लोकलुभावन वादों का चुनाव पर क्या असर होगा

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ऐसा लगता है कि बिहार चुनाव में विपक्षी गठबंधन के पास कोई मुद्दा नहीं बचा है, इसलिए तेजस्वी यादव बड़े-बड़े वादों पर उतर आए हैं । उनके इन वादों का चुनावों पर क्या असर होगा, ये तो 14 नवंबर को ही पता चलेगा । सवाल यह है कि क्या सिर्फ इन वादों के भरोसे विपक्षी दल एनडीए को टक्कर दे सकते हैं । प्रथम चरण के मतदान के लिए पन्द्रह दिन भी  नहीं बचे हैं लेकिन बिहार में चुनाव की गर्मी नजर नहीं आ रही है. हो सकता है कि छठ पूजा सम्पन्न होने के बाद चुनाव प्रचार में तेजी आए । तेजस्वी यादव और राहुल गांधी की चुनावी सभाएं शुरू नहीं हो पाई है । ये इसलिए अजीब है क्योंकि चुनाव से दो महीने पहले राहुल गांधी वोट चोर यात्रा निकाल रहे थे । उनकी यात्रा के बाद तेजस्वी यादव ने भी अपनी यात्रा निकाली थी ।

 

इन यात्राओं से लग रहा था कि इस बार गठबंधन बड़ी तैयारी के साथ चुनाव में उतरेगा लेकिन ऐन चुनावों के वक्त वो भाजपा से लड़ने की जगह आपस में ही लड़ रहा है । एनडीए में भी सीट बंटवारे को लेकर बड़े विवाद हुए हैं लेकिन अंत में वहां सब ठीक नजर आ रहा है  । इसके विपरीत गठबंधन में सीट बंटवारे का मुद्दा अभी भी खत्म नहीं हो पाया है । लगभग 12 सीटों पर गठबंधन के सहयोगियों में दोस्ताना संघर्ष देखने को मिल रहा है । वास्तव में बात सीटों की नहीं है बल्कि गठबंधन की एकता की है जो नजर नहीं आ रही है । देखा जाये तो गठबंधन विमर्श की लड़ाई हार गया है क्योंकि जनता में संदेश चला गया है कि गठबंधन में सब कुछ ठीक नहीं है । गठबंधन के लिए जरूरी होता है कि जनता को संदेश जाए कि घटक दलों में कोई विवाद नहीं है और वो पूरी तरह से एकजुट हैं ।

 

 सरकार गठन के समय घटक दलों में झगड़े होना आम बात है लेकिन चुनाव के समय झगड़े होना सही नहीं है । जनता कैसे विश्वास करे कि अगर गठबंधन सत्ता में आ जाता है तो सभी दल मिलकर सरकार चला सकते हैं । सीटों के बंटवारे पर तो दोनों ही गठबंधनों के घटक दल लड़ रहे थे लेकिन सीट बंटवारे के बाद भी गठबंधन में एकता नहीं है । सवाल यह है कि ऐसे हालात में घटक दल एक दूसरे के लिए चुनाव प्रचार कैसे करेंगे । अगर ऐसा नहीं होता है तो ये दल अपने  वोट सहयोगी दलों को कैसे ट्रांसफर करेंगे  । वोट ट्रांसफर होना आसान नहीं होता. ये तब हो सकता है, जब सभी दलों में पूरी तरह से एकता हो । जब तक पार्टी का स्थानीय नेतृत्व कोशिश नहीं करता , तब तक वोट ट्रांसफर होना बहुत मुश्किल होता है।  

 

                 तेजस्वी यादव इन हालातों से निराश हैं, इसलिए वो लोकलुभावन वादों से चुनाव जीतने की उम्मीद कर रहे हैं । इसकी दूसरी वजह यह है कि नीतीश कुमार 20 साल से लगातार सत्ता में हैं लेकिन उनके खिलाफ सत्ताविरोधी लहर कहीं दिखाई नहीं दे रही है । केंद्र की भाजपा  सरकार के 11 साल के शासन के बाद भी कोई सत्ताविरोधी लहर नहीं है । देखा जाए तो सत्ता पक्ष के खिलाफ विपक्ष का सबसे बड़ा हथियार ही सत्ताविरोधी लहर होती है । बेरोजगारी, मंहगाई और विकास के मुद्दे पर गठबंधन को ज्यादा भरोसा नहीं है, इसलिए कांग्रेस ने वोट चोरी को मुद्दा बनाने की कोशिश की थी लेकिन राजद ने इस मुद्दे से किनारा कर लिया । ये मुद्दा चुनाव परिणामों के बाद के लिए छोड़ दिया गया है । राहुल गांधी ने इस मुद्दे को शुरू किया था लेकिन अब कांग्रेस ने भी इससे किनारा कर लिया है । एसआईआर के खत्म होने के बाद बिहार की जनता भी संतुष्ट है, इसलिए ये मुद्दा चुनाव में फायदा देने वाला नहीं है।

