शिक्षा के उजियारे से ही बदलेंगे देश के हालात

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किसी देश का भविष्य उसके नागरिकों की सोच पर निर्भर करता है  और सोच बनती है शिक्षा से। शिक्षा किसी समाज को सिर्फ पढ़ा-लिखा नहीं बनाती बल्कि सोचने, समझने और चुनने की क्षमता देती है। यही क्षमता व्यक्ति को अंधविश्वास से बाहर लाती है, लोकतंत्र को मजबूत करती है और अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाती है।


अगर हम इतिहास पर नज़र डालें, तो हर विकसित देश की जड़ में शिक्षा ही रही है। जापान, दक्षिण कोरिया, फिनलैंड, जर्मनी और सिंगापुर जैसे देशों ने युद्धों और संकटों के बाद खुद को शिक्षा के बल पर ही खड़ा किया। भारत में भी जब स्वतंत्रता आंदोलन चला, तब गांधी, टैगोर, अम्बेडकर और नेहरू जैसे नेताओं ने स्पष्ट कहा — “शिक्षा स्वतंत्र भारत की रीढ़ होगी।” उनका मानना था कि जब कोई सरकार या परिवार शिक्षा पर पैसा खर्च करता है, तो वह किताबें नहीं, बल्कि बेहतर भविष्य खरीद रहा होता है। एक शिक्षित व्यक्ति न सिर्फ अपने परिवार की आय बढ़ाता है, बल्कि समाज के लिए उत्पादकता, नवाचार और नैतिक चेतना लाता है। इसलिए एक शिक्षक को अच्छी तनख्वाह देना, गांव में स्कूल बनाना या डिजिटल लैब खोलना — यह सब व्यय नहीं, बल्कि निवेश है जो आने वाले वर्षों में देश को फल देता है।

कुछ काम हुआ पर काफी बाकी है

यह सही है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल बहुत हैं लेकिन यह भी उतना ही सच है कि पिछले दशकों में हमने इस क्षेत्र में कई अहम उपलब्धियां हासिल की हैं। आज भारत के लगभग हर गांव में प्राथमिक विद्यालय हैं। सर्व शिक्षा अभियान, मिड-डे मील योजना और राइट टू एजुकेशन जैसे कार्यक्रमों ने लाखों बच्चों को स्कूल तक पहुंचाया है। 1951 में जहां साक्षरता दर केवल 18% थी, वहीं आज यह 77% से ऊपर है। देश में आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी और आईआईएसईआर जैसे संस्थानों ने भारत की शिक्षा को वैश्विक पहचान दी है। भारत आज विश्व का तीसरा सबसे बड़ा उच्च-शिक्षा नेटवर्क रखता है।


नई शिक्षा नीति ने अब 10+2 की जगह 5+3+3+4 की संरचना दी है

,  जो बच्चों की शुरुआती शिक्षा, मातृभाषा और व्यावहारिक ज्ञान पर केंद्रित है।
डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में दीक्षा, स्वयम और ई-पाठशाला जैसे सरकारी प्लेटफॉर्म नई दिशा दे रहे हैं।

वे  कमियां जो हमें पीछे खींचती हैं

सफलता की यह कहानी अधूरी है क्योंकि कागज़ी वादों और ज़मीनी हकीकत के बीच अब भी बड़ा अंतर है।

वित्तीय कमी और राजनीतिक चालाकी:

सरकारें बड़े वादे करती हैं पर निवेश छोटा रखती हैं। 1968 की शिक्षा नीति में कहा गया था कि केंद्रीय बजट का 6% शिक्षा पर खर्च होना चाहिए, जबकि 2020 की नीति में कहा गया कि देश की जीडीपी का 6% शिक्षा पर निवेश किया जाए। सुनने में दोनों एक जैसे लगते हैं, लेकिन अंतर बड़ा है। केंद्रीय बजट का 6% मतलब सरकार के वार्षिक खर्च का 6% तो दूसरी ओर जीडीपी का 6% मतलब पूरे देश की आर्थिक उत्पादन क्षमता का 6% ।  यह  बहुत बड़ा आंकड़ा है। आज भारत मुश्किल से जीडीपी का 3% ही शिक्षा पर खर्च कर पा रहा है, यानी सरकार अपने ही लक्ष्य का आधा भी नहीं पहुंची।
 
सीखने की गुणवत्ता में गिरावट:

