
वैसे तो शाहजहाँपुर उत्तर रेलवे में है लेकिन मीटरगेज की ट्रेनों के लिए ब्राडगेज के मुख्य स्टेशन से कुछ दूर इसका एक हिस्सा पूर्वोत्तर रेलवे में भी है। दोनों के कोड भी अलग-अलग हैं।
सुबह साढ़े छह बजे मीटरगेज की ट्रेन पीलीभीत के लिए चली। गाड़ी में भीड़ तो उतनी नहीं थी लेकिन सभी सीटें भरी थीं और लोग दरवाजों पर भी खड़े थे। यह मेरी उम्मीद से ज्यादा भीड़ थी। कहाँ से आए हैं ये सब लोग और कहाँ जाएंगे? क्या ये दैनिक यात्री हैं? दैनिक यात्री इतनी सुबह तो नहीं निकलते। और अगर दैनिक यात्री भी हैं तो रोजगार के लिए शहर से बाहर क्यों जा रहे हैं? पहनावे और महिलाओं-बच्चों को देखकर अंदाजा लग रहा था कि ये कहीं बाहर से किसी दूसरी ट्रेन से यहाँ आए हैं और अब इस ट्रेन से अपने घर जा रहे हैं।
इस लाइन पर सबसे बड़ा स्टेशन बीसलपुर है। भीड़ बेशुमार। यहाँ से गाड़ी चली तो शेरगंज में पूरी तरह पैक हो गई। पीलीभीत से पहले एक नदी और फ्लाईओवर के बीच में ट्रेन रुक गई। ट्रैक के दोनों तरफ तारबंदी और भारी संख्या में पुलिस तैनात। सभी यात्रियों के टिकट जाँचे गए, उसके बाद ही गाड़ी को आगे जाने दिया गया। कुछ यात्रियों ने उतरकर भागने की कोशिश भी की लेकिन भाग नहीं सके।
हमारी आज की यात्रा केवल इस लाइन को ‘कवर’ करने के लिए हो रही है। पहले यही ट्रेन टनकपुर तक जाया करती थी लेकिन अब पीलीभीत से टनकपुर का मार्ग ब्राडगेज हो चुका है तो हमें अब गाड़ी बदलनी पड़ेगी। ब्राडगेज के दोनों प्लेटफार्मों पर एक-एक गाड़ी खड़ी थी। एक बरेली जाएगी, दूसरी टनकपुर। यहाँ टनकपुर लाइन का गेज परिवर्तन हाल ही में संपन्न हुआ है तो पूरा प्लेटफार्म मिट्टी का ढेर बना हुआ था और धूल उड़ रही थी। बार-बार एनाउंसमेंट भी हो रहा था कि फलां ट्रेन फलां प्लेटफार्म से इतने बजे जाएगी लेकिन कहीं भी प्लेटफार्म नंबर नहीं लिखा था। यात्री लोग एक-दूसरे से ही पूछ-पूछकर ट्रेनों में बैठ रहे थे।
मैंने शाहजहाँपुर से ही टनकपुर का टिकट ले लिया था। दस बजकर दस मिनट पर ट्रेन चली तो एक-एक करके स्टेशन पीछे छूटते गए और हम उत्तर प्रदेश से निकलकर उत्तराखंड में प्रवेश कर गए और डेढ़ घंटे में टनकपुर जा लगे।
बस अड्डे पहुँचा, खाना खाया और बस पकड़ कर वापस पीलीभीत लौट आया।
ठीक तीन बजे पीलीभीत से मैलानी की ट्रेन रवाना हुई। इतनी भीड़ मैंने किसी मीटरगेज की ट्रेन में नहीं देखी थी। भयानक भीड़। गाड़ी के चलने से पहले ही दरवाजों पर भी यात्राी लटके हुए थे। कोई नया यात्राी आता, तो उसे अगले दरवाजे पर जाने को कह दिया जाता। ट्रेन चली तो बहुत सारे यात्राी चढ़ भी नहीं सके।
पूरनपुर तक ऐसी ही भीड़ रही। उसके बाद लगभग खाली हो गई।
शाम साढ़े पाँच बजे ट्रेन मैलानी पहुँच गई। मित्रा सरयू प्रसाद मिश्र की बदौलत मुझे पता चला कि यहाँ के स्टेशन मास्टर दिव्यांक जी मेरा ब्लाग पढ़ते हैं। जब यात्रा से पहले दिव्यांक जी से संपर्क किया तो पता चला कि आज यानी 13 मार्च को उनका स्थानांतरण मैलानी से वाराणसी हो गया है और वे किसी भी हालत में मुझसे नहीं मिल पाएंगे लेकिन मेरे रुकने की व्यवस्था कर देंगे।
