
धर्म गतिमान है। प्रवाही रहने के लिये धर्म का चक्र सतत चलते रहना चाहिए। इसलिये भारत की संसद में अध्यक्षीय मंच पर ‘धर्मचक्र प्रवर्तनाय’ यह लिखा है। इस धर्म का रक्षण संवर्धन करते रहने से धर्म समाज का रक्षण एवं संवर्धन करेगा। इसीलिए कहा गया है- धर्मो रक्षति रक्षितः , अर्थात आप धर्म की रक्षा करो, धर्म आपकी रक्षा करेगा। समाज की विजयशालिनी संगठित कार्यशक्ति से ही यह धर्मचक्र सतत कार्यरत रहेगा। गीता में भगवान कृष्ण ने यह कार्य करने हेतु सज्जन शक्ति का संरक्षण और दुष्ट शक्ति का विनाश करना ऐसा कहा है पर इसके लिये शक्ति की उपासना आवश्यक है। सज्जन शक्ति के रक्षण हेतु और दुष्ट शक्ति के विनाश हेतु विवेकपूर्ण ज्ञान भी आवश्यक है।
फ्रेंच चिंतक काफ्का ने अपने शिष्यों से पूँछा- ‘‘पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है, यह सूर्य की प्रदक्षिणा भी करती है, सूर्य मण्डल भी गतिमान है तो दुनिया में स्थिरता किसमें है।’’ बाद में कफ्का ने जवाब दिया कि- ‘‘अपने लक्ष्य की ओर अत्यन्त तीव्र गति से जाने वाले बाण में स्थिरता है। इसीलिए ऐसे व्रतधारियो में अक्षय तीव्र ध्येयनिष्ठा सतत जागृत रहना भी आवश्यक है। लोक शक्ति जगाना, लोकमत का परिस्कार करना और उनका संगठन करना यह राष्ट्र की अक्षुणता के लिये और राज्य व्यवस्था ठीक चलाने के लिये अत्यन्त आवश्यक है। इसलिए संघ संस्थापक डा. हेडगेवार ने अपनी सारी शक्ति इसी कार्य में लगा दी। इस तरह से सबको स्व की अवधारणा के लिये जगाना और एकत्रित करना यह भी बहुत महत्वपूर्ण कार्य है। कौटिल्य कहते हैं- ‘‘सुखस्य मूलम् धर्मः यानी सुख का मूल धर्म में है- ‘‘धर्मस्य मूलम अर्थ अर्थस्य मूलम राज्यम्। राजस्य मूलम इन्द्रियजयः।’’ तो उपभोग के मुकाबले हमारे यहाँ इन्द्रियजयः को इतना महत्व दिया गया है। शरीर ही सब कुछ नहीं, वह तो धर्म का साधन है। शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम। आहार, निद्रा, भय, मैथुन सर्वस्व नहीं है।
गौर करने का विषय है कि हमने पराधीनता के विरूद्ध लड़ाई क्यों लड़ी, स्वराज्य का आग्रह क्यों किया ? विचार करें तो स्वराज्य में स्व पर ज्यादा जोर है। स्व का अर्थ है- अपने स्वत्व का अभिमान उससे प्रगाढ़ प्रेम और उससे प्रेरणा लेकर आजीवन कार्य करने का आग्रह ‘स्वराज्य’ शब्द में निहित है। स्वत्व से आशय है अपने देश और अपने लोगों तथा इन दोनों को जोड़ने वाला प्राचीन इतिहास उसे निर्माण करने वाले महान पूर्वज, उनका कृतित्व बलिदान एवं पराक्रम। इन सबको मिलाकर ही ‘संस्कृति’ बनती है। संस्कृति में कला-कौशल साहित्य, सामाजिक रीति-रिवाज सभी कुछ आता है। बहुत से लोग स्वराज और स्वतंत्रता को एक ही अर्थ में ले लेते हैं जबकि प्रत्येक राष्ट्र की एक जीवन-प्रणाली होती है। उसका एक विशेष दृष्टिकोण और एक विशिष्ट धारणा होती है। उसी धारण के आधार पर जो जीवन-रचना होगी, उसे स्वतंत्रता कहेंगे। यह रचना अध्यात्मिक, सामाजिक, राजनीति, साहित्य कला, विज्ञान किसी भी क्षेत्र में क्या न हो, सर्वत्र अपने तंत्र का प्रयोग ही स्वतंत्रता है। यही स्वतंत्रता जब राजनीतिक क्षेत्र में प्रगट होती है तो उसे स्वराज कहते हैं। स्वराज्य का अर्थ है- अपने राष्ट्र की प्रकृति के अनुसार काम करने की छूट, तभी तो सभी ओर भारतीयता का साक्षात्कार होगा।
