धर्म की जीवन‌ में आवश्यकता

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धर्म की हम सब मनुष्यों के जीवन में बहुत आवश्यकता है। धर्म के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। सभी भारतीय धर्मशास्त्र सदा हमें अपने धर्म का पालन करने का सद् परामर्श देते हैं। विश्व का कोई भी धर्म मनुष्य को कभी यह नहीं सिखाता कि वह स्वार्थी बनकर दूसरों के रास्ते में काँटे बिछाए और सभी के लिए मुसीबत ही बन जाए।
जहाँ धर्म को जीवन यापन का प्रधान साधन माना जाता था, वहीं अब कुछ लोग इसे पतन का कारण भी मानने लगे हैं। इसका कारण है कि कुछ मुट्ठी भर लोग अपने कुत्सित स्वार्थों की पूर्ति के लिए ईर्ष्या-द्वेष की नीति अपना रहे हैं। धर्म के नाम पर खूनी खेल खेल रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि ये कार्य किसी भी देश या किसी काल में स्वीकार्य नहीं किए गए।
आज पूरे विश्व में कुछ लोग धर्म के नाम पर आतंक का साम्राज्य फैलाकर सब की शान्ति भंग करना चाहते हैं। यहाँ वहाँ हर जगह बम ब्लास्ट करना, मानव बम बनाकर विध्वंस करना, आगजनी करना, लूटपाट करना, छोटे-छोटे बच्चों को अनाथ व बेसहारा बना देना आदि अमानवीय कृत्य कदापि क्षम्य नहीं हो सकते।
केवल आत्मतोष के लिए दूसरों के प्राणों को मिट्टी की भाँति समझने की वे भूल कर बैठते हैं। धर्म मनुष्य को पतन के मार्ग से बचाकर सन्मार्ग की ओर ले जाता है। परन्तु वे भूल रहे हैं कि ईश्वर द्वारा निर्मित इस सुन्दर सृष्टि को नष्ट करने का अधिकार उस मालिक ने किसी को नहीं दिया है।
धर्म के नाम पर जो असहिष्णु बनने का प्रयास करते हैं, उन लोगों को सदा यह याद रखना चाहिए कि ईश्वर की इस सृष्टि में आतंक, ईर्ष्या, द्वेष आदि असामाजिक एवं अमानवीय कार्यो का कोई स्थान नहीं है। उसकी रचना को कोई मनुष्य नष्ट करे अथवा बिगाड़ने का प्रयास करे, यह दुष्कृत्य ईश्वर को बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है।
हम सांसारिक लोगों में यह सामर्थ्य नहीं है कि उसकी सत्ता को चुनौती दे सकें। उसकी लाठी जब चलती है तो बिना आवाज के चलती है। जब वह वार करती है तो सबको हिलाकर रख देती है। रावण, कंस, हिरण्यकश्यप आदि जितने भी अहंकारियों ने उसे चुनौती देने का यत्न किया उनका अन्त कैसा हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है। जितने भी आततायी राजा आदि इस संसार में हुए हैं, उनके अन्त का गवाह इतिहास है।
धर्म मनुष्य को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। वह अत्याचार का विनाश करके सदा धर्मराज्य की स्थापना करता है। हमारे समक्ष भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। दम्भी रावण व कंस का विनाश करके उन्होंने इस देश में धर्म की स्थापना की। गुरु गोविन्द सिंह जी ने भी हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपने पुत्रों को दीवार में चुनवा दिया। मीरा बाई ने विष का प्याला पिया। धर्म के लिए ईसा मसीह सूली पर चढ़ गए। आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने विष पान किया था।
धर्म सुसंस्कारों को देने वाला एक माध्यम ही रहने दें तो अच्छा होगा। इसके नाम पर राजनीति करने या खून-खराबा करने की स्वतन्त्रता किसी को भी नहीं दी जा सकती। हमारे कामों में कोई भी दखलअंदाजी करे, यह हमें बिल्कुल भी सहन नहीं होता तो वह मालिक इसे क्यों पसन्द करने लगा? जगत की उत्पत्ति, पालन व संहार उस जगतपिता के काम हैं। उसके कामों में टाँग अड़ाना छोड़ देना ही श्रेयस्कर है।
‌संसार के स्वामी प्रभु की सता को चुनौती देने के स्थान पर हमें उसकी इच्छा के आगे सिर झुकाना चाहिए। उसके बनाए हुए नियमों का अपने मन से पालन करना चाहिए। इस प्रकार करने में ही मानव जाति का भला हो सकता है और चारों ओर सौहार्द व सुख-शान्ति बनी रह सकती है। इसी से ही मानवजाति का कल्याण सम्भव है।
 

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