मैं आज मैलानी ही रुकना चाहता था लेकिन यहाँ कोई होटल नहीं है। चूँकि यात्रा से पहले मैं दिव्यांक जी को भी नहीं जानता था इसलिए मैलानी में नहीं ठहर सकता था। एक विकल्प पूरी रात प्लेटफार्म पर भी सो जाना था लेकिन कल पूरे दिन ट्रेन-यात्रा करनी है और ज्यादातर समय दरवाजे पर खड़े रहना है तो मच्छरों से भरे प्लेटफार्म पर सोकर अपनी नींद भी खराब नहीं करना चाहता था यानी अब मैलानी से कुछ आगे पलिया कलां जाना पड़ेगा। पलिया कलां दुधवा नेशनल पार्क का प्रवेश द्वार है, इसलिए वहाँ ठहरने के कई बेहतरीन विकल्प हैं।
ऐसे में दिव्यांक जी से संपर्क होना बहुत बेहतरीन था। वे यहाँ कई वर्षों से कार्यरत हैं। उन्होंने मुझसे कहा – ‘नीरज जी, आपसे मिलने और आपके साथ यात्रा करने की बड़ी इच्छा थी। अगर मैं मैलानी ही होता तो आपके साथ बहराइच तक यात्रा करता लेकिन आज ही मेरा ट्रांसफर हुआ है तो आपके साथ तो नहीं चल पाऊँगा लेकिन मैलानी में आपके रुकने का बंदोबस्त अवश्य हो जाएगा। आप स्टेशन पर जाकर बुकिंग क्लर्क से मिल लेना।’
चालीस मिनट की देरी से ट्रेन मैलानी से रवाना हुई और स्टेशन से निकलते ही जंगल में प्रवेश कर गई। यह दुधवा नेशनल पार्क का ही हिस्सा है। रेल के साथ-साथ ही सड़क भी है। सड़क भी अच्छी बनी है।
जंगल के बीच में राज नरायनपुर नामक स्टेशन भी मिला जो अब बंद हो चुका है।
इस जंगल से निकलते ही भीरा खीरी स्टेशन है। मैलानी से यहाँ तक की 16 किलोमीटर की दूरी को तय करने में चालीस मिनट लग गए। जंगल में ट्रेन बहुत धीरे-धीरे चली।
इसके बाद शारदा नदी का पुल है। यही नदी पीछे भारत और नेपाल की सीमा भी बनाती है और काली नदी भी कहलाती है। ग्रामीण अपनी भैंसों को पैदल ही नदी पार करा रहे थे। नदी में घुटनों तक ही पानी था लेकिन साफ पानी था।
छोटे-छोटे बच्चे ट्रेन देखकर उछल-उछल खेल रहे थे। रोज ही उछलते होंगे ये दिन में दस बार।
साढ़े ग्यारह बजे दुधवा। उत्तर प्रदेश का एकमात्र नेशनल पार्क यही है। घने जंगल में स्थित है स्टेशन। यहाँ से आगे तेज राइट टर्न है। किसी जमाने में यहाँ से बाएँ एक लाइन चंदन चौकी जाती थी। यहाँ से थोड़ा ही आगे से एक लाइन बाएँ मुड़कर गौरी फांटा भी जाती थी जो अब पूरी तरह बंद है। सोच रहा हूँ कि चंदन चौकी और गौरी फांटा में स्टेशनों के अवशेष तो बचे ही होंगे।
और सोनारीपुर के भी अब अवशेष ही बचे हैं। 1894 से 1911 तक सोनारीपुर इस लाइन का आखिरी स्टेशन हुआ करता था। फिर बाद में भी महत्त्वपूर्ण स्टेशन ही होता था। यह स्टेशन की इमारत को देखकर अंदाजा भी लग जाता है लेकिन वर्तमान में स्टेशन पूरी तरह बंद है और ट्रेनें बिना रुके निकल जाती हैं या फिर कभी-कभार रेलवे स्टाफ को लेने या उतारने के लिए भी रुकती हैं।
जंगल के कर्मचारी जंगल में आग जला रहे थे। इसे ‘कंट्रोल्ड फायर’ कहते हैं। फरवरी-मार्च में जब घास सूख जाती है, पत्ते सूखकर नीचे गिर जाते हैं तो वे किसी भी वजह से आग पकड़ेंगे ही। ऐसी आग बहुत खतरनाक होती है। इससे अच्छा है कि इन्हें अपनी निगरानी में स्वयं ही जला दो।
जंगल से निकलते ही बेलरायाँ स्टेशन है। जंगल में ट्रेन लगभग 30 की स्पीड से चलती है। फिलहाल मार्च का महीना होने के कारण हरियाली उतनी आकर्षक नहीं थी, लेकिन मानसून में यह ट्रेन यात्रा वाकई ‘मस्ट डू’ है।