बच्चे स्कूल तो जा रहे हैं लेकिन क्या वे सीख रहे हैं? एएसइआर रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण भारत के 50% बच्चे पांचवीं  में होकर भी तीसरी की किताब नहीं पढ़ पाते। इसका मतलब यह हुआ कि हमारा ध्यान बच्चे स्कूल में हैं या नहीं पर है, वे क्या सीख रहे हैं पर नहीं।

शिक्षकों की कमी और प्रशिक्षण का अभाव:

देश में लगभग 10 लाख शिक्षकों की कमी है। जो मौजूद हैं, उन्हें आधुनिक शिक्षण विधियों का प्रशिक्षण नहीं मिल पा रहा। शिक्षक को सबसे बड़ी ताकत बनना चाहिए था, पर हमने उसे सबसे कमजोर कड़ी बना दिया है।

असमानता और डिजिटल विभाजन:

शहरों के बच्चे ऑनलाइन क्लास में हैं, लेकिन गांव के बच्चे मोबाइल सिग्नल ढूंढते फिरते हैं। डिजिटल शिक्षा का फायदा उन्हीं को मिला जिनके पास उपकरण और इंटरनेट था, जिससे शिक्षा में असमानता और बढ़ गई।

रटंत प्रणाली और परीक्षा का दबाव:

एआई और तकनीक के युग में भी हम अंकों को ही बुद्धिमत्ता का पैमाना मानते हैं। हमारे बच्चे सोचते नहीं, बस रटते हैं।
परीक्षा की चिंता ने शिक्षा को जीवन से काट दिया है।

दूसरे देशों से सीखने लायक बातें

फिनलैंड: वहां बच्चों को 7 साल की उम्र तक औपचारिक पढ़ाई में नहीं डाला जाता। कोई बोर्ड परीक्षा नहीं, कोई रैंकिंग नहीं, है तो बस सीखने की खुशी। शिक्षक वहां समाज के सबसे सम्मानित वर्ग हैं।

सिंगापुर: उसने तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा को समान दर्जा दिया। वहां शिक्षा रोजगार की सीढ़ी नहीं, कौशल की यात्रा है। भारत भी अगर स्किल डेवलपमेंट को शिक्षा से जोड़े, तो बेरोजगारी घट सकती है।

दक्षिण कोरिया: 1950 के दशक में लगभग अनपढ़ देश, आज तकनीकी महाशक्ति है।  उसने जीडीपी का बड़ा हिस्सा शिक्षा और अनुसंधान पर लगाया। भारत को भी रक्षा या सब्सिडी जितना खर्च शिक्षा पर करना होगा।

कनाडा और ऑस्ट्रेलिया: उन्होंने शिक्षा को बहुभाषी और लचीला बनाया। छात्रों को अपनी रुचि के अनुसार विषय चुनने की स्वतंत्रता दी। भारत में भी अब समय आ गया है कि आर्ट्स, साइंस और कॉमर्स की दीवारें तोड़ी जाएं।


अगर सचमुच चाहते हैं कि शिक्षा का उजास देश के हर कोने तक पहुंचे, तो सरकार को अब घोषणाएं नहीं, ठोस कदम उठाने होंगे। इसके तहत शिक्षा पर खर्च बढ़ाया जाए। इसे जीडीपी के 6% तक पहुंचना ही नहीं, बल्कि गुणवत्ता पर केंद्रित निवेश भी बनाना होगा। मॉनिटरिंग और पारदर्शिता बरतते हुए शिक्षा फंड के उपयोग का वार्षिक सार्वजनिक लेखा तैयार हो।  शिक्षक भर्ती और प्रशिक्षण सुधारा जाए। हर स्कूल में योग्य, प्रशिक्षित और स्वप्रेरित शिक्षक हों। ग्रामीण स्कूलों का कायाकल्प कर लैब, पुस्तकालय, इंटरनेट और खेल मैदान बनाएं। डिजिटल समानता  के लिए हर गांव तक उच्च-गति इंटरनेट पहुंचाया जाए।  दसवीं से ही व्यावसायिक शिक्षा को मुख्यधारा में लाया जाए। शिक्षा नीति के प्रभावी कार्यान्वयन लिए राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा पैदा की जाए, अच्छे प्रदर्शन के लिए राज्यों को पुरस्कृत किया जाए।

 

राजेश जैन
 

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