
इन दिनों एक गीत सोशल मीडिया, व्हाट्सऐप स्टेटस, शॉर्ट्स और प्रोफाइल पर खूब प्रचलित हो रहा है। जिसे पहले केवल ध्वज के सामने संघ की शाखाओं में सुनना संभव था, आज वही गीत लंदन ऑर्केस्ट्रा की धुनों पर और युवाओं के अपने अंदाज़ में गूंज रहा है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रार्थना—“नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि”—है, जिसे अब लंदन के ऑर्केस्ट्रा की धुन, शंकर महादेवन की स्वर-लहरियों और हरीश भिमानी ने व्याख्या की है- जिन्होंने महाभारत में अपनी आवाज़ से “मैं समय हूँ” कहकर पहचान बनाई ।
कभी यह प्रार्थना केवल शाखाओं और संघ परिवार के कार्यक्रमों में ही सुनाई देती थी लेकिन आज, कुछ देशी और विदेशी युवा बड़े हॉल में, विभिन्न परिधानों में, अपने काम में मग्न, अलग-अलग वाद्य यंत्रों के साथ, अपनी चिर परिचित मुस्कान लिए, इस प्रार्थना की धुन पर सुर लगाने बैठते हैं । जब वे इस गीत की राग में सुर देते हैं तो यह केवल सुनने मात्र का अनुभव नहीं रह जाता बल्कि देखने मात्र से भी रोमांचक और भावपूर्ण अनुभव उत्पन्न होता है। यह गीत करुणापूर्ण भाव, आधुनिकता और तारतम्यता के साथ अपने मूल स्वरूप को भी संग्रहीत किए हुए है जिससे दर्शक और श्रोता दोनों ही भाव-विभोर हो उठते हैं।
संघ की शाखाओं में प्रतिदिन यह प्रार्थना ध्वज के सामने गाई जाती है। चूंकि यह संस्कृत में रची गई है, इसलिए हिंदी, अंग्रेज़ी या अन्य भाषी लोगों के लिए इसका सही उच्चारण करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है लेकिन संघ परिवार इसके अर्थ और मूल परिवेश के प्रति सदैव सतर्क रहा है। शाखाओं और अभ्यास वर्गों में नियमित रूप से इसके उच्चारण का अभ्यास कराया जाता है ताकि इसकी शुद्धता, स्वरूप और भावनात्मक गहराई अक्षुण्ण बनी रहे।
भारत में हजारों संगठन हैं और प्रत्येक संगठन का अपना गीत और प्रार्थना होती है। अधिकांश गीत या तो किसी परंपरा, आस्था या संगठनात्मक उद्देश्य तक सीमित रहते हैं लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह प्रार्थना संगठन की सीमाओं को पार कर पूरे राष्ट्र की आत्मा को स्पर्श करती है। यह केवल एक संगठनात्मक गीत नहीं है बल्कि भारत के गौरव, वैभव और राष्ट्रीयता का प्रतीक बन चुकी है। इस प्रार्थना के माध्यम से एक साधारण नागरिक भी अपने हृदय में मातृभूमि के प्रति समर्पण और राष्ट्र के वैभव की कामना का अनुभव करता है।
इसके भाव अत्यंत सरल और स्पष्ट हैं “नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि” यह पंक्ति सीधे-सीधे मातृभूमि को प्रणाम करती है। इसका भाव है कि हम अपने देश के प्रति न केवल सम्मान बल्कि गहरी श्रद्धा और प्रेम रखते हैं। अगला भाग इस बात को व्यक्त करता है कि हमारा जीवन, हमारी शक्ति और हमारे कर्म राष्ट्र की सेवा में समर्पित हैं। यह संदेश हर नागरिक को यह स्मरण कराता है कि व्यक्तिगत उपलब्धियाँ और क्षमताएँ तभी पूर्ण होती हैं जब उन्हें समाज और देश की उन्नति के लिए लगाया जाए। राष्ट्र की महानता और वैभव की कामना का भाव निहित है जो भारत को जग में सशक्त, मार्गदर्शक और वैभवशाली बनाता है । यह केवल शक्ति की बात नहीं है बल्कि भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक महानता को विश्व में प्रतिष्ठित करने की कामना है। इसका संदेश है कि मातृभूमि के प्रति प्रेम और राष्ट्रभक्ति सभी भारतीयों में समान रूप से होनी चाहिए। यह भाव हर व्यक्ति समावेशिता और सार्वभौमिकता की भावना जगाता है। यही कारण है कि यह प्रार्थना किसी धर्म, जाति या क्षेत्र की सीमाओं में बंधी नहीं है और हर भारतीय के हृदय में देशभक्ति की एक गूढ़ अनुभूति जगाती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपने 100 वर्षों की गौरवशाली यात्रा पूरी कर इस विजयादशमी पर 101 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। यह संगठन जिसने भारतीय समाज में स्वतंत्रता, समरसता और चेतना जागरण का बीड़ा उठाया, अब अपने ‘पंच-परिवर्तन’ के लक्ष्यों के साथ समाज को नई दिशा देने के लिए प्रतिबद्ध है। इन पाँच परिवर्तनों में विशेष बल दिया गया है— सामाजिक समरसता : समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सौहार्द और प्रेम का विस्तार, कुटुम्ब प्रबोधन : परिवार को राष्ट्र के विकास की आधारशिला मानकर सशक्त बनाना, पर्यावरण संरक्षण : पृथ्वी को माता मानकर पर्यावरण-संरक्षण हेतु जीवनशैली में बदलाव, स्वदेशी और आत्मनिर्भरता : भारतीय अर्थव्यवस्था को स्वदेशी और आत्मनिर्भरता के आधार पर मज़बूत करना, नागरिक कर्तव्य : प्रत्येक नागरिक को सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन कर राष्ट्रहित में योगदान हेतु प्रेरित करना।
समय के साथ संचार माध्यमों और संगीत की नई शैलियों के आगमन ने इस प्रार्थना को वैश्विक रूप दे दिया है। इसका प्रभाव विशेष रूप से देश के युवा वर्ग पर महसूस किया जा रहा है। जब कोई मौलिक स्वरूप युवाओं के अपने खास अंदाज़ और आधुनिक प्रस्तुति के साथ सामने आता है तो इसे देखने और सुनने के लिए युवा पीढ़ी बेसब्री से प्रतीक्षा करती है। यह अनुभव केवल कानों तक सीमित नहीं रहता; यह आंखों और हृदय दोनों को मंत्रमुग्ध कर देता है और श्रोता को भावनात्मक रूप से उस प्रार्थना और उसके संदेश से जोड़ देता है। आधुनिकता और परंपरा के इस अनोखे संगम में युवा अपने सांस्कृतिक जड़ों और राष्ट्रभक्ति की भावना को पूरी तरह महसूस करते हैं।
संक्षेप में, “नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि” केवल एक प्रार्थना या गीत नहीं है। यह शब्दों, उच्चारण और भावनाओं का ऐसा मिश्रण है जो व्यक्ति के हृदय में मातृभूमि के प्रति प्रेम, राष्ट्र के प्रति समर्पण और समाज में अपनी भूमिका के प्रति चेतना जागृत करता है। परंपरा और आधुनिकता का यह संगम अब भारत के युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बन चुका है।
गजेंद्र सिंह