बेलरायाँ से अगला स्टेशन तिकुनिया है। अब मुझे इंतजार था कि कब ट्रेन तिकुनिया से चले और दाहिने मुड़े। मैंने बाईं तरफ के एक दरवाजे पर कब्जा कर लिया था।
ट्रेन चली और जैसे ही दाहिने मुड़ने लगीं तो मुझे वो चीज दिख गई जिसके लिए मैं बाएँ दरवाजे पर आया था। दो पगडंडियाँ एकदम सीधे जा रही थीं। आप कभी सोच भी नहीं सकते कि चालीस साल पहले रेलवे लाइन ठीक उस स्थान से गुजरती थी, जहाँ ये पगडंडियाँ हैं। सीधी लाइन कभी कौडियाला घाट जाती थी। 1976 में गिरिजा बैराज बन जाने पर रेलवे लाइन को बैराज से ही गुजारा जाने लगा और कौडियाला घाट की लाइन बंद हो गई।
लेकिन ऐसा नहीं है कि बांध केवल तभी दिखता है, जब हम इसे पार करते हैं। आप नदी के साथ-साथ बहाव की दिशा में बैराज की ओर चलेंगे तो आपको पानी के किनारे-किनारे ही चलना पड़ेगा। रेलवे लाइन भी पानी के किनारे-किनारे ही है और मंझरा पूरब स्टेशन तो पानी से दस मीटर हटकर ही है। बीच में केवल कच्ची-पक्की सड़क है। मुझे इस पूरी लाइन का सबसे शानदार स्टेशन मंझरा पूरब ही लगा। ग्रामीणों ने सड़क व रेलवे लाइन के बीच में बल्लियाँ आदि लगाकर दुकानें बना रखी हैं और चाय-पकौड़ी का पूरा इंतजाम रहता है। आप कभी इधर आओ तो मैलानी से सात वाली ट्रेन पकड़ना और मंझरा पूरब उतर जाना। पानी किनारे बैठकर चाय-पकौडि़याँ खाते रहना और फिर दूसरी ट्रेन पकड़ लेना।
घाघरा नदी को नेपाल में करनाली कहा जाता है। यह बहुत बड़ी नदी है और इसमें पानी भी खूब रहता है। यहाँ इसमें मछुआरे मछली पकड़ रहे थे और नदी के बीच बने रेत के अस्थायी द्वीपों पर अपने तंबू भी लगा रखे थे।
नदी पार करते ही कतरनिया घाट वाइल्डलाइफ सेंचुरी है। फिर से हम जंगल में घुस जाते हैं और नदी के साथ-साथ उत्तर की ओर चलने लगते हैं। बिछिया में प्रवेश के समय लाइन दाहिने घूमती है और अपने उसी पुराने मार्ग पर आ जाती है, जो बांध बनने से पहले था। यहाँ से भी पुरानी लाइन के अवशेष बिछिया से कतरनिया घाट स्टेशन की ओर जाते दिखते हैं लेकिन जंगल में इन्हें पहचानना थोड़ा मुश्किल है। मुझे इसके अवशेष मिल गए थे।
यह तो दुधवा से भी बड़ा जंगल है। निशानगाड़ा, मुर्तिहा, ककरहा रेस्ट हाउस स्टेशन तो जंगल के अंदर ही हैं और जैसे ही जंगल से बाहर निकलते हैं, एकदम मिहिंपुरवा स्टेशन आ जाता है।
अपर्णा जी फैजाबाद में रहती हैं, लेकिन मूलरूप से यहीं मिहिंपुरवा की रहने वाली हैं। वे बहुत तारीफ करती हैं अपने कतरनिया घाट जंगल की।
“एक बार हम छुट्टियां मनाने जंगल में गए। बहुत दूर तक, बहुत ही दूर तक हम जंगल में गाड़ी ले गए। अंदर कहीं सुदूर स्थान पर जंगल वालों का कोई रेस्ट हाउस था। वहाँ कभी-कभार ही कोई ठहरने जाता था। वहाँ पहुँचे तो लगा कि दुनिया हम हजारों मील पीछे छोड़ आए। केवल हम ही हैं लेकिन तभी… रेल की सीटी सुनाई पड़ी। तब पहली बार एहसास हुआ कि हमारे मिहिंपुरवा से गुजरने वाली ट्रेन जंगल में कितने अंदर तक जाती है।”
फिर तो गायघाट है, रायबोझा है और नानपारा जंक्शन है।
‘भारतीय रेल के कश्मीर’ में मैंने आज यात्रा कर ली लेकिन मन नहीं भरा। यहाँ बारिश में या बारिश के बाद आने की बात ही अलग होगी।