आधुनिकता की चकाचौंध में सभ्यता और संस्कृति से भटक रही है युवा पीढ़ी

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आज के डेट में  आधुनिकता की चकाचौंध में हमारी नई पीढ़ी सभ्यता और संस्कृति से भटक रही हैं। आज  धर्म को पाखंड और सभ्यता को कुरीति कहकर युवा अपने जीवन की शुरूआत करने की तरफ पूर्णतः उन्मुख हो चुके हैं। अपने स्वार्थ की भूख में वे रिश्ते मर्यादा मान सम्मान की बलि देने में देर नहीं कर रहे हैं। जीवन से संस्कारों का समाप्त होना दुष्प्रवृतियों में शामिल होना होता है। नैतिकता का पतन जीवन को हिंसा से जोड़ देता है। भौतिक उपलब्धियां कितनी भी महत्वपूर्ण क्यों न हों पर ये उपलब्धियां प्राचीन में किए गए कार्य से लिए गए अनुभव वर्तमान में सतत् आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करती हैं  न कि पुरातन उपलब्धियां महत्वहीन और निरर्थक हो गई हैं। अपने धर्म सभ्यता संस्कृति के प्रति दुराग्रही होना हमें पतन की तरफ ले जाता है। आज की युवा पीढ़ी सनातन कर्मकांड से विमुख होकर अविवेकी और नास्तिकता  के गहरे अंधकार में खुद का अस्तित्व खत्म करती जा रही है। इस मूर्खता को समयगत अभिशाप ही कहा जा सकता है।

 

बात ईश्वर को मानने की  नहीं है। पूजा पाठ करने को धर्म नहीं कहते हैं। धर्म वह है जो दूसरे का हित करते हुए आपको एक इच्छा इंसान बना देता है। चोरी,लूट,बलात्कार,हत्या ,व्यभिचार की भावना से हटकर प्रेम,दया,समानता की भावना से आपको उदारवादी व सहिष्णु बना देता है। समय- समय की बात है श्रवण कुमार जैसा बेटा भी होता था  जिसके कंधों पर माता पिता की तीर्थ यात्रा भी होती थी। बिटिया सीता,गौरी,अनसुईया सी तपस्विनी और सहनशील हुआ करती थी। आज बेटों के कंधे तीर्थ यात्रा की यात्रा को बीच  में ही छोड़कर मां बाप को वृद्धआश्रम में छोड़ आतें हैं। माता पिता की मृत्यु के बाद बेटे के कंधे भी नसीब नहीं होते हैं। बेटियां जो संस्कार के आवरण से ढकी माता पिता का सम्मान गौरव हुआ करती थी, आज अर्धनग्न होकर बाजारों में समान उम्र के लड़कों के साथ हाथ में हाथ डालकर घूमते हुए बड़ी प्रसन्नता महसूस करती हैं। सोशल मीडिया पर नंगे बदन दिखाने के हुनर में होड़ लगी हुई है। आज अधिकांश बेटियां ऐसे कार्य करने में आसमान की ऊंचाई छूने के लिए पूरी तरह से कोशिश में लगी हुई अपनी सभ्यता को शर्मसार कर रही हैं।

 

ईश्वर को मानना और न मानना धर्म का हनन नहीं हैं अपितु मर्यादा और संस्कार से लुप्त हो जाना सभ्यता पर सबसे बड़ी चोट है। समय के साथ बहुत कुछ बदलता है पर ये कैसा समय है जहां हमारी युवा पीढ़ी विकास नहीं,  विनाश की तरफ जाने के लिए उन्मुख हैं। वैदिक धर्म में शारीरिक संबंध की इजाजत विवाह संस्कार के बाद ही है। अपने कुल परम्परा को आगे बढ़ाने में संतान की उत्पति एक संस्कार के तहत पति पत्नी के रिश्ते को स्वीकार किया गया है। आज यह महज एक उत्तेजना और  एक भावना है,  इससे बढ़कर कुछ नहीं। कहीं भी, किसी के भी साथ जिसे लिव इन रिलेशन भी कह सकते हैं, यह उत्तेजना आज की युवा पीढ़ी खुलकर पूरी कर रही है और हमारा समाज उन्हें उत्साहित करने में अग्रसर है। हत्या,बलात्कार की घटना हर मिनट इसी उत्तेजना में ही घटित हो  रही है। जब बिटिया अर्धनग्न होकर समाज में उठने बैठने चलने लगे तो समझ लीजिए कि अब हमारी सभ्यता संस्कार पतन की ओर  है। आज बिटिया को मां बाप ने पूर्ण स्वतंत्र इसलिए कर दिया है कि बिटिया पढ़े लिखे और  आगे बढ़े। डॉक्टर,इंजीनियर,प्रशासनिक अधिकारी,शिक्षिका बने। जहां आज की बिटिया सेना , ट्रेन , अंतरिक्ष व  वायुयान तक पहुंच चुकी हैं, वहीं आज की ही बिटिया समाज के पुरुषों की दृष्टि में कामकला की जीवित मूर्ति बनकर अपनी आजादी का परचम भी लहरा रही हैं। बेटियों पर गर्व भी होता है और उनके ऐसे कुकृत्य पर शर्म भी आती है, और एक चिंता, एक दुख नैतिकता के गिरते हुए स्तर को देखकर हो रहा है।