 

लगता है कि तेजस्वी यादव को अब चुनाव जीतने के लिए सिर्फ लोकलुभावन वादों पर ही भरोसा रह गया है, इसलिए उन्होंने  बड़े-बड़े वादे करने शुरू कर दिए हैं । उन्होंने घोषणा की है कि उनकी सरकार बनने के बाद 20 महीने के अंदर हर परिवार से एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी दी जाएगी । देखा जाए तो ये किसी भी तरह से संभव नहीं है, इसके बावजूद उन्होंने यह वादा कर दिया है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ये वादा उनके लिए गले की हड्डी बन सकता है क्योंकि इसे पूरा करना बहुत मुश्किल होगा । सवाल यह है कि क्या तेजस्वी यादव इस बात को नहीं जानते हैं कि वो ये वादा पूरा नहीं कर सकते । वास्तव में तेजस्वी यादव जानते हैं कि वो ऐसा वादा कर रहे हैं जिसे पूरा करना संभव नहीं है । एक बार किसी तरह से सत्ता मिल जाए, इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार हैं । जब सत्ता मिल जाएगी, तो इस वादे का क्या करना है, उस पर भी उन्होंने विचार किया होगा । कांग्रेस ने भी 2024 के लोकसभा चुनाव में हर महिला को एक लाख रुपए वार्षिक देने का वादा किया था, उसे भी पूरा करना संभव नहीं था । इस सच को कांग्रेस भी जानती थी, लेकिन वादा किया और उसका फायदा भी उसे मिला ।

 

                 तेजस्वी यादव ने 22 अक्टूबर को एक बार फिर बिहार की जनता से बड़े वादे कर दिए हैं। उन्होंने घोषणा की है कि सभी संविदा कर्मियों को सरकारी नौकरी दी जाएगी । इसके अलावा जीविका दीदीयों को सरकारी कर्मचारी का दर्जा दिया जाएगा । जीविका दीदीयों को 30000 रुपये प्रतिमाह वेतन दिया जाएगा। उन्होंने घोषणा की है कि जीविका दीदीओं के सभी ऋण माफ किए जाएंगे और उन्हें ब्याज मुक्त ऋण दिया जाएगा। जब उन्होंने हर परिवार से एक सदस्य को नौकरी देने का वादा किया था तो यह कयास लगाया जा रहा था कि सबको सरकारी नौकरी नहीं दी जा सकती, इसलिए कुछ लोगों को संविदा पर भर्ती किया जाएगा । अब तो तेजस्वी यादव ने वो संशय भी दूर कर दिया है  क्योंकि उन्होंने नया वादा किया है कि सभी संविदा कर्मियों को स्थायी किया जाएगा । बिहार की जनसंख्या को देखते हुए ऐसी नौकरियों की संख्या 2 करोड़ के करीब बैठती है जबकि बिहार में लगभग 15 लाख सरकारी नौकरियां हैं । अगर सभी संविदा कर्मियों को स्थायी कर दिया जाता है तो नई नौकरियां और भी कम हो जाएंगी। इस तरह देखा जाए तो तेजस्वी यादव के लिए दस लाख नौकरियां देना भी मुश्किल दिखाई देता है।

 

