विधि का विधान

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विधि का विधान बहुत कठोर है। वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। विधि या होनी जो न कराए वही थोड़ा है, वह बहुत ही बलवान है। उसके प्रकोप से आज तक कोई भी नहीं बच सका। मनुष्य के कर्मों के अनुसार जो भी सुख-दुख, जय-पराजय, लाभ-हानि आदि उसे मिलते हैं, उनमें रत्ती भर की भी कटौती नहीं की जाती। मनुष्य को उनसे भोगकर ही छुटकारा मिलता है। इसके अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं होता है।
भगवान राम और भगवती सीता का विवाह और राम का राज्याभिषेक, दोनों कार्य शुभ मुहूर्त में किए गए थे परन्तु उनका सम्पूर्ण वैवाहिक जीवन कष्टों से भरा रहा। प्रातः राज्याभिषेक होने को था, सब तैयारियाँ हो चुकी थीं। परन्तु रात ही रात में ऐसा कुछ घटित हो गया कि उन्हें सब कुछ त्याग देना पड़ा। राजसी ठाठबाट और वस्त्रों का परित्याग करके उन्हें मुनि वेश में ही वन में जाना पड़ गया।
अयोध्या के राजगुरु मुनि वशिष्ठ से इस विषय मंे पूछा गया तो तुलसीदास जी के शब्दों में उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया-
सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहूं मुनिनाथ।
लाभ हानि, जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।।
अर्थात् हे भरत सुनो! जो विधि ने निश्चित किया है वही होकर रहेगा। लाभ-हानि, जीवन-मरण, यश-अपयश सब भाग्य के अधीन हैं।
भगवान कृष्ण की चर्चा करते हैं। यह सर्वविदित है कि उनको जन्म माँ देवकी ने भाई कंस के कारगर में मथुरा में दिया था। उनके पैदा होते ही उन्हें पिता वासुदेव ने गोकुल में नन्द बाबा के घर पहुँचा दिया। वहाँ उनका लालन-पालन माता यशोदा ने किया। बचपन से ही अनेक अवाँछनीय स्थितियों का सामना उन्हें करना पड़ा। फिर उन्हें माँ यशोदा और पिता नन्द बाबा को भी छोड़कर मथुरा वापिस जाना पड़ा।
माता सती भगवान शिव के मना करने के बावजूद अपने पिता के यज्ञ में भाग लेने गईं। वहाँ पति का अपमान सहन न कर सकने के कारण वे सती हो गईं। भगवान शिव माता सती की मृत्यु को टाल नहीं सके जबकि महामृत्युंजय मन्त्रा उन्हीं का आह्वान करता है। भगवान शिव और भगवती पार्वती की जोड़ी को तोड़ा नहीं जा सकता।
रावण, कंस, हिरण्यकश्यप आदि तथाकथित स्वयंभू ईश्वर कहलाने वालों के पास समस्त शक्तियाँ थीं। फिर भी इन सबका दुखद अन्त हुआ। इनका और इन जैसे सभी लोग इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। महाभारत काल में भीष्म पितामह को शर शैय्या पर विश्राम करना पड़ा। भक्ति काल में रानी मीराबाई को उसके देवर ने ही विष दे दिया। कृष्ण भक्ति में मस्त वे मन्दिर-मन्दिर भटकती रहीं।
दानवीर राजा हरिश्चन्द्र को ऋषि विश्वामित्रा को दान देने के कारण स्वयं को ही एक चाण्डाल के पास बेचना पड़ा। उन्हें उसके पास श्मशान घाट पर नौकरी करनी पड़ी। उन्हें अपनी पत्नी को एक दासी के रूप में बेचना पड़ा। इससे बढ़कर और उनका दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि अपने पुत्रा का दाह संस्कार करने के लिए उन दोनों पति और पत्नी के पास कर देने तक के लिए धन नहीं था।
आधुनिक काल में बहुत-सी घटनाएँ हृदय को विदीर्ण करती हैं। आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द को उनके रसोइए के द्वारा विष दिया गया। ईसा मसीह को उनके शत्राुओं के द्वारा जीवित ही सूली पर लटका दिया गया, जिनके अनुयाई पूरे विश्व में विद्यमान हैं। महात्मा गांधी को गोली मार दी गई। इतिहास के पन्नों को खंगालने पर ऐसी अनेक घटनाएँ मिल जाएँगी।
इस सारी चर्चा का सार यही है कि होनी बहुत बलवान है। उससे इस संसार का कोई भी जीव नहीं बच सकता। विधि के इस विधान की दृष्टि में साधु-सन्यासी, राजा-रंक, योगी-भोगी, अमीर-गरीब आदि सभी ही एक बराबर हैं। मनुष्य चाहे स्वयं को कितना ही तीसमारखाँ क्यों न समझ ले, विधि के इस विधान के समक्ष उसे घुटने टेकने ही पड़ते हैं। इसलिए मनुष्य को हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए। 
 

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