 

आजकल के बच्चे और माता पिता के बीच के संबंध एक जटिल मोड़ पर हैं । एक तरफ माता पिता अपने बच्चों के लिए प्यार और समर्थन का स्रोत होते हैं। वही दूसरी तरफ बच्चे अपने माता पिता से अलग समझ और अपने  दृष्टिकोण रखते हैं। आज की समस्या यह है कि हम अपनी नई पीढ़ी को धर्म सभ्यता संस्कृति की वैज्ञानिकता बता पाने में समर्थ नहीं बन पा रहे हैं और आज के बच्चे भी अपने से बड़ों की बातें नहीं सुन रहे है । संस्कार, सभ्यता और  संस्कृति उनको बोझ जैसी लग रही है। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से यह चाहती है कि उन्हें अपने फैसले लेने की स्वतंत्रता हो। वो अपने तरीके से अपने जीवन को जी सकें । पुरानी पीढ़ी उनके फैसलों में हस्तक्षेप न करे। युवा पीढ़ी में नैतिक मूल्यों का स्तर तेजी से गिर रहा है जिससे समाज में अपराध और भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा है। बड़ों के प्रति सम्मान और आदर की भावनाएं लगातार घट रही हैं । अपनी सभ्यता और संस्कृति को भुलाकर लक्ष्यहीनता और दिशाहीनता की भावना वृद्धि कर रही हैजिससे अधिकांश बच्चे भटकाव का शिकार भी हो रहे हैं ।

 

घर में रिश्तेदारों का आना उनका सम्मान और उनकी सेवा करना आज के बच्चे बोझ समझ रहे हैं। पहले कोई घर में कोई आ जाता था तो हमारे संस्कार में था हम उन्हें  अतिथिदेव मानते थे। हम उनकी सेवा में लग जाते थे। आज घर में कोई बाहर से या सगे रिश्तेदार ही आ जाते हैं तो अधिकांश बच्चों को बड़ी चिढ़ होती है। वे अपने समय का घंटे भर भी उन्हें नहीं देना चाहते हैं। किसी से कोई मतलब न रखते हुए स्वयं के लिए जीना चाहते हैं। वो चाहते हैं कोई भी उनकी स्वतंत्रता में बाधा न बने। रिश्तेदारों से दूर दूर तक मतलब नहीं रखना चाहते। रिश्ते प्यार के ऐसे बंधन होते हैं जिसमें प्यार सम्मान अंतर्मन से जुड़े होते हैं। जब रिश्तों के प्रति ऐसी भावनाएं समाप्त हो जाती हैं तो वह बोझ ही लगने लगते हैं।

 

जिन बेटियों को संस्कार सभ्यता निभाते हुए उन्हें उनके लक्ष्य में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिल रही वे आज भी बहुत ऊंचाई को प्राप्त कर रही हैं। वे आगे बढ़ने के साथ अपने संस्कार अपनी मर्यादा अपनी सभ्यता को बोझ की तरह नहीं देख रही हैं।आज अधिकांश बच्चे मां बाप से अपने अनैतिक स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं। वर्तमान समाज में शिक्षा आज उच्च स्तर की है और बेटी हो या बेटा माता पिता अपने दोनों संतान को वर्तमान में एक जैसी शिक्षा देने के लिए प्रयासरत है। वह दिन अब नहीं रहा जब बिटिया सिर्फ घर के काम काज के लिए होती थी और बेटे को उनकी इच्छानुसार आगे बढ़ाया जाता था।आज के दौर में यह भेद लगभग समाप्त हो चुका है। आज बच्चों को पूर्णतः स्वतंत्र कर देना उनको विकास की तरफ ही नहीं विनाश की तरफ भी ले जाया जा रहा है।

