सौंप दिए हैं। वैसे न  तो प्रीति शर्मा (वस्तुत: इनका नाम आपको हर जगह प्रीति राकेश शर्मा ही लिखा दिखाई देगा फिर चाहे वह नपा अध्यक्ष के कक्ष के बाहर लगी नाम पट्टिका हो या नगर पालिका भवन के ऊपर लगा बड़ा सा नाम पट्ट) ने अपनी बीमारी बताई है न ही उन्होंने यह बताया है कि उन्होंने अपना प्रभार कब तक के लिए उपाध्यक्ष को सौपा है।
              वैसे विदिशा की राजनीति में महिला नपाध्यक्ष द्वारा अपना प्रभार उपाध्यक्ष को सौंपने का यह पहला मामला नहीं है। इससे पहले विदिशा नगर पालिका की महिला पहली महिला अध्यक्ष सरोज जैन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। स्नेही, मृदुभाषी, व्यवहारकुशल और पारंगत वकील के रूप में प्रतिष्ठित सरोज जैन भी यहां राजनीति नहीं कर पायी और अंतोत्गत्वा उन्होंने भी अपने सारे प्रभार उपाध्यक्ष बसंत कुमार जैन को सौंप दिए और बाद में राजनीति से सन्यास ले लिया।
            विदिशा नगरपालिका में प्रदेश के वित्तमंत्री रहे राघवजी भाई की पुत्री ज्योति शाह भी अध्यक्ष रहीं। उनके पिता कुशल राजनीतिज्ञ थे तो यहां किसी दूसरे को राजनीति करने का अवसर नहीं मिला और उन्होंने अपना कार्यकाल अपने पिता की छत्रछाया में  पूरा तो किया। लेकिन राघव जी भाई के पद से हटते ही ज्योति शाह भी विदिशा के राजनीतिक परिदृश्य से लगभग बाहर हो गयी।  वैसे तो विदिशा की सांसद भाजपा की तेजतर्रार नेता सुषमा स्वराज भी रहीं लेकिन उनके कार्यकाल में भी यहां महिला आरक्षण के नाम पर मात्र खानापूर्ति ही होती रही। नगर निगम नगर पालिका, नगर पंचायत और ग्राम पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए सरकार की ओर से निसंदेह निरंतर प्रयास हो रहे हैं लेकिन सरकार के इन प्रयासों की राजनेताओं द्वारा जमकर धज्जियां बिखेरी जा रही हैं। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए ये नेता अपने घर की महिलाओं को महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों से चुनाव लड़वा देते हैं फिर चुनाव के बाद ये महिलाएं कठपुतली बन जाती हैं। ऐसी ही कठपुतली के रुप में सुशीला मोहर सिंह भी विदिशा की विधायक रह चुकी हैं। पहले कठपुतली सरकार चलाने वाले ऐसे नेता शासकीय कार्यक्रमों में तक निर्वाचित प्रतिनिधि की जगह खुद ही पहुंच जाते थे फिर नियमों में संशोधन के बाद जब इन लोगों पर थोड़ा बहुत अंकुश लगा तो अब नगरपालिका में अध्यक्ष प्रतिनिधि और पार्षद प्रतिनिधि जैसे पदों का सृजन करवाया गया और और ये स्वयं अध्यक्ष या पार्षद के बगल में बैठकर  निर्देश देते या हस्ताक्षर कराते दिखाई देते हैं। यह भी बड़ा ही हास्यास्पद लगता है कि एक नगरपालिका पार्षद, जिसके वार्ड की सीमा मात्र एक या दो किलोमीटर की परिधि में होती है उसे ही अपने लिए एक पार्षद प्रतिनिधि रखना पड़ता है।      
          कुल मिलाकर यहां बात किसी महिला की अक्षमता की नहीं है यहां बात सिर्फ पुरुषों के रुतबे और राजनीतिक वर्चस्व की है, अन्यथा जब कोई महिला आपरेशन सिंदूर की कमान संभाल सकती है, राष्ट्रपति के रुप में सारे देश का दुनियाभर के सामने प्रतिनिधित्व कर सकती है,तो क्या एक शहर की नगरपालिका को नहीं चला सकती । यदि एक महिला देश के वित्तमंत्री के रूप में देश की अर्थव्यवस्था संभाल सकती तो क्या नगरपालिका के वित्तीय मामले नहीं सम्हाल सकती?
यहां चर्चा का विषय यह नहीं है कि विदिशा की नगरपालिका की राजनीति में क्या हुआ,क्यों हुआ, कैसे हुआ,कौन चुप है, कौन मुखर है या किसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर महिला नगरपालिका अध्यक्ष के अधिकारों को कुर्बान किया गया। यहां विचारणीय यह है कि महिला आरक्षण के नाम पर एक महिला को आगे करके फिर राजनीति की बलि वेदी पर कुर्बान कर दिया गया।
              राजनीति में महिलाओं को कब तक कुर्बानी देनी पड़ेगी? क्या आज भी महिलाएं इतनी कमजोर हैं कि वे हर बार राजनीतिक बिसात पर स्वयं को न्यौछावर करती रहेगी? नियमों को तोड़मरोड़ कर महिला आरक्षण की धज्जियां उड़ाने से  बेहतर तो यही होता  कि यहाँ से महिला आरक्षण ही समाप्त कर दिया जाता ताकि  राजनेता संपूर्ण स्वच्छंदता से अपनी राजनीति कर सकें और यहां की महिलाएं राजनीति से दूर रहकर दूसरे क्षेत्रों में अपने दम खम का परचम लहराएं। 
अंजनी सक्सेना

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