इससे पता चलता है कि तेजस्वी कोई भी वादा करने को तैयार हैं, चाहे उसे पूरा करना कितना भी मुश्किल हो । वो बिहार को कानून बनाकर एक महीने में विकसित राज्य भी घोषित कर सकते हैं। सवाल यह है कि उन्हें इन वादों से कुछ फायदा भी होगा या नहीं। बहुत लोगों के मन में यह सवाल गूंज रहा है कि इन वादों का चुनाव पर क्या असर पड़ेगा। देखा जाए तो इनका असर पड़ भी सकता है और नहीं भी पड़ सकता है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने हर महिला को हर साल एक लाख रुपए देने का वादा किया था। इस वादे का कुछ राज्यों में असर देखने को मिला लेकिन कुछ राज्यों में कोई असर नहीं हुआ। केजरीवाल ने दिल्ली और पंजाब में फ्री बिजली-फ्री पानी का नारा देकर चुनाव जीता था। पंजाब में उन्होंने हर महिला को एक हज़ार रुपये प्रतिमाह देने का वादा किया था जिसे तीन साल बीतने के बावजूद पूरा नहीं किया गया है लेकिन पंजाब में इसको लेकर जनता में ज्यादा नाराजगी नहीं है। इसकी वजह यह है कि जनता को भी मालूम है कि नेता सभी वादे पूरे नहीं करते । जनता भी सिर्फ वादों को देखकर वोट नहीं डालती है।

 

                  वास्तव में लोकलुभावन वादे तब काम करते हैं, जब जनता को नेता और पार्टी पर भरोसा होता है। तेजस्वी यादव हार की संभावना को देखते हुए ऐसे वादे कर रहे हैं जिन्हें पूरा करना सम्भव नहीं है। बिहार की जनता राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक है । जाति-धर्म के बंटवारे की राजनीति से ग्रसित प्रदेश में तेजस्वी यादव के पास यादव-मुस्लिम समाज का एक बड़ा समर्थक वर्ग है जो उन पर पूरा विश्वास करता है। उसे इन वादों से कोई फर्क नहीं पड़ता. वो वैसे ही उनके समर्थन में खड़ा हुआ है। वास्तविक मुद्दा यह है कि उनके समर्थकों के अलावा जनता का दूसरा वर्ग भी उनके वादों पर भरोसा करके उन्हें वोट दे सकता है, इसकी संभावना बहुत कम है क्योंकि उन्होंने इतने बड़े वादे कर दिए हैं कि उनको पूरा करना संभव ही नहीं है। वादे पूरे करने या न करने का सवाल खत्म हो गया है क्योंकि ऐसे वादे किए गए हैं, जिन्हें पूरा करना सम्भव नहीं है। जनता उन वादों पर भरोसा करती हैं जिनके पूरे होने की संभावना हो । जब सवाल विश्वसनीयता का खड़ा हो गया है तो इन वादों का फायदा नहीं बल्कि नुकसान होने की संभावना ज्यादा है। ऐसे वादों के कारण तेजस्वी यादव में हताशा नजर आ रही है। जनता को यह संदेश जा सकता है, कि तेजस्वी यादव सत्ता की उम्मीद छोड़ चुके हैं, इसलिए अनापशनाप वादे कर रहे हैं।

 

कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में ओल्ड पेंशन योजना और हर महिला को 1500 रुपये प्रतिमाह देने का वादा करके चुनाव जीता था। कर्नाटक में भी कांग्रेस ने लोकलुभावन वादे करके सत्ता प्राप्त कर ली । दूसरी तरफ अन्य राज्यों में भी कांग्रेस ने ऐसे ही वादे किए लेकिन बुरी तरह से हार गई । केजरीवाल जिन वादों के सहारे दिल्ली और पंजाब में चुनाव जीते, इन्हीं वादों के बावजूद उन्हें गोआ, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात में जनता का समर्थन नहीं मिला । भारत के कई और राज्यों में केजरीवाल बड़ी कोशिश करने के बावजूद कोई कमाल नहीं दिखा सके । अंत में इतना कहा जा सकता है कि कई बार ऐसे वादे काम करते हैं और कई बार नुकसान पहुंचा देते हैं। तेजस्वी यादव की समस्या यह है कि उनके साथ जंगलराज का इतिहास जुड़ा हुआ है जिससे वो खुद को अलग नहीं कर पा रहे हैं। दूसरी तरफ उन्होंने ऐसे वादे कर दिए हैं  जिन्हें पूरा करना असंभव है । अगर वो ऐसे वादे करते जिनके पूरे होने की संभावना होती तो जनता का साथ उनको मिल सकता था। चुनाव से पहले वादे करना और बाद में उन्हें पूरे न करना, ये तो नेताओं का स्वभाव है । इसके बावजूद जनता नेताओं पर भरोसा करती है । वादों से ज्यादा जनता का भरोसा काम करता है, इसमें शायद तेजस्वी यादव चूक गए हैं।

 


राजेश कुमार पासी

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