पर इस मार्ग में समस्याएं बहुत हैं। जैसे देश में बहुत से लोग भगवा रंग से बहुत परेशान हैं। खास तौर पर विपक्षी राजनीतिक दल और अंग्रेजीदाँ बुद्धिजीवी बहुत परेशान हैं। वे तमाम लोग परेशान हैं, जिन्हें भारत के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी नहीं है, रत्ती भर भी समझ नहीं है, जिनके मन में भारत के लिये थोड़ा सा भी सम्मान बाकी नहीं बचा है। ऐसे तमाम लोग परेशान हैं, जो भारत को माता नहीं, उसे भोग-भूमि मानते हैं। इसमें तथाकथित समाजवादी से लेकर जातिपरस्त लोग भी शामिल हैं। जबकि भगवा रंग भारत के लोगो से, भारत की परम्परा से भारत के हजारों सालों के जीवन में इसका बहुत ही जीवंत सम्बन्ध रहा है पर भगवा विरोधियों ने तो यूपीए संगठन के दौर में भगवा आंतकवाद की थ्योरी प्रतिपादित कर दी।
भगवा रंग को बिखेरने वाले सूर्योदय के समय के सूर्य को नमस्कार या फिर सूर्य नमस्कार इसीलिए किया जाता है क्योंकि सूर्य के सम्पर्क में आते ही हमारे जीवन में गतिशीलता का संचार होने लगता है। वही गायत्री मंत्र का उच्चारण जिसमें सूर्य से प्रार्थना की गई है, हमारी बुद्धि की जड़ता को दूर करने वाला मंत्र है। वस्तुतः भगवा ही भारत की पहचान है, अपनी पहचान है। यही भगवा रंग हमारे बसंत ऋतु का रंग है, हमारे नववर्ष का प्रतीक है। भगवा एक तरह से पीला रंग भी है, उसमें स्वर्ण का तो यही रंग है ही, विष्णु पीताम्बर है, राम पीताम्बर है, कृष्ण पीताम्बर है। यानी पीले वस्त्र धारण करने वाले। केसर का रंग केसरिया यानी भगवा। सूर्यास्त, अरूणिमा और किरणों का रंग भगवा। फाग का रंग लाल, रक्ताध, यानी भगवा। यज्ञ की अग्नि की लपटो का रंग भगवा। जो लोग यह मान बैठे हैं कि जीवन में मात्र यह वैराग्य का प्रतीक है, या जीवन से पलायन का प्रतीक है और इस तरह से भगवा रंग मात्र सन्यास का प्रतीक है। उन्हें यह पता होना चाहिए कि भगवा रंग जीवन की प्राप्ति का रंग है, जीवन की समृद्धि का रंग है। गौर करने का विषय है- भगवान शिव, भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर इन सब में एक शब्द समान है- ‘भगवान’। भगवा रंग भी इसी भगवान का शब्द है। संक्षिप्त रूप से माना जाये, तो इससे भला किसी को क्या आपत्ति।
भारत का जीवन दर्शन, भारत का धर्म, भारत की संस्कृति, भारत की अहलाद भरी त्यौहार परम्परा, भारत की शक्तिशली त्यागमयी जीवनचर्या का, भारत की सम्पूर्ण बलिदानी परम्परा का समुच्चित शब्द जैसा ही सुनाई देता है- भगवान का रंग यानी भगवा रंग जो अपने भारत देश की शाश्वत पहचान रहा है और रहने वाला है। तो इस तरह से भारत अपने स्व की तलाश कर रहा है और महान वैभवशाली स्वरूप को पुनः पाना चाहता है। यह बात और है कि भारत विरोधी शक्तियाँ इस प्रयास के विरोध में खड़ी हैं पर वह मात्र क्रंदन करते रहे जायेंगे। इसीलिए तो गीता में कृष्ण ने कहा- “स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः”, धर्म यानी स्वभाव यानी स्व- जो सर्वापरि है।