 

संस्कार एक जीवनशैली है. यह एक दो दिन की चीज नहीं है. निरंतर ग्रहण करके स्वयं को निखारने का एक गुण है। यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संस्कारित करने की सतत् प्रक्रिया है। वर्तमान में नैतिक शिक्षा लगातार घट रही है। संस्कार अध्ययन की चीज नहीं बल्कि अनुकरण की एक प्रक्रिया है। बच्चों में संस्कार खत्म होने से आपराधिक घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो रही है। भ्रष्टाचार बढ़ रहे हैं। चीजों को समझने की क्षमता समाप्त हो रही है।

 

वह भी एक समय था जब बच्चे दादा दादी नाना नानी की कहानियां सुनकर सीखते थे। उन्हें अपने जीवन में उतारते थे।आज बच्चे मोबाइल से कहानियां सुन रहे। मोबाइल से कहानी कविता सुनने में बच्चों की तर्कक्षमता का विकास मंद होता चला जा रहा है। वो सवाल जवाब नहीं कर पा रहे हैं जो दादी नानी से करते थे। उनका विकास सीमित हो गया है। मोबाइल देखने के बाद जो भावनाएं उनके अंदर उठ रही हैं. उनके कोई जवाब न मिलने से प्रश्न पूछने का उत्साह मृतप्राय हो जा रहा है । अपने बच्चों के साथ ये गलती करना आज के पढ़े लिखे माता पिता के सबसे बड़े शौक बन गए हैं।उन्हें इस बात से अधिक खुशी मिल रही है कि हमारे बच्चे मोबाइल,टैबलेट, लैपटॉप चला ले रहे हैं पर तनिक सोचिए दादी का वह प्यार दुलार,कहानियों को समाज से जोड़ते हुए पर्यावरणीय तर्क क्षमता का निर्माण करते हुए उन चीजों के प्रति भावनात्मक बना देना के स्थान पर आधुनिक उपकरणों के जरिए बच्चों को मिल रहा बच्चों का विकास क्या सही रूप से हो पा रहा है ।

 

यदि आप बच्चों के साथ हैं तभी ये उपकरण सहायक बन सकते हैं अन्यथा वे सोशल मीडिया पर दूसरी तरफ भी भटक सकते हैं। वे इन उपकरणों के माध्यम से पूर्ण विकास नहीं कर सकते हैं। बच्चों के हाथ मोबाइल देते हुए भी यह ध्यान रखना अति आवश्यक है कहीं कोई गंदी चीज तो नहीं देख रहे हैं। कई बार कुछ ऐसी चीजें भी वो देखने लग जाते हैं जो उन्हें नहीं देखना चाहिए। आज मोबाइल लगातार देखने से बच्चे के अंदर ऐसे ज्ञान का समावेश हो रहा है जो उनकी नैतिकता का हनन कर रहा है।और वो पतन की तरफ बढ़े चले जा रहे हैं।

 

संस्कारों का लोप होना जीवन का विनाश है, विकास नहीं। हमें संस्कारों को पूर्ण रूप से निभाने के लिए सक्रिय होना चाहिए। हमारी सभ्यता ,हमारी संस्कृति, हमारी परम्परा , हमारे संस्कार हमारे जीवन पर बोझ नहीं हैं बल्कि हम इनके अनुसार चलकर अपने जीवन को सर्वश्रेष्ठ बना सकते हैंऔर दूसरे के जीवन को भी बदल सकते हैं। आइए हम मन से संकल्प करें हमारे देश की सभ्यता को बचाने का ताकि हमारी पीढ़ियों  का नैतिक पतन न हो और उनका विनाश नहीं सर्वश्रेष्ठ विकास हो सके। यह हम सब की जिम्मेदारी है ।

 

नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी
 

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