विजयादशमी : दशहरा : रावण दहन ही नहीं, बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक

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विजयादशमी का पर्व केवल रावण दहन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दैवीय शक्ति की विजय और व्यक्तिगत चरित्र के उत्थान का एक गहरा प्रतीक है. यह वह दिन है जब देवी दुर्गा ने महिषासुर का वध कर संसार को उसके आतंक से मुक्त कराया था. इसी दिन देवी की विजय हुई थी, इसलिए इसे विजयादशमी कहते हैं. विजयादशमी केवल बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक नहीं है बल्कि यह देवी दुर्गा की महिषासुर पर जीत का भी प्रतीक है और शक्ति की पूजा का पर्व है. शारदीय नवरात्रि के बाद मनाए जाने वाले इस पर्व पर देवी दुर्गा की शक्ति की उपासना की जाती है. प्राचीन काल से ही राजा-योद्धा इस दिन अपने शस्त्रों और औजारों की पूजा करते थे. विजयादशमी आत्म-विजय, आंतरिक बुराइयों जैसे काम, क्रोध, लोभ और अहंकार पर विजय पाने का भी एक महान अनुष्ठान है. विजयादशमी देवी दुर्गा की महिषासुर पर विजय का दिन है जो शक्ति की विजय और स्त्री शक्ति का प्रतीक है. इस दिन शस्त्र-पूजा की परंपरा है, जिसमें लोग अपने औजार, वाहन, किताबें और अन्य उपकरण पूजते हैं, जो ज्ञान और शक्ति के प्रति सम्मान व्यक्त करता है. साहस और पराक्रम: विजयादशमी शौर्य और पराक्रम के महत्व को भी दर्शाती है. प्राचीन काल में राजा इस दिन विजय की कामना के लिए रण-यात्रा पर प्रस्थान करते थे. आंतरिक विजय: यह दिन व्यक्ति को अपने अंदर के रावण को दहन करने और अहंकार, लोभ और क्रोध जैसी बुराइयों को त्यागकर सत्य व नैतिकता का मार्ग अपनाने की प्रेरणा देता है. दशहरा केवल रावण दहन तक सीमित नहीं है, बल्कि हमें यह भी सिखाता है कि जीवन में चाहे कितनी भी बाधाएं आएं, यदि हम सत्य और धर्म के मार्ग पर चलते हैं तो विजय की प्राप्ति अवश्य होगी. रावण दहन की परंपरा वास्तव में प्राचीन नहीं है, बल्कि यह आधुनिक समय में, खासकर भारत की स्वतंत्रता के बाद लोकप्रिय हुई. रांची में 1948 में पाकिस्तान से आए शरणार्थियों ने इस परंपरा की शुरुआत की थी, और 1953 में दिल्ली के रामलीला मैदान में भी बड़े स्तर पर रावण दहन शुरू हुआ. यह परंपरा कब शुरू हुई और कैसे लोकप्रिय हुई: रावण दहन की परंपरा वास्तव में प्राचीन नहीं है, बल्कि यह आधुनिक समय में, खासकर भारत की स्वतंत्रता के बाद लोकप्रिय हुई. रांची में 1948 में पाकिस्तान से आए शरणार्थियों ने इस परंपरा की शुरुआत की थी और 1953 में दिल्ली के रामलीला मैदान में भी बड़े स्तर पर रावण दहन शुरू हुआ. यह परंपरा कब शुरू हुई और कैसे लोकप्रिय हुई: बड़े पैमाने पर रावण दहन की प्रथा भारत की स्वतंत्रता के बाद ही विकसित हुई. पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों ने 1948 में रांची में रावण दहन की शुरुआत की थी जिससे यह परंपरा फैलने लगी.  दिल्ली के रामलीला मैदान में 1953 में पहली बार बड़े स्तर पर रावण दहन का आयोजन किया गया था जो इस परंपरा को लोकप्रिय बनाने में सहायक हुआ. मैसूर का दशहरा कर्नाटक का राजकीय उत्सव है जो नवरात्रि के बाद विजयादशमी के दिन मनाया जाता है। यह 10 दिनों तक चलने वाला एक भव्य उत्सव है जिसमें शाही हाथियों का जुलूस (जिसे ‘जम्बू सवारी’ कहते हैं) प्रमुख है. उत्सव के दौरान पूरे शहर को सजाया और रोशनी से जगमगाया जाता है और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है। यह बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है और इसकी शुरुआत देवी चामुंडेश्वरी द्वारा राक्षस महिषासुर के वध से जुड़ी है. यह 10 दिनों तक चलने वाला उत्सव है जिसकी शुरुआत नवरात्रि से होती है और अंतिम दिन विजयादशमी होती है. इस उत्सव का महत्व देवी चामुंडेश्वरी द्वारा राक्षस महिषासुर का वध करने से है जो बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाता है. दशहरा उत्सव का सबसे पुराना लिखित इतिहास 15वीं शताब्दी के दौरान विजयनगर साम्राज्य के सम्राट देवराय द्वितीय के शासनकाल का है जिसे फारसी यात्री अब्दुल रज्जाक द्वारा भी प्रमाणित किया गया है जिन्होंने 1442-43 ईस्वी के दौरान इस त्योहार को देखा था. मैसूर में दशहरा मनाने की परंपरा 1610 में राजा वाडियार द्वारा श्रीरंगपट्टनम में शुरू की गई थी. 1799 में राजधानी मैसूरु स्थानांतरित होने के बाद इसे शहर में भी मनाना शुरू कर दिया गया था. इस परंपरा की जड़ें 15वीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य के दौरान शुरू हुईं थीं, जो 10 दिनों तक चलने वाला एक भव्य त्योहार है. मैसूरु दशहरा की शुरुआत 1610 में राजा वाडियार ने श्रीरंगपट्टनम में की थी. 1799 में टीपू सुल्तान के पतन और राजधानी के श्रीरंगपट्टनम से मैसूरु स्थानांतरित होने के बाद, यह उत्सव 1799 में मैसूरु में आयोजित किया जाने लगा. यह त्योहार 15वीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य के दौरान भी मनाया जाता था, जिसका प्रमाण है कि इसे मनाने की परंपरा काफी पुरानी है. वर्तमान स्वरूप: आज भी मैसूरु दशहरा कर्नाटक का राजकीय उत्सव है और 10 दिनों तक भव्यता से मनाया जाता है. भारत में कई ऐसी जगहें हैं जहाँ रावण दहन नहीं होता, क्योंकि वहाँ रावण को एक अलग रूप में पूजा जाता है या उसकी पूजा की मान्यता है। ऐसी 10 जगहों में उत्तर प्रदेश के बिसरख और बड़ागांव, मध्य प्रदेश का मंदसौर और रावणग्राम, राजस्थान का जोधपुर (मंडोर), आंध्र प्रदेश का काकीनाड, हिमाचल प्रदेश का बैजनाथ, महाराष्ट्र का गढ़चिरौली, और कर्नाटक के कोलार और मंडया शामिल हैं. रावण दहन न होने वाली 10 जगहें बिसरख (उत्तर प्रदेश): इस गांव को रावण का ननिहाल माना जाता है और यहाँ रावण को सम्मान के साथ पूजा जाता है. बड़ागांव (उत्तर प्रदेश): यहाँ के लोग रावण को अपना पूर्वज मानते हैं और दशहरे पर उनकी पूजा करते हैं. मंदसौर (मध्य प्रदेश): इस शहर को मंदोदरी का मायका माना जाता है, इसलिए रावण को दामाद की तरह पूजा जाता है. रावणग्राम (विदिशा, मध्य प्रदेश): यहाँ भी मंदोदरी के मायके होने की मान्यता है, इसलिए रावण की पूजा की जाती है. जोधपुर (राजस्थान): मंडोर में रावण और मंदोदरी का मंदिर है और यहाँ के कुछ लोग खुद को रावण का वंशज मानते हैं. काकिनाड (आंध्र प्रदेश): इस शहर में रावण की मूर्ति है और यहाँ के लोग रावण को एक शक्तिशाली सम्राट मानते हुए पूजा करते हैं. बैजनाथ (हिमाचल प्रदेश): यहाँ रावण ने शिव की तपस्या की थी, इसलिए लोग उन्हें शिव का भक्त मानते हुए पूजा करते हैं. गढ़चिरौली (महाराष्ट्र): यहाँ की गोंड जनजाति खुद को रावण का वंशज मानती है और रावण की पूजा करती है. कोलार और मंडया (कर्नाटक): इन जिलों में रावण को शिव का परम भक्त मानकर पूजा जाता है. कानपुर (उत्तर प्रदेश): यहाँ एक दशानन मंदिर है जो साल में सिर्फ दशहरे पर खुलता है और रावण की पूजा की जाती है. भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय को तीन जन्मों में भगवान विष्णु के अवतारों द्वारा मारा गया था ताकि वे अपने श्राप से मुक्त हो सकें. पहले जन्म में, उन्होंने सतयुग में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में जन्म लिया जिनका वध क्रमशः वराह और नृसिंह अवतारों द्वारा किया गया था। दूसरे जन्म में, त्रेतायुग में उन्होंने रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया जिनका वध भगवान राम ने किया था. तीसरे और अंतिम जन्म में, द्वापर युग में, उन्होंने शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में जन्म लिया जिन्हें भगवान कृष्ण ने मारा था. सतयुग: जय और विजय ने हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में जन्म लिया. भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध किया और नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का वध किया. त्रेतायुग: जय और विजय ने रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया. भगवान विष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया और रावण और कुंभकर्ण दोनों का वध किया. द्वापरयुग: जय और विजय ने शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में जन्म लिया. भगवान विष्णु ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया और शिशुपाल व दंतवक्र का वध किया. दशहरा सिर्फ रावण दहन तक ही सीमित नहीं है; यह बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, जो भगवान राम की रावण पर विजय का उत्सव है। इसके अलावा, यह आंतरिक बुराइयों जैसे क्रोध और अहंकार को त्यागकर सत्य और धर्म को अपनाने की प्रेरणा भी देता है. उत्तरी भारत में रावण दहन प्रमुख है, तो पूर्वी भारत में दुर्गा पूजा और दुर्गा विसर्जन के रूप में भी यह पर्व मनाया जाता है. धार्मिक और नैतिक महत्व: दशहरा यह सिखाता है कि चाहे बुराई कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, अंततः अच्छाई की जीत होती है. आंतरिक संघर्ष: यह पर्व हमें अपने अंदर की बुराइयों, जैसे क्रोध, लालच और अहंकार पर विजय पाने के लिए प्रेरित करता है. क्षेत्रीय विविधता: उत्तर भारत में रावण दहन मुख्य है जबकि पूर्वी भारत में दुर्गा पूजा का उत्सव दशहरे के साथ मनाया जाता है, जहाँ देवी दुर्गा महिषासुर का वध करती हैं. अन्य उत्सव: इस दिन कई जगहों पर रामलीला का मंचन होता है, और कुछ स्थानों पर शस्त्र पूजा और विजयदशमी के रूप में भी इसे मनाया जाता है.

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