महिलाओं को पुरुषों जितनी मजदूरी कमाने के समान अधिकार प्राप्त हो

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हमारे देश में समान वेतन अधिनियम वर्ष 1967 में लागू हुआ था. पांच  दशक से भी अधिक बीत चुके हैं लेकिन महिलाओं की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन कि वैश्विक मजदूरी रिपोर्ट (ग्लोबल वेज रिपोर्ट)  के अनुसार महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा 33% कम वेतन पाती हैं। इसका मतलब हुआ महिलाओं को पुरुषों जितनी मजदूरी कमाने के लिए 4 महीने अतिरिक्त काम करना पड़ता है, या यूँ कहें की महिलाएं साल में 4 महीने मुफ्त में काम करती हैं, बिना किसी वेतन के। साथ ही महिलाओं की भागीदारी ऐसी नौकरियों में 60% है जहाँ मजदूरी कम मिलती है, वहीं सर्वोच्च मजदूरी मिलने वाली नौकरियों में उनकी संख्या मात्र 15% है। यदि इन आंकड़ों से हम सरकारी उच्च श्रेणी की नौकरियों और मनरेगा के तहत कानूनन मिलने वाले रोजगार को हटा दें तो लैंगिक वेतन के असमानता में अंतर और बढ़ जाता है।

काम के लैंगिक विभाजन ने काम को महिला प्रधान या पुरुष प्रधान रोजगारों में श्रेणीत कर यह सुनिश्चित किया है कि यह स्थिति ऐसी ही बनी रहे और इसीलिए यह आंकड़ा बिलकुल भी आश्चर्यचकित नहीं करता कि पुरुष प्रधान रोजगारों में वेतन महिला प्रधान रोजगारों से कहीं अधिक है। इसके लिए आम तौर पर दिया जाने वाला तर्क यह है  कि   पुरुषों द्वारा किये जाने वाले काम अधिक कौशलपूर्ण होते हैं जबकि महिलाओं का काम अकुशल होता है। इस तर्क से वेतन में होने वाले भेद-भाव को तो सहारा मिल जाता है पर कुशलता में यह दोहरा पैमाना कैसे चला आ रहा है, इस मुद्दे पर यह तर्क मार खा जाता है। महिलाओं को कौशल प्राप्त करने में क्या मुश्किलें आती हैं, उसे यह तर्क पूरी तरह से अनदेखा कर देता है।

यदि महिलाएं कौशल हासिल कर अच्छी नौकरियों में आ भी जाती हैं तो जिस द्वेषपूर्ण तरीके से उनकी अनदेखी और विरोध किया जाता है भी उसे भी यह तर्क अनदेखा कर देता है। सामाजिक परिधि में द्वेषपूर्ण व्यवहार का डर ही महिलाओं को उनकी स्थिति से बांधे रखने के लिए काफी होता है और उन्हें आगे बढ़ कर कौशल हासिल करने से रोकता है। एक बेहद दुखद सच्चाई यह भी है  कि संगठित वर्ग के पुरुष मजदूरों ने भी काम के लैंगिक भेद के इस ढांचे को स्थापित करने और बनाये रखने में अपना पूरा योगदान दिया है। परिणामस्वरूप यूनियन भी ऐसे सामूहिक समझौते कर बैठती हैं जिनसे मजदूरी में लैंगिक अंतर बना रहे क्योंकि यूनियन के नेता और मालिक, दोनों ही मुख्यतः पुरुष होते हैं और ‘कौशल’ के इस सामाजिक मिथक के शिकार होते हैं।

महिलाओं को मिलने वाला काम न सिर्फ अकुशल, असम्मानित और असुरक्षित होता है, साथ ही उन पर घर का काम करने की भी जिम्मेदारी होती है जिसका कोई मजदूरी मूल्य नहीं होता। काम संरचना का पिछले कुछ दशकों में जिस प्रकार से पुनर्गठन हुआ है, उससे कई प्रकार के काम घरेलु रोजगार और स्वरोजगार के आयाम में धकेल दिए गए हैं जिससे कारण वे विनियमन के दायरे से बहार आ गए हैं। इस पुनर्गठन के कारण मजदूरों पर नियंत्रण करने के तरीकों में भी बदलाव आया है। इस नई नियंत्रण प्रक्रिया में मजदूरों का नियंत्रण परोक्ष रूप से, अत्यंत दमनकारी उत्पादन परिस्थितियों से किया जाता है जो मजदूरों को स्वयं को शोषित करने की तरफ धकेलता है। जहाँ मालिक काम को छोटे अंशों में परत दर परत ठेके पर सौंप कर मलाई उड़ा ले जाते हैं, वहीं ठेकेदारी के जंजाल में फंसे मजदूर खुद के लिए कानूनी संरक्षण जुटा पाने में भी स्वयं को असमर्थ पाते हैं।

महिलाओं के लिए न्यायिक और लोक नीतियों द्वारा समानता के लिए प्रतिबद्ध सरकार, इस मुद्दे की भव्य विषमताओं से ही खुद को दरकिनार कर लेती है। लोक नीतियों की विफलता और उनके अनुपालन में होने वाली ढील ही असमानता को बढ़ावा देती है। किशोरियां स्कूल जाना छोड़ देती हैं क्योंकि वहां शौचालय नहीं हैं। यहाँ तक कि  कई सरकारी दफ्तरों और सार्वजनिक बैंकों में भी महिला कर्मचारियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं है। महिलाओं के लिए पुरुषों के समान जीवन जी सकने की जटिलताएं इतने मामूली स्तर से शुरू होती हैं और जब अवसरों में ऐसी असमानता हो तो आगे चल कर वह परिणाम में असमानता का रूप ले ही लेती है।

आज महिलाओं के सामने जो समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं वे सिर्फ कामकाज़ी जीवन तक सीमित नहीं हैं। महिलाओं के आय में असमानता का निवारण करने से न सिर्फ आर्थिक अंतर कम होगा बल्कि वर्तमान समाज में शक्ति के संतुलन का ताना-बाना बदलेगा जिससे महिलाओं की स्थिति न सिर्फ राजतंत्र में बल्कि घर पर भी बदलेगी। एक ऐसी दुनिया में जहाँ रंग, जाती और धर्म के आधार पर भेद-भाव, विदेशी भीती और स्त्री-द्वेष की घटनाओं में इजाफा हुआ है उसमें महिलाओं पर लैंगिक अत्याचार होने का खतरा बढ़ गया है।

यह हमारी ऐतिहासिक और मौजूदा सच्चाई का दर्पण है। यह दर्शाता है कि कैसे महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति अपने सहकर्मियों और यूनियनों की उपेक्षा का शिकार रही हैं जिससे यह भेद-भाव आज एक बड़ी समस्या का रूप ले चूका है। यह मौन रहने की उस संस्कृति का भी दर्पण है जो उग्रता, हिंसा और भेद-भाव को बिना किसी दंड या अपराध के बोध फलने-फूलने का मौका देता है।

इस साल दुनिया भर के अलग-अलग रोजगारों में निहित, सभी आयु वर्ग की महिलाएं एक सफल अभियान के तहत कार्यस्थल पर होने वाले यौन शोषण के खिलाफ एकजुट हुईं। इस अभियान के तहत न सिर्फ इस मुद्दे पर लगी चुप्पी टूटी बल्कि महिलाओं को एक-दूसरे के अनुभवों से बल मिला की वे भी एकजुट हो शक्ति के शिखर पर बैठे लोगों के खिलाफ आवाज़ तेज़ कर सकती हैं। इस अभियान ने शक्ति की मौजूदा संरचना की जड़ें हिला दीं जिसमें लोगों के मौन रहने के कारण दमनकारियों को महिलाओं के खिलाफ अत्याचार दोहराते रहने का बल मिलता है।

वर्तमान शोषक सामाजिक व्यवस्था और शक्ति संरचनाओं के विरोध में महिलाओं की अभिव्यक्ति को हम ट्रेड यूनियनों ने भी जरूरी तरजीह नहीं दी है। वक़्त आ गया है कि  हम न सिर्फ इस बात का संज्ञान लें कि महिलाओं पर आए दिन कितना शोषण होता है बल्कि उसके खिलाफ खड़े हों और उस व्यवस्था को बदलें जो महिलाओं के दमन को बढ़ावा देती है, साथ ही ऐसी व्यवस्था का निर्माण करें जिससे हम अपने संगठन और उसके बाहर इस दमन को जड़ से ख़त्म कर सकें।

वक़्त आ गया है कि हम प्रण करें कि हम महिलाओं के खिलाफ अत्याचार नहीं सहेंगे। यह बदलाव का समय है। यह हमारे भी बदलने की घड़